|  मैं हैरान हो गया। कान की 
                    शल्यचिकित्सा के लिए तीस हज़ार? शायद आजकल के ज़माने में तो 
                    तीस हज़ार बड़ी रकम नहीं। लेकिन घर के हालात मुझे पता है। बेटी 
                    की शादी के लिए भविष्य निधि के सारे पैसे खर्च कर चुका हूँ। 
                    नौकरी से निवृत्त होने के बाद अपना घर बनाने के कारण कुछ बचा 
                    नहीं। घर अच्छी तरह बनाने के लिए उधार माँगना पड़ा। मेरी सारी 
                    पेंशन बैंक की क़िस्तें भरने में ही खर्च होती है। बेटे की 
                    प्राइवेट नौकरी है। उसकी कमाई से ही घर की खर्चा चलता हैं। बहू 
                    घर का काम सँभालती है। बेटे की अब तक कोई विशेष बचत 
                    नहीं है। इस घर के अलावा मैंने उसे कुछ नहीं दिया।''कान की शल्य चिकित्सा के लिए इतने रुपए क्यों?'' मैंने अपनी 
                    शंका व्यक्त की।
 बेटे ने काग़ज़ पर लिखा, ''इस डाक्टर साहब से नहीं होगा। और एक 
                    विशेषज्ञ सर्जन को बुलाना है और कान के अंदर कुछ गढ़ना होगा। 
                    इसलिए इतनी बड़ी रकम लगेगी।''
 मैं चुप हो गया। अब तो बेटे पर ये बड़ा बोझ होगा। लेकिन बाकी 
                    सारी ज़िंदगी इसी तरह पूरे सन्नाटे में बिताना... मुश्किल है।
 और एक सप्ताह बीत गया। बेटे ने शल्य चिकित्सा की कोई बात नहीं 
                    की। मैंने भी कुछ नहीं पूछा।
 कभी-कभी मेरे बेटे और बहू के बीच में गंभीर चर्चा हो रही है। 
                    वे मेरे सामने ही बात कर रहे हैं क्यों कि उन्हें पता है कि 
                    मुझे सुनाई नहीं देता। लेकिन मैं समझ गया। मेरी शल्य चिकित्सा 
                    को लेकर वे दोनों झगड़ रहे हैं। शायद बहू कह रही होगी - ''इस 
                    हालात में इस बूढ़े पर इतने रुपए खर्च करना बेकार है।'' सोचें 
                    तो उसकी राय सही ही है।
 इन दिनों मन में विचार ज़्यादा होने लगे हैं। न उन में 
                    स्पष्टता है, और न उनका अंत।
 चार दिनों के बाद बेटे ने 
                    मेरे पास आकर एक काग़ज़ दिखाया, 'डाक्टर साब से मिला। ऑपरेशन 
                    के लिए अगले रविवार का दिन पक्का हो गया है।' ''लेकिन पैसे?'' मैंने पूछा।
 उस ने संकेत दिया की पैसे का इंतज़ाम हो गया।
 एक बात मेरी समझ में नहीं आई - क्या उसने कहीं से उधार लिया? 
                    नहीं तो शायद दफ्तर से लोन लिया होगा।
 अगले दिन आकर फिर एक काग़ज़ दिखाया।
 ''ऑपरेशन के एक दिन पहले रक्तचाप और मधुमेह की जाँच करवानी 
                    होगी। इन चार दिनों में हमें सचेत होना होगा कि उनमें बढ़ाव न 
                    हो।''
 ''पहले ये बताओ कि पैसे का इंतज़ाम कैसा हुआ?''
 बेटा खामोश रह गया। मैंने फिर पूछा। वह कुछ इशारे करने लगा, झट 
                    से मन बदला और काग़ज़ पर लिख दिया।
 ''दफ्तर के सहकर्मियों ने कुछ मदद की।''
 यह पढ़ने पर मैं निश्चिंत हो गया। हर महीने कुछ पैसे उनको चुका 
                    सकते हैं।
 लेकिन दो दिन बाद शाम को समंदर के तट पर मुझे एक विशेष जानकारी 
                    मिली। हमारे बाजू गली में सूद पर उधार देनेवाले रंगस्वामी से 
                    मुलाक़ात हुई। उसने इशारा करके पूछा, ''क्या आप का ऑपरेशन हो 
                    गया?''
 मैंने 'ना' कहा और उससे पूछा 
                    कि उसको कैसे पता है। मैं तो सोच रहा था कि शल्य चिकित्सा की 
                    बात मुहल्ले के लोगों को मालूम नहीं है। रंगस्वामी ने कुछ 
                    संकेत किया लेकिन मैं समझ नही सका। अब मुझे जेब में काग़ज़ कलम 
                    रखने की आदत हो गई है। झट से काग़ज़ बाहर निकाला और उसे दे 
                    दिया।उसकी लिखी बात पढ़कर मुझे एकदम धक्का लगा। बेटे ने बहू के 
                    मायके वालों द्वारा दिए गए गहने और पोती के सोने की हँसली 
                    गिरवी रखकर रंगस्वामी से पैसे लिया है। यह उपाय बहू का है। 
                    उन्होंने रंगस्वामी से वादा लिया था कि इसके बारे में किसी से 
                    कुछ न कहे। रंगस्वामी सोच रहा है कि ये सब मुझे मालूम है। कुछ 
                    भी हो, मैंने बहू को गलत समझा। इस गहने गिरवी रखने की बात ने 
                    तो मुझे हिला दिया।
 शनिवार का दिन आ गया। रक्तचाप 
                    और मधुमेह आदि रिपोर्ट लेकर हम इ. एन. टी डाक्टर से मिले। 
                    रिपोर्ट देखकर उन्होंने कुछ देर बेटे से बात की। मुझे सुनाई 
                    नहीं दिया, फिर भी मैं कुछ समझ सका। घर पहुँचते ही उससे पूछा 
                    कि क्या बात है। बेटे ने एक काग़ज़ पर लिख दिया, ''डाक्टर साब 
                    की बात सर्जन से कल हुई। लेकिन सर्जन साब अब इतना आश्वस्त नहीं 
                    है, जो पहले थे। सारी रिपोर्ट की जाँच करने के बाद बोले कि 
                    ऑपरेशन के बाद भी सुनने की शक्ति वापस पाने की संभावना बहुत कम 
                    है। क्यों कि आप बड़े उम्र के हैं। इसलिए और एक बार सोचने की 
                    डाक्टर साहब ने सलाह दी है। कुछ भी हो, ऑपरेशन करवा लीजिए। अगर 
                    थोड़ा भी सुनने की शक्ति मिल गई तो बेहतर है ना।'' काग़ज़ पढ़ने के बाद मैंने 
                    आश्वस्त होकर बेटे से कहा, ''अब ऑपरेशन की बात छोड़ो। आजकल मुझे बहरेपन की ज़िंदगी की आदत 
                    हो गई है। मुझे कुछ परेशानी नहीं है। जब ऑपरेशन के नतीजे की 
                    गारंटी नहीं है तो क्यों इतने पैसे व्यर्थ करें और अनावश्यक 
                    तनाव में पड़ें? मेरे मन में भी यही बात है जो डाक्टर साहब ने 
                    तुमसे कही।''
 बेटा कुछ बोलने लगा, तो मैं धीरे-धीरे उसे मनाया और ऑपरेशन की 
                    बात टाल दी गई।
 रात पलंग पर लेट गया तो फिर विचार-
 पिछले दिन डाक्टर साब से अकेले मिलकर, जो बात मैंने कहा, 
                    उन्हें याद कर रहा हूँ,
 ''डाक्टर साब, मेरी बात पर जरा ध्यान दीजिए। अब तो मुझे सुनने 
                    की शक्ति वापस पाने की कोई इच्छा नहीं है। अगर मैं बोलता हूँ 
                    तो बेटा नहीं सुनेगा। उधार लेकर ऑपरेशन का इंतज़ाम किया है 
                    उसने। अगर मैंने खुद इन्कार कर दिया तो उसे दुख होगा कि पैसे 
                    की वजह से ऑपरेशन नहीं करा पाए। इसलिए आप उससे कह दीजिएगा कि 
                    इस ऑपरेशन से कुछ फ़ायदा नहीं होगा। उसे किसी न किसी तरह 
                    समझाएँ। तब उसे दुख नहीं सहना पड़ेगा। मैं तो इस ऑपरेशन के 
                    बिलकुल विरुद्ध हूँ। कृपया मेरी बात समझिए और मेरी मदद 
                    कीजिए।''
 मेरा अनुरोध उन्होंने मान 
                    लिया। वही हुआ जैसा मैं चाहता था। मैंने शब्द से बिदा ली... 
                    शाश्वत रूप से और सन्नाटे से निपट रहा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ 
                    - बधिर होने के लाभ और क्या-क्या हैं? |