| सुबह की पहली किरण की तरह वो 
                    मेरे आँगन में छन्न से उतरी थी। उतरते ही टूटकर बिखर गई थी। और 
                    उसके बिखरते ही सारे आँगन में पीली-सी चमकदार रोशनी कोने-कोने 
                    तक फैल गई थी। खिलखिलाकर जब वो सिमटती तो रोशनी का एक घना 
                    बिंदु आँगन के बीचोबीच लरजने लगता और उसकी बेबाक हँसी से आँगन 
                    के जूही के फूल खुलकर अपनी खुशबू बिखेरने लगते। उसका नाम था 
                    प्रीत। मैं उसे प्रीतो कहती थी।  हुआ यों कि मेरी एक बड़ी पुरानी सहेली अपने घर जा रही थी। मेरे 
                    पति विदेश गए थे। घर वैसे भी काटने को दौड़ रहा था। सो जब मेरी 
                    सहेली ने ये प्रस्ताव रखा कि प्रीतो को कुछ दिन मैं घर में रख 
                    लूँ तो मैंने फौरन हाँ कर दी। मेरी सहेली का दायाँ हाथ थी 
                    प्रीतो, ये मैं जानती थी। उसके किंडर गार्डन स्कूल के बच्चे 
                    उसे तीतो कहकर स्कूल में घुसते और फिर वो उनकी प्रीत आँटी हो 
                    जाती।  प्रीतो को प्रीत कहलवाने का 
                    शौक था। स्कूल से लेकर तकिये के गिलाफ तक का काम प्रीतो के 
                    सुपुर्द था। पर जब छुटि्टयों में मैडम घर जाने लगी तो प्रीतो 
                    को साथ ले जाना उसकी बनिया बुद्धि को ठीक न लगा।  मेरी ये सहेली बचपन से ही 
                    दबंग थी।  |