एक
बार गोलगप्पे वाले से उसका झगड़ा हुआ और मैडम की चप्पल की मार
से वो भाग गया था। तब हम सब गोलगप्पों के खोमचे पर टूट पड़ने
को ही थे कि मैडम खोमचे वाले की जगह बैठकर प्लेटें सजा-सजा कर
सबको देने लगी।
आनन-फानन में गोलगप्पे हवा हो
गए। तब उसने इमली के पानी की तुर्शी से सी-सी करते हुए बताया,
'मुआ मुझ अकेली को देखकर आँख मार रहा था। मैंने देसी जूती से
वो पिटाई की कि भाग गया।' तब से हम उसे मैडम ही कहते थे। उसका
असली नाम भूल ही गए। पर मैडम को कोई न भूला सका। उसके प्रस्ताव
पर मैं थोड़ी नाखुश भी थी पर सोचा प्रीतो की रौनक रहेगी। दो
दिन पहले ही मैडम प्रीतो को लेकर मेर घर आ गई थी। उसको कई
किस्म के भाषण पिलाने के बाद जब मैडम ट्रेन पर बैठी तो प्रीतो
जो उसका राई-रत्ती सँभालकर देती रही थी, थककर चूर हो चुकी थी।
आते ही जब दो सैरीडौन खाकर वो सो गई तो मैंने भी उससे कुछ
पूछना ठीक न समझा। दूसरे दिन अभी सुबह न हुई थी पर घर में
चहलकदमी की अपरिचित आवाज़ें आनी शुरू हो गई थीं। उन्हें तो मैं
किसी तरह से सहती ही पर जब बाथरूम का पानी धुआँधार बहने की
आवाज़ आई तो हिम्मत ने जवाब दे दिया। लोहे की बाल्टी में पूरे
खुले नल के गिरते पानी से अधिक शोर शायद कोई नहीं कर सकता।
बिस्तर में आँखें मीचे-मीचे मैं ज़ोर से चिल्लाई -
'प्री तो '
'जी मैडम,' वो जैसे सर पर ही खड़ी थी। 'खबरदार जो तुमने मुझे
मैडम कहा,' मैं झल्लाकर उस पर बरस पड़ी तो वो मासूमियत से
बोली, 'तो फिर क्या कहूँ मैडम जी।'
'पहले ये नल बन्द करो। और तुम मुझे दीदी कह सकती हो।'
वो मुझसे कब आकर लिपट गई मैं
ये जान ही न पाई। दीदी, दीदी कहकर उसने सारा घर गुँजा दिया। और
अपनी इस उदारता से मैं घमण्ड से फूल उठी। फिर उसके अतीत की चंद
पोटलियाँ पलभर में ही मेरे सामने बिखरी पड़ी थीं।
प्रीतो अकेली बेटी थी। तीन-चार भाइयों की अकेली बहन। पर उसका
बाप जो बढ़ई से ज़्यादा शराबी था, उसने इसके ज़रा-सा बड़ा होते
ही इसे नम्बरदार के बेटे को ब्याह दिया। उसे पुराना दमा था। इस
अन्याय का विरोध कौन करता। उसके भाई शराबी बाप की मार खा-खाकर
दौड़ने की उम्र आते ही घर से भाग गए थे। माँ घर की दीवारों
जैसी ही एक दीवार थी।
भगवान की करनी। सुहागरात के
दिन ही सप्तपदी में अग्नि का धुआँ पी-पी कर दूल्हे महाशय को
दमे का ऐसा दौरा पड़ा कि उसे हस्पताल ले जाना पड़ा। सुहाग शैया
पर बैठी-बैठी प्रीतो सोयी रही। किसी ने उधर झाँका भी नहीं।
सुबह लोगों ने कहा, ''कुलच्छनी ने आते ही पति पर वार कर दिया।
पता नहीं नम्बरदार के इस नाम का क्या होगा। इसका पाँव तो
जानलेवा है।'' तभी हमारी मैडम वहाँ पहुँच गई और शौहर के मरने
से पहले ही उसे घर ले आई। सारे गाँव के मुकाबले में वो अकेली
ही थी। पर दबंग ऐसी कि उसे देखते ही नम्बरदार हुक्का छोड़ उठ
खड़ा हो। इसी दबंगता की वजह से आज तक उसकी शादी न हो पाई थी।
ऐसी ख्याति थी कि पुरोहित भी उसकी जन्मपत्री लेकर कहीं जाने को
राजी न होता। सो कुँआरी ही रह गई। प्रीतो की आँखों में तैरते
सपने मैडम ने बड़ी आसानी से पोंछ डाले और शहर में आकर बच्चों
का किंडर गार्डन खोल लिया। प्रीतो को जो सहारा मिला तो उसने
अपना सारा मन बच्चों में ही लगा लिया। मैडम उसे प्यार भी करती
है पर मजाल है जो कभी पता चलने दे।
प्रीतो, जिसने शादी से सुहाग
सनी भाँवरों में शरमा-शरमाकर पाँव रखे, अग्नि के आगे
कस्मे-वादे करते समय पिघलाती रही, वो प्रीतो कब तक अनुशासन में
रहेगी इसका भय मुझे बराबर लग रहा था। मेरे घर में आते ही
ज़रा-सी सहानुभूति उसकी आँखों में फिर से सपनों के सन्देशे
बुनने लगी। सारा काम हँसते-हँसते निपटा लेती। और सारा दिन कोई
छ: बार कंघी करके महाउबाऊ हेयर स्टाइल बनाती रहती। बिन्दी
लगाने का उसे बड़ा ही चाव था। मैंने एक दिन कहा, 'प्रीतो, तू
बिन्दी लगाकर मिटा क्यों देती है?'
उदास होकर बोली, 'वो जो मर गया है। पर दीदी, मेरा मन बिन्दी
लगाने को करता है।' मैंने कहा, 'उससे तेरा क्या वास्ता है? ये
कोई शादी थोड़े ही थी।'
वो उत्साहित होकर बोली, 'यही तो मैं कहती हूँ पर मैडम हमेशा
टोक देती है। कहती हैं, लाल बिन्दी सिर्फ़ सुहागिनें लगा सकती
है।'
'तुम काली बिन्दी लगाया करो।'
'हाँ दीदी, काली बिन्दी तो लगा ही सकती हूँ। और अब उसे मरे एक
साल तो हो ही गया है। अब उसका प्रेत मुझे तंग नहीं कर सकता।'
ये कहकर वो खिलखिलाकर हँस पड़ी। इतनी हँसी कि उसकी आँखें
आँसुओं से भीग गईं।
नाक सुकड़कर वो अपने आँसुओं
को पोंछते-पोंछते कहने लगी, 'दीदी, अगर वो ज़िन्दा रहता तो मैं
गाँव कभी न छोड़ती। शादी से पहले एक बार उसने रास्ते में मेरा
हाथ पकड़कर कहा था, 'कसम खा प्रीतो, मुझे कभी छोड़कर न जाओगी।'
मैंने अपने सबसे मीठे आम के दरख्त की कसम खाकर कहा था, 'कभी
नहीं।'
तभी किसी के कदमों की आहट हुई थी और उसने मेरा हाथ छोड़ दिया
था। उसके घर वाले कहते हैं, 'हमें पता था ये ज़्यादा दिन न
रहेगा। हमने तो शादी इसलिए करवा दी थी कि प्रेत बनकर हमें तंग
न करे।' मेरा गला उन्होंने काटना था सो काट दिया।'
मैंने कहा, 'प्रीतो, तू तो
अभी २० की भी नहीं हुई, ऐसी बातें क्यों करती है? तेरी किसी भी
बात से नहीं लगता तेरी शादी हो चुकी है। ये जोग तो तुमने मैडम
की संगति में लिया है जानबूझकर। इसे छोड़ना ही होगा।'
'दीदी, पति को लेकर जो सपने मैं बुना करती थी उनका राजकुमार ये
तो न था। वो सपने बड़ी बेरहमी के साथ मेरी आँखों में से पोंछ
दिए गए। अब उस नई स्लेट पर कोई-न-कोई रोज़ आकर मिट जाता है।
कोई मूरत बनती ही नहीं।'
मैंने उसे बड़े प्यार से पूछा, 'तुम्हें कोई अच्छा लगता है
प्रीतो।'
'नहीं, पर जी चाहता है मैं
किसी को अच्छी लगूँ। हाथ-पाँव में मेहंदी, माँग में सिंदूर,
लाल जोड़ा और सुरमई आँखें। इनके साथ अगर सुहाग होता है तो मेरा
भी हुआ था। पर सुहाग तो पति के साथ होता है। और वो तो मैंने
देखा नहीं।'
'प्रीतो, मैडम का किंडर गार्डन तू ही तो सँभालती है। अगर तुझे
कोई अच्छा लगे तो क्या सब छोड़ जाएगी?'
'पता नहीं दीदी।'
'पर मैडम क्या ये बात कभी सह पाएगी?'
'यही तो बात है, मैडम का मुझ पर पूरा भरोसा है। इसी से मुझे डर
लगता है कि कहीं कोई अच्छा न लगे। मैडम तो मैडम, बच्चों के
माँ-बाप भी मुझी पर भरोसा करते हैं। मैडम को तो सबके नाम भी
नहीं आते। और फिर अगर एक दिन अपने हाथ से बनाकर न खिलाऊँ तो
मैडम खाती ही नहीं। कभी-कभी मेरा मन नहीं करता तो भी बनाती
हूँ। किसी को भूखा रखना पाप है न दीदी।'
मैंने उसकी तरफ़ देखा। जी चाहा इसे कहूँ, तू भी तो भूखी है
प्रीतो। पर मैडम आकर मेरे दिमाग की इस नस को दबा गई और मैं मौन
हो गई।
दो महीने कब निकल गए पता ही न
चला। बस एक दिन मैडम आई और प्रीतो को लेकर चली गई। जाती बार
प्रीतो ने चोरी से मुझसे कहा था, 'दीदी, मुझे भूल न जाना। मैं
तो न आ पाऊँगी पर आप आना। मुझे बुलाओगी न दीदी।' मैंने उसके
हाथ अपने हाथों में लिए और अपने आँसू किसी तरह उससे छुपाकर उसे
हौसला दिया। फिर गृहस्थी के ताने-बाने को सुलझाती मैं प्रीतो
की उलझनों को भूल-सी गई।
एक दिन भरी दोपहरी में मैं
सोने जा रही थी तो मैडम आ धमकी। पहली ही साँस में उसने पूछा,
'यहाँ प्रीतो आई है?'
मैं जड़वत खड़ी रही, कुछ
उत्तर न सूझा। जवान-जहान लड़की आखिर कहाँ गई। मुझे चुप देखकर
मैडम बोली, 'उसे आग लगी है ये तो मैं जान गई थी। बस गलती एक ही
हुई कि उसे मैं सब्ज़ी लेने अकेली भेजती रही। सब्ज़ी की टोकरी
में छुपाकर बिन्दी ले जाती थी। उस मरघट के पास जाकर लगाती थी।
क्या आग है बिन्दी लगाने की। जब भी कलमुँही आती देर लगाकर आती।
फिर कपड़े इस्तरी करते वक्त, सब्ज़ी काटते वक्त या चपातियाँ
सेंकते वक्त कैसे-कैसे तो शरमाकर मुस्कुराती थी पठ्ठी। मुझे
क्या पता था इसे क्या मौत पड़ी है। नहीं तो उड़ने से पहले ही
पर काटकर फेंक न देती। मुझे तो डर लग रहा था कहीं पागल न हो
जाए। लक्षण सब वही थे। कुछ दिन पहले एक बच्चे की माँ ने न
बताया होता तो मुझे कहाँ पता चलना था। कोई मुआ दर्ज़ी है।
सब्ज़ी वाले की दुकान के पास, उसी के साथ भागी होगी राँड। उसी
के साथ आँख मटक्का चल रहा था। एक बार मिले तो पुलिस में देकर
छुट्टी पाऊँ। इन्स्पेक्टर तिवारी के दोनों बच्चे मेरे ही स्कूल
में है।'
|