मैंने उसकी बातों का परनाला
रोकते हुए कहा, 'मैडम, तुम रूखी-सूखी लकड़ी हो। अगर वो नागरबेल
कहीं सहारा ढूँढ़ती है तो जाने दो उसे। उसे खुशी ढूँढ़ लेने
दो।
बिफरकर मैड़म चिल्लाई, 'ओह, तो ये आग तुम्हारी लगाई हुई है।
मुझे पहले ही समझ लेना चाहिए था कि मेरी ट्रेनिंग में कहाँ
गलती हुई है। न तुम्हारे घर उसे रखती न ये नौबत आती।'
अब मुझे भी ताव आ गया। मैंने भी चिल्लाकर कहा, 'ये आग मैंने
नहीं लगाई पर ये आग मुझे ही लगानी चाहिए थी। तुम मेरी दोस्त
हो। तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त मैं न करूँगी तो कौन
करेगा। तुम क्या जानो पुरुष के प्यार के बगैर ज़िन्दगी कैसी
रेगिस्तान-सी होती है। फेरों की मारी को तुमने अपने अनुशासन के
डण्डे से साधकर रखा है। तुम जल्लाद हो तोषी, तुम इन्सान नहीं
हो। तुमने मुहब्बत की ज़िन्दगी नहीं देखी। कभी देखो तो जानोगी
तुमने अब तक क्या खोया है।' मैडम झल्लाकर बोली -
'मुझे फरेब नहीं खाना है मिसेज आदित्य वर्मा। आप घर में रखकर
देखिए, अगर तुम्हारे पालतू आदित्य को भी न झटका दे दे तो मेरा
नाम भी तोषी नहीं। दिन-रात उसकी इशारेबाजियाँ क्या मेरी नज़रों
से नहीं गुज़रतीं। अगर इस स्कूल की मुसीबत न होती तो कब की भेज
देती उसी गाँव में जहाँ से कसाइयों के हाथ से इसे छुड़ाकर लाई
थी।'
'शादी करवा दो उसकी।' मैंने कहा।
'हाँ, यही तो करना चाहिए था। और फिर तू भी तो करवा सकती है।'
मैंने कहा, 'वो तुम्हारी ज़िम्मेदारी है तोषी, मैं तो खाली
शादी में आ जाऊँगी। चलो चाये पियें। पानी खौल रहा होगा।'
तोषी बोली, 'तुम मेरा कलेजा और जलाना चाहती हो।' मैंने प्यार
से उसका हाथ पकड़ा, 'चलो मैडम, तुम्हें रूह-अफज़ा पिलाती हूँ।'
उसके बाद उसका जी थोड़ा हल्का हुआ तो मैंने कहा, 'मैडम, उसकी
शादी कर दो। लड़की जवान और भावुकता की मारी है। उसके हालात में
एक बार अपने-आपको खड़ा करो और सोचो।'
मैडम बोली, 'मैं कोई अच्छा लड़का देखकर कुछ कर पाती इसके पहले
ही लगता है वो भाग गई है। आज दूसरा दिन है। तोबा-तोबा, अभी तो
शाम की क्लासों के लिए बड़े बच्चे आते होंगे। लो मैं चली।'
मैडम को गए कई दिन हो गए।
उससे प्रीतो के बारे में पूछने का हौसला मैं न जुटा पाई। फिर
सब भूल-भुला गई। एक दिन शाम के वक्त मैंने दरवाज़ा खोला तो
प्रीतो सामने खड़ी थी। पीछे एक लम्बा-तगड़ा खूबसूरत-सा लड़का।
शराब से वीर-बहूटी उसकी आँखें
जैसे मेरे भीतर कुछ कंपा-सा गईं। बिखरे बाल और दम्भ से भरे
चेहरे पर मस्तक उसने मेरी अभ्यर्थना में जरा-सा झुका भर दिया।
प्रीतो ने कहा, 'यही दीदी है।' मैं स्नेह से दोनों को अंदर ले
आई। कमरे में दोनों को बिठाकर थोड़ा-सा मुस्कुरायी भी। चाय का
पानी चढ़ाने जैसे ही रसोईघर में गई, प्रीतो पीछे-पीछे आ गई।
हँसकर बोली, 'कैसा है?'
मैंने कहा, 'अच्छा।'
वो हँसी, फिर बोली, 'शराब तो रात को पीता है। आँखें हमेशा लाल
रहती हैं।' होठों के कई बल सँवारकर वो हँसने लगी। हँसते-हँसते
उसकी भरी आँखों को नज़रअंदाज़ करके मैंने कहा, 'मैडम को मिली?'
प्रीतो ने नीची नज़र करके कहा, 'गई थी। उसने निकाल दिया। और
कहा दोबारा यहाँ मत आना। प्रकाश, यही आदमी बड़ा गुस्सा हुआ।'
थोड़ा ठहरकर बोली, 'दीदी, मुझे पुरानी धोतियाँ देना। ये एक ही
धोती है। मैडम की थी।'
मैंने उसे धोतियों के साथ
शगुन के रुपए भी दिए और प्यार से कहा, 'प्रीतो, मैं हूँ, कभी
उन्नीस-बीस हो तो याद रखना।' प्रीतो मेरे सीने से लगकर रो
पड़ी। मुझे मालूम था वो गलती कर चुकी है। ये आदमी पति जैसा तो
नहीं लग रहा। मैंने उसे भी जाते समय शगुन दिया। पता नहीं क्या
हुआ उसने मेरे पाँव छुए। मुझे लगा बेटियाँ ऐसी ही विदा होती
हैं।
फिर कुछ दिन बाद मैडम का फोन
आया। बगैर भूमिका बाँधे उसने कहा, 'क्या दोस्ती निबाह रही हो
मिसेज आदित्य वर्मा। कल तुम्हारी वही साड़ी पहने प्रीतो मिली
थी जो हमने साथ-साथ कॉलेज के मेले से खरीदी थी। कमाल किया
तुमने, साड़ी दी तो धुँआ तक न निकाला कि वो आई थी। देखना कहीं
साड़ी से कभी आदित्य को भुलावा न हो।' ये कहकर उसने ठक्क से
फोन बंद कर दिया।
आदित्य, मैं चौंकी। ये मैडम कितनी संगदिल है। उसके दूसरे ही
दिन प्रीतो फिर आई, पर अकेली। आते ही मेरे पीछे-पीछे रसोईघर
में आकर बोली, 'मुझे बैंगन की पकौडियाँ बना दोगी?' मैंने उसे
भरपूर नज़र से देखा। वो शरमाई और कहने लगी, 'अभी तो तीन-चार
महीने हैं। आज वो नासिक गया है तभी आ सकी हूँ। मुझे कुछ पैसे
भी दोगी न। वो तो खाली राशन लाकर रख देता है। एक भी पैसा हाथ
में नहीं देता। बाहर से ताला लगाकर दुकान पर जाता है। कभी भूने
चने खाने को मन करता है। पैसे रात को उसकी पैंट से गिर जाते
हैं तो ले लेती हूँ।' फिर अचानक खुश होकर बोली, 'वहाँ एक
खिड़की है जिसमें से कूदकर मैं कभी-कभी निकल जाती हूँ। पर एक
दिन पड़ोसिन ने उसे बता दिया था। उस रात उसने मुझे बहुत मारा।'
मैंने उसकी ओर देखे बिना पूछा, 'कोई शादी का काग़ज़ है
तुम्हारे पास?'
बोली, 'नहीं, शादी तो मंदिर में हुई थी।'
पैसे लेकर प्रीतो चली गई।
तीन-चार बरस उसका कोई पता न चला। एक दिन मैडम ही कहीं से ख़बर
लाई थी कि उसका पति उसे बहुत मारता है। एक दिन देवर ने छुड़ाने
की कोशिश की थी सो उसे भी मारा और प्रीतो को घर से निकाल दिया।
वो तो पड़ोसियों ने बीच-बचाव करके फिर मेल करा दिया। मैं थोड़ी
दु:खी हुई, फिर सोचा बच्चे हैं, बच्चों के सहारे औरतें रावण के
साथ भी रह लेती हैं। कल बड़े हो जाएँगे। उनके साथ प्रीतो भी
बड़ी हो जाएगी।
वक्त बढ़ता रहा। रोज़ सुबह भी
होती, शाम भी। बच्चे स्कूल जाते, घर आते। आदित्य भी और मैं भी
ज़िन्दगी के ऐसे अभिन्न अंग बन चुके थे कि उसी रोज़ के ढर्रे
में ज़रा भी व्यवधान आता तो बुरा लगता। अपनी छोटी-सी दुनिया
में पूरी दुनिया दिखाई देती। न वहाँ कहीं प्रीतो होती न उसका
वह मरघट पति।
इसी तरह एक शाम आई। साथ लाई
कुछ मेहमान। आदित्य बाज़ार से कुछ सामान लाने गए थे। तभी
दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो एक अजनबी औरत अपने
फूल-से दो बच्चों को थामे खड़ी थी। मैंने सोचा किसी का पता
पूछना चाहती है। मैंने उसे सवालिया निगाहों से देखा। वो
मुस्कुराई। होंठ मुरझाए से थे तो भी मुस्कुराहट पहचान लेने में
मुझे ज़्यादा देर न लगी। मैंने कहा, 'प्रीतो' - वो बच्चों की
उँगलियाँ छुड़ाकर यों लिपटी जैसे इस भरी दुनिया में उसे
पहिचानने वाली सिर्फ़ मैं अकेली थी।
मैंने उसे छुड़ाते हुए कहा, 'प्रीतो, घर में मेहमान हैं। आओ,
अंदर चलो।'
उसे बिठाकर मैंने बच्चों को दूध और बिस्कुट दिए। उन्हें खाता
छोड़कर प्रीतो मेरे पीछे-पीछे आ गई। बगैर भूमिका बाँधे उसने
कहा --
'दीदी, वो चला गया है। दुबई। घर भी किसी और को दे गया। सिर्फ़
आज रात मुझे रह लेने दो।'
मैंने कहा, 'प्रीतो, ये मेहमान आज भी आए हैं। तुम्हें कहाँ
सुलाऊँगी। फिर बच्चे भी हैं।'
प्रीतो ने कहा, 'इन्हें लेकर मैं बरामदे में सो जाऊँगी। कल
सवेरे यहीं मैंने किसी को मिलना है। वो मेरा कोई इन्तज़ाम करने
वाले हैं। मैडम मुझे किसी आश्रम में भेजना चाहती है। बस कुछ
दिन की बात है।'
मेरा माथा ठनका। मैंने कहा, 'तुम मैडम के घर क्यों नहीं गईं?'
'वो कभी भी नहीं रखेगी दीदी। और फिर मैं आश्रम नहीं जाना
चाहती।'
'पर क्यों?'
'अगर कभी इनका बाप आया तो?' मैंने कहा, 'अगर उसने आना होता तो
जाता ही क्यों?'
उसने कहा, 'बस कुछ दिन इंतज़ार करूँगी। कुछ दिन की बात है।'
मेरी आँखों के आगे आदित्य का
चेहरा घूम गया। मैडम की कही हुई बात भी याद आई। जो उन्होंने
कहा था वो भी मुझे याद था। एक रात उनकी मर्ज़ी के बगैर भी रख
सकती थी पर प्रीतो को ये पूछने का साहस उसमें न था कि कल कहाँ
जाओगी? ये मैं जानती थी सिवाय मैडम के उसे कोई आश्रम जाने को
राजी न कर सकेगा। यही एक लम्हा था, अगर मैं कमज़ोर पड़ जाती तो
उसके जाने का कल ना जाने कब आता। मैंने अपने अंदर के इन्सान का
गला दबाया और कहा, 'नहीं प्रीतो, यहाँ रहना मुमकिन नहीं हैं।
ये लोग हमारे जेठ की लड़की देखने आए हैं। लड़की कल दिल्ली से
आएगी। ऐसे नाजुक रिश्तों के दौरान मैं घर में कोई अनहोनी नहीं
कर सकूँगी। तुम पैसे लो। अगर कल सवेरे यहाँ किसी को मिलना है
तो टैक्सी में आ जाना। अब तुम जाओ।' मैंने उसके दोनों बच्चों
को ऊँगली से लगाया। दरवाज़े के बाहर जाकर चौकीदार से टैक्सी
मँगवाई और बच्चों के साथ प्रीतो को बैठते देखा। उसकी पसीने से
तर हथेली में कुछ नोट खोंस दिए। टैक्सी को जाने का इंतज़ार किए
बगैर घर आकर दरवाज़ा बन्द कर लिया।
ये दरवाज़ा मैंने प्रीतो के
लिए बंद किया था या अपने लिए ये न जान पाई। रात-भर मुझे
चौराहों के ख्वाब आते रहे। फिर कई दिन मैं दीवारों से पूछती
रही, 'कल कहाँ जाओगी?'
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