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                    सफ़ेद दाढ़ी, चार सिरवाला, गुलाबी वर्ण का पुरुष कार्यालय में 
                    प्रवेश करता है और सिंहासन पर विराजमान हो मन-ही-मन कहता है, 
                    "आज तक मैंने न जाने कितनी सृष्टि की परंतु अभी तक अपना आकार 
                    कहाँ बनाया है मैंने? यह तो अपने उपर ही अन्याय हो रहा है, 
                    मुझे अब इस विषय में सोचना ही चाहिए।" वह उठ खड़ा होता हैं और 
                    वहाँ रखी चीज़ों का मिश्रण कर आकार बनाने के प्रयास में लग 
                    जाता है। अच्छा तो यह ब्रह्मा जी हैं? देखूँ कैसे मूर्ति बनाते हैं, 
                    सोचकर मैं बहुत ध्यान से देखने लगी।
 
                    कितनी ही रातें और दिन की मेहनत 
                    के पश्चात एक मनमोहक आकृति खड़ी होती है, जिसे देख ब्रह्मा जी 
                    अति प्रसन्न होते हैं। मूर्ति ऐसी थी कि अभी बोल पड़ेगी। वे 
                    उसे और आकर्षक बनाने में लगे थे कि नारद जी पहुँचते हैं और 
                    मूर्ति को दिखाते हुए प्रश्न पूछते हैं, "पिताश्री, अपना आकार 
                    तो आपने बनाया, परन्तु सिर एक ही क्यों बनाया?" ब्रह्मा जी ने 
                    भी हँसते हुए कहा, "ये चारों दिशाओं वाले सिर की सोच एक दूसरे 
                    से न मिलने की वजह से मैं कितना परेशान हूँ और इस बेचारे पर भी 
                    वहीं समस्या क्यों लादूँ? यही सोचकर मैंने इसका एक ही सिर 
                    बनाया। फिर बनाने में सबसे कठिन तो यही भाग है। इसलिए पूरा 
                    ध्यान देकर एक ही सिर बनाया है।" मूर्ति को देख ब्रह्मा जी की 
                    बात सुनने के बाद नारद जी इस नए समाचार को सुनाने के लिए 
                    व्याकुल हो तुरंत कैलाश की ओर प्रस्थान करते हैं। नारद के साथ महादेव-पार्वती 
                    दोनों ब्रह्मा जी की कार्यशाला पहुँचते हैं। पार्वती भी मूर्ति 
                    की प्रशंसा करती हैं। दोनों मूर्ति को चलता-फिरता देखना चाहता 
                    हैं और महादेव पार्वती को उस मूर्ति में प्राण डालने की आज्ञा 
                    देते हैं। पार्वती कहती हैं, "पतिदेव! 
                    आपकी आज्ञा का पालन अवश्य होगा परंतु ब्रह्मा जी से कहें कि एक 
                    नारी मूर्ति की भी सृष्टि करें। इस अधूरी सृष्टि को मैं पूर्ण 
                    बनाना चाहती हूँ।" पार्वती का प्रस्ताव सुनकर 
                    ब्रह्मा जी हँसते हुए पहले से तैयार नारी मूर्ति दिखाते हुए 
                    कहते हैं, "हे माता! इसी मूर्ति ने तो मुझे इस दूसरी मूर्ति को 
                    बनाने की प्रेरणा दी हैं। मैं तो माता का भक्त हूँ।" ब्रह्मा जी के वचन सुनकर 
                    पार्वती अति प्रसन्न होती हैं और मूर्तियों में प्राण डाल देती 
                    हैं। प्राण डालते ही मूर्तियाँ इधर-उधर भाग-दौड़ करने लगती हैं 
                    और सामान को तोड़फोड़ कर तहलका मचाने लगती हैं। महादेव जी 
                    उन्हें नियंत्रित करने के लिए ब्रह्मा जी को सरस्वती की आराधना 
                    करने की आज्ञा देते हैं। देवी सरस्वती प्रकट हो, वरदान देती 
                    हैं, जिससे वे मूर्तियाँ अब बोलने भी लगती हैं। सभी उपस्थित देवी-देवताओं के 
                    पास जो दिखता है, वहीं माँगना शुरू कर देते हैं। माँगकर न मिले 
                    तो छीन-झपट कर पहनते और आल्हादित होने लगते हैं। समस्या और 
                    जटिल बन जाती हैं। अत: महादेव जी कहते हैं, "इन्हें अब विवेक 
                    शक्ति की ज़रूरत है जो परिस्थिति और आवश्यकता अनुरूप कर्म करने 
                    के लिए स्वयं में निहित शक्ति का परिचालन करना सिखाता है। ऐसी 
                    शक्ति विष्णु ही दे सकते है।" विष्णु जी प्रवेश करते हैं और 
                    विवेक देते हैं। उसके पश्चात वे जीवात्मा सोचकर ही माँगते हैं। 
                    "भगवान! हमें अपने वंश के विस्तार हेतु स्वर्ग और पाताल से 
                    भिन्न जगह का निर्धारण कर दीजिए। हम आपके द्वारा प्राप्त 
                    शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपनी आवश्यकता अनुरूप सृजना कर 
                    सकें। नहीं तो हमें विवश हो यहीं स्वर्गलोक में ही स्थान लेने 
                    को बाध्य होना पड़ेगा।" माँग सापेक्षिक थी। करीब-करीब 
                    शिव-पार्वती की योजना अनुरूप जैसे ही सूर्य की आराधना से 
                    पृथ्वी का सृजन कर उन दोनों को मनुष्य नाम दिया गया और निर्देश 
                    दिया गया, "ज्ञान और विवेक का प्रयोग करके ही राज करना। आज से 
                    हमारा अंश बनकर पृथ्वी पर रहोगे। हमारी शक्ति मिली है, अत: 
                    हमारा प्रतिनिधित्व करते हुए कर्म करते जाओगे। चेतना और शक्ति 
                    के परिचालन हेतु समय और परिस्थिति देख ज्ञान और विवेक का 
                    प्रयोग करने से विकास अपने आप दिखाई देगा और पृथ्वी भी स्वर्ग 
                    जैसी ही बनेगी तुम्हारी चाह के अनुरूप, परंतु याद रखना जिस दिन 
                    से तुम हमारे निर्देशन एवं आज्ञा का उल्लंघन करना शुरू करोगे 
                    उसी समय से तुम्हारे पतन की शुरुआत होगी। अब तुम लोग पृथ्वीतल 
                    पर जाओ।" दोनों मनुष्य पृथ्वीलोक पर 
                    जाने में आनाकानी करते हुए कहते हैं, "प्रभु! ऐसे आग के गोले 
                    में हम जाएँगे तो आपकी आज्ञा का पालन करने से पहले ही हम नष्ट 
                    हो जाएँगे, फिर।सभी देवताओं को मनुष्य की दूरदर्शिता पर खुशी होती हैं और 
                    परीक्षा में उत्तीर्ण देख कहते हैं, "चिंता मत करो मनुष, यह तो 
                    तुम्हारी परिक्षा थी, जिसमें तुम सफल हुए और हम भी विश्वस्त 
                    हुए कि तुम हमारे द्वारा प्राप्त वरदान का उपयोग कर सकोगे। इसी 
                    तरह सत्य बोलने में डरना मत और सत्य से सामना करने में कभी 
                    पीछे मत हटना।"
 यह कहते हुए पर्दा हटा देते 
                    हैं और कहते हैं, "देखो! पृथ्वी को वनस्पति ने कितना रमणीय और 
                    शीतल बना दिया है। यह वनस्पति ही है, जिसके साथ तुम्हारी आयु 
                    जुड़ी हुई है। इसे नष्ट किया तो तुम्हें पहले की तरह आग के 
                    गोलेवाली पृथ्वी मिलेगी और तुम्हारी संपूर्ण सृष्टि नष्ट हो 
                    जाएगी। इसलिए जितना अपने ज्ञान, शक्ति और विवेक लगाकर काम 
                    करोगे, फल की प्राप्ति उतनी ही होगी।" |