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                     इस बेधक 
                    अपमान से सुमन जी का गिरेबाँ जैसे चाक हो गया। खुद को सहेजने 
                    की बहुत कोशिश की उन्होंने पर माहौल का दंश और नशे की 
                    आक्रामकता उन्हें उग्र बिंदुओं तक खींच ही ले गई। तन्नाकर 
                    बोले, 'सांप्रदायिकता को हवा दे रहे हैं आप! यह मनुष्य-विरोधी 
                    हरकत है।' 'अच्छा?' संपादक की आँखें विस्मय से फट-सी गयीं, 'और यह जो 
                    हिंदुस्तान में रहते हैं, हिंदुस्तान का खाते हैं लेकिन जय 
                    पाकिस्तान की बोलते हैं, यह कौन-सी हरकत है।?'  संपादक बेहद 
                    संयत स्वर में पूछ रहा था। 'इतना ही पाकिस्तान से प्रेम है तो 
                    रहें जाकर पाकिस्तान में ही।'
 'लेकिन...' सुमन जी ने प्रतिवाद करना चाहा मगर बीच में ही उनकी 
                    बात काटकर वहाँ बैठे एक पत्रकार ने कहा, 'बिल्कुल ठीक कहा सर 
                    जी ने। हम खुद को हिंदू कहें तो सांप्रदायिक। वे खुद को 
                    मुसलमान कहें, तो धर्मनिरपेक्ष। गजब थ्योरी है प्रगतिशीलता की। 
                    अजी साहब, आप देखते रहिए, जिस तेज़ी से इनकी जनसंख्या बढ़ रही 
                    है उसे देखते हुए हिंदू ही एक दिन अल्पसंख्यक कहलाएँगे।'
 'एक दिन क्यों?' संपादक ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, 
                    'अंतर्राष्ट्रीय नकाशे पर नज़र डालो, पता चल जाएगा कि दुनिया 
                    में हिंदू ज़्यादा हैं या मुसलमान।'
 'लेकिन हम जागरूक लोग हैं।' सुमन जी ने अपना पक्ष रखा।
 'जागरूक हैं तो आत्महत्या कर लें?' संपादक ने पूछा तो वहाँ 
                    मौजूद पत्रकार ठहाका लगाकर हँस पड़े। ठहाकों ने सुमन जी को 
                    हत्थे से उखाड़ दिया। चीखकर बोले, 'आप पागल हो गए हैं। ज़हर 
                    उगलने वाले संपादकीय लिखते हैं आप। आप पत्रकार हैं। आप पर भारी 
                    दायित्व है। एक बड़े अख़बार के संपादक हैं आप। आपको यह अधिकार 
                    नहीं है कि धार्मिक जुनून को हथियारबंद करें।'
 'इट्स लिमिट।' संपादक का संयम जवाब दे गया। घंटी बजाते हुए 
                    उसने कड़वाहट से पूछा, 'आप खुद बाहर जाएँगे या...?'सुमन जी चुपचाप बाहर निकल गए। उन्हें लग रहा था कि रक्तरंजित 
                    खंजर थामे दंगाइयों की भीड़ में वह एकदम निहत्थे और अकेले छोड़ 
                    दिए गए हैं।
 चार दिन बाद सुमन जी मैनेजमेंट की चिट्टी पढ़ रहे थे। शराब 
                    पीकर संपादक से अभद्र व्यवहार करने के दंडस्वरूप उन्हें 
                    निलंबित कर दिया गया था।
 
                    दृश्य : चार
                     'विमल जी, 
                    कोई नई कविता लिखी आपने?' श्याम जी ने तीसरे पैग का अंतिम सिप 
                    लेकर सिगरेट जलाते हुए पूछा। श्याम जी बहुत दिनों बाद सोवियत 
                    रूस से लौटे थे और यह सवाल पूछने से पहले बता रहे थे कि रूसी 
                    समाज अपने लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का कितना सम्मान करता 
                    है। श्याम जी प्राध्यापक थे। समाजवादी चिंतक थे और कविताएँ लिखते 
                    थे। वह राजधानी में एक पॉश इलाके में तीन बेडरूम के फ्लैट में 
                    सुखपूर्वक रहते थे और देश में हो रहे अनाचार, भ्रष्टाचार और 
                    जुल्म की कहानियाँ पढ़-सुनकर व्यथित रहते थे। हाल ही में 
                    उन्हें सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड मिला था जिसे सेलिब्रेट करने 
                    वह प्रेस क्लब में अपने मित्रों के साथ आए थे।  श्याम जी के प्रश्न से विमल जी को मर्मांतक चोट लगी। वह तो 
                    जैसे यह भुला ही बैठे थे कि वह कवि हैं। जिस पत्रिका में वह 
                    काम करते थे वह राजनीतिक पत्रिका थी और उसमें वह विदेशी मामलों 
                    के प्रभारी थे। चीन, जापान, नेपाल, पाकिस्तान, ब्रिटेन, 
                    अमेरिका और क्यूबा की राजनीति उन्हें इतनी मोहलत ही कहाँ देती 
                    थी कि वह कविता का ख़याल रख पाते। श्याम जी का सवाल सुन चुप्पी 
                    साध गए और उस दिन को अपराध की तरह याद करने लगे जब वह 
                    अच्छी-खासी बैंक की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता में आए थे।'यह कविता लिखने का समय है?' जवाब दिया प्रवीण जी ने। 'आप 
                    प्रोफेसर हैं इसलिए यह बात समझ ही नहीं सकते कि यह 
                    कविता-विरोधी, शब्दविरोधी समय है।'
 'हम अख़बारों में नहीं, आत्महत्या केंद्रों में नौकरी कर रहे 
                    हैं।' एक फीकी और दर्दभरी मुस्कान के साथ बोले पुष्कर जी, 
                    'हमारा सब पढ़ा-लिखा अब अप्रासंगिक हो चुका है। अपने-अपने 
                    अख़बारों में हम हाशिये पर फेंक दिए गए लोग हैं।'
 'अखबारों में ही क्यों? जीवन में भी कहाँ हैं हम?' सुमन जी ने 
                    पूछा और रम का सिप लेकर खुद ही जवाब भी दिया, 'जिस देश में 
                    प्रतिभा को देशनिकाला मिल जाए वहाँ सिर्फ़ जीते रहने के सिवा 
                    कर भी क्या सकते हैं हम? एक डरे और भौंचक आदमी से कविता लिखने 
                    की उम्मीद कैसे की जा सकती है भला? जो हालात हैं उनमें जीते 
                    रहकर कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है श्याम जी, कि जो जीवन हमने 
                    जिया वह एकदम ही फिजूल और अतार्किक था।'
 श्याम जी को वातावरण की गंभीरता और गमगीनी का अहसास हो रहा था। 
                    एक भारी-सी 'हूँ' की उन्होंने और शून्य में ताकने लगे।
 'असल में, सफलता के दरवाज़े नहीं खोज पाए हम।' पुष्कर जी के 
                    स्वर में तिक्तता थी। 'हम कभी नहीं जान पाए कि हमारा ज्ञान ही 
                    हमारा शत्रु है।'
 'लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है।' सहसा विमल जी ने चुप्पी 
                    तोड़ी। 'मुझे भरोसा है कि एक दिन इसी देश के लोग उठेंगे और सब 
                    कुछ बदल देंगे।'
 'एक दिन!' एक जोरदार ठहाका लगाया सुमन जी ने और उठ खड़े हुए। 
                    लड़खड़ाते स्वर में बोले, 'एक दिन। हम होंगे कामयाब एक दिन। 
                    क्रांतिकारी भी यही गाना गाते हैं और सरकार ने भी इसे अपना 
                    लिया है। एक दिन...' सुमन जी बोले और सबको भौंचक छोड़ प्रेस 
                    क्लब से बाहर निकल गए।
 'क्या बात है, सुमन जी कुछ ज़्यादा ही डिप्रेस हैं?' श्याम जी 
                    ने शराब का एक बड़ा घूँट लिया।
 'यह डिप्रेशन का ही समय है डियर।' विमल जी बोले, 'आओ, अब घर 
                    चलें कि अब वही एक जगह बाकी है जहाँ कुछ-कुछ सुरक्षित हैं हम।'
 श्याम जी ने 
                    बिल अदा किया और सभी लोग उठ खड़े हुए। उनके खड़े होते ही कोने 
                    की एक मेज से तीन-चार कर्कश ठहाके उछले। इस मेज़ पर सवर्ण 
                    पत्रकारों की टोली बैठी थी।  
                    दृश्य : पाँच
                     पिछड़ी जाति 
                    के तकरीबन सभी पत्रकार प्रेस क्लब में इकट्ठे थे। उनके इस भारी 
                    जमावड़े से सवर्ण जाति के पत्रकार खासी उलझन और परेशानी में 
                    पड़ गए थे क्योंकि प्रेस क्लब में करीब तीन-चौथाई जगह पर 
                    पिछड़ी जाति काबिज़ थी। कोने की मेज़ पर बैठा एक सवर्ण जाति का 
                    पत्रकार इस दखलंदाज़ी से ख़ासा क्षुब्ध था। डनहिल के पैकेट से 
                    सिगरेट निकाल उसने सामने बैठी अपनी महिला पत्रकार मित्र से 
                    कहा, 'इन चिरकुटों की एंट्री पर बैन लगना चाहिए यहाँ। मूड ऑफ़ 
                    कर देते हैं।''लीव इट यार।' महिला पत्रकार ने जिन का सिप लिया और उपेक्षा से 
                    बोली, 'ये अपनी मौत मरेंगे।'
 पिछड़ी जाति 
                    के पत्रकार अपनी सामूहिक खुशी का जश्न मनाने यहाँ आए थे। 
                    दिन-भर वे फोन द्वारा एक-दूसरे को बधाई देते-लेते रहे थे। 
                    उपेक्षा और अपमान से स्याह पड़े उनके चहेरे एक ताज़े उल्लास से 
                    चमक रहे थे। उनका खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया था और उनकी 
                    आत्माओं पर छाया अंधकार छंट गया था। इनमें से कोई दस वर्श से 
                    पत्रकारिता में था, कोई चौदह वर्ष से और कोई-कोई तो बीस वर्ष 
                    की पत्रकारिता कर युगपुरुष होने की एक तरफ़ बढ़ रहा था। यहाँ 
                    मौजूद आधे से अधिक लोग कोई न कोई पुरस्कार पा चुके थे। बहुतों 
                    की रचनाओं के अनुवाद जापानी, रूसी, अंग्रेज़ी और चीनी भाषा तक 
                    में हो चुके थे। तीन-चार लोगों की कहानियों पर फिल्में बन चुकी 
                    थीं और दो-एक लोगों की रचनाएँ विदेशों के पाठ्यक्रम में शरीक़ 
                    थीं। इतने भारी स्वीकार के बावजूद अपने घर में वह मुर्गी होकर 
                    भी दाल बने हुए थे और पिछड़ी जाति में खड़े होने के अभिशाप को 
                    जी रहे थे। उनके साथ ही नहीं उनके बहुत बाद में आए कई पत्रकार 
                    इस बीच नए अख़बारों में बड़े-बड़े पदों पर चले गए थे। स्कूटरों 
                    को छोड़कर मारुतियों में शिफ्ट हो गए थे और नेताओं की जेबों से 
                    निकलकर मुख्यमंत्रियों के घरों में पहुँच गए थे। इतने वर्षों 
                    में, लेकिन पिछड़ी जाति के पत्रकारों के पास कोई अच्छा ऑफर आना 
                    तो दूर, उसकी अफवाह भी नहीं आई थी। सत्ता, समय और समाज के सबसे 
                    अंतिम पायदान पर खड़े थे वे और अपने स्वजनों को मरता हुआ देख 
                    रहे थे लगातार। लेकिन आज उनकी वापसी का दिन था। आज के दिन को 
                    अपनी पुनर्प्रतिष्ठा की तरह याद रखना था उन्हें, अपनी इसी 
                    वापसी का जश्न मनाने वह सवर्ण पत्रकारों के इस क्लब में 
                    उपस्थित हुए थे। आज देश के सबसे बड़े उद्योगपति ने अख़बार 
                    निकालने का ऐलान किया था। इस उद्योगपति का दावा था कि वह देश 
                    के बाकी अखबारों को तबाह कर देगा। देश के सभी प्रमुख अख़बार 
                    और प्रसारण केंद्र इस घोषणा के विज्ञापन से अटे पड़े थे और 
                    पत्रकारों के लिए नए अख़बार का आगमन खुशी का कारण नहीं था। 
                    उनकी खुशी की वजह यह थी कि इस अख़बार के प्रधान संपादक के पद 
                    पर उन्हीं की जाति के एक साथी को नियुक्त किया गया था। आज के 
                    समय में पिछड़ी जाति के एक पत्रकार का इतने बड़े पैमाने पर 
                    निकलने जा रहे अख़बार में संपादक बनना पूरी अख़बार-बिरादरी के 
                    लिए एक रहस्यमयी घटना थी। विद्वान लोगों ने तत्काल यह बयान 
                    जारी किया कि यह 'प्रतिभा की वापसी' का वर्ष है। इसी महान खुशी 
                    को सेलिब्रेट करने पिछड़ी जाति के पत्रकार प्रेस क्लब में 
                    एकत्र हुए थे। दिन में वे सब भावी संपादक से मिल चुके थे और 
                    बधाई दे चुके थे।  भावी संपादक 
                    यह देखकर भाव-विह्वल हो गया था कि उसकी बिरादरी के इतने सारे 
                    पत्रकार उसके हाथ मज़बूत करने के लिए प्रस्तुत हैं। उसने घोषणा 
                    की थी कि प्रतिबद्ध पत्रकारिता का युग फिर शुरू होगा। उसने 
                    अपनी जाति के पत्रकारों से एकदम साफ़ कहा था कि प्रोफेशनलिज़्म 
                    के नाम पर सनसनीखेज समाचार छापने-लिखने वाले अपढ़ सवर्णों को 
                    उनकी औकात बता दी जाएगी। उसने आ वासन दिया था कि इस अख़बार के 
                    माध्यम से हम सब अपना होना एक बार फिर सिद्ध करेंगे और सृजनशील 
                    पत्रकारिता का गौरव फिर से प्रतिस्थापित करेंगे। उसने कहा था 
                    कि विद्वान और अनुभवी लोगों की टीम ही इस पतनशील समय का 
                    मुकाबला कर पाएगी। उसने यह भी कहा था कि अब वे सब निश्चिंत 
                    रहें क्योंकि उनके सहयोग के बिना तो वह चार कदम भी नहीं चल 
                    पाएगा। संपादक के 
                    प्रतिबद्ध और संवेदनशील वचनों को सुनकर पिछड़ी जाति के पत्रकार 
                    भावुक हो गए थे और एक बार फिर सृजनशीलता के प्रति अपनी 
                    प्रतिबद्धता को महसूस कर वे खुद पर गौरवान्वित हुए थे। प्रेस 
                    क्लब में शराब पीते हुए वे इस बात की अटकलें लगा रहे थे कि 
                    किसे क्या पद मिलेगा।शराब का छठा राउंड समाप्त हुआ, तो पुष्कर जी लड़खड़ाते हुए उठे 
                    और जोर से चीखे, 'दिल्ली...'
 'हम तुझसे बदला लेंगे।' उनके बाकी साथियों ने नारा लगाया।
 इस नारे से प्रेस क्लब की दीवारें थर्रा गईं।
 
                    दृश्य : छह प्रेस क्लब 
                    की इस पार्टी के ठीक एक महीने बाद उस देश की राजधानी से एक 
                    विचित्र अख़बार प्रकाशित हुआ। विचित्र इस मायने में कि यह एक 
                    पूरा अख़बार था - कई दैनिकों, पाक्षिकों, साप्ताहिकों और 
                    मासिकों को अपने में उदरस्थ किए हुए।बत्तीस पेज के इस दैनिक अख़बार में स्कूप भी थे, स्कैंडल भी। 
                    धर्म भी था, विज्ञान भी। फैशन भी था, पर्यटन भी। शिकार-कथाएँ 
                    भी थीं, प्रेत-कथाएँ भी। ज्योतिष भी था, कंप्यूटर भी। फैशन भी 
                    था, ग्लैमर भी। फिल्में भी थीं, दूरदर्शन भी। रसोई भी थी, 
                    बेडरूम भी। इसमें रेखा भी थी और श्रीदेवी भी। इसमें क्रिकेट भी 
                    था और शतरंज भी। इसमें सच्ची अपराध-कथाएँ भी थीं और बलात्कार 
                    करने के तरीके भी। इसमें कानून था और उससे बचने के उपाय भी। 
                    इसमें माफिया सरदारों के इंटरव्यू थे और फकीर से तस्कर बने 
                    लोगों की शौर्यगाथा भी। इसमें शेयर बाज़ार भी था और नौकरी पाने 
                    के तरीके भी। इसमें संगीत था, कला थी, संस्कृति थी, साहित्य था 
                    और सेक्स भी। इसमें आचार्य रजनीश के प्रवचन भी थे और देश के 
                    दंगे भी। इसमें प्रधानमंत्री निवास भी था और विपक्षी गलियारा 
                    भी। यहाँ बाबरी मस्जिद भी थी और राम जन्मभूमि भी। इसमें देसी 
                    राजनीति भी थी और विदेशी मामले भी। इसमें लोग और फोक गायक भी 
                    थे और पाश्चात्य गीतकार भी। इसमें ब्रा और पेंटी के उत्तेजक 
                    विज्ञापनों से लेकर हेयर रिमूवर और सेक्स क्लीनिकों तक के 
                    इश्तहार थे। इसके सोलह पेज रंगीन थे और सोलह काले। इसकी कीमत 
                    इतनी कम थी कि पूरा देश अख़बार पर टूटकर गिरा। पहले ही दिन से 
                    अख़बार बाजार में छा गया।
 सवर्ण जाति 
                    के सभी जाने-माने पत्रकार इसकी संपादकीय टीम में शामिल थे। 
                    संपादक के सिवा और कोई ऐसा शख़्स इसमें खोजे भी नहीं मिला, जो 
                    पिछड़ी जाति से लेश मात्र भी ताल्लुक रखता हो। 
                    अंतिम दृश्य
                     प्रेस क्लब 
                    फिर गुलज़ार था। तीन-चौथाई से अधिक मेज़ें फिर से डनहिल और 
                    ट्रिपल फाइव के धुएँ की जद में थीं और व्हिस्की तथा जिन पानी 
                    की तरह बह रही थी। सब खुश थे, किसी का मूड ऑफ नहीं था। (------) |