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                    मनुष्य की जिज्ञासा बढ़ती है और 
                    प्रश्न पूछता है, "जब हमें अपने में ही पूर्णता मिलेगी, 
                    आवश्यकता का ज्ञान कैसे होगा और हम कैसे उद्यमी बनने की कोशिश 
                    करेंगे?"ब्रह्मा जी इस पर दिल खोलकर हँसते हैं, "मनुष्य! ज्ञान भरने के 
                    लिए जैसे सिर को रख दिया है, शरीर के मध्य भाग में पेट रख दिया 
                    है, जहाँ भूख जागृत होगी।"
 यही खोज ही उसे उद्यमी बनने 
                    को प्रेरित करती है। पेट जो आहार प्राप्त करता है, उससे शरीर 
                    का अंग संचालित होते हैं और चेतना जागृत होती रहती है। ज़रूरत 
                    और इसको पूरा करने की खोज से ही पृथ्वी को दूसरा स्वर्ग बना 
                    सकते हो। परंतु मिलकर सहयोगी बनकर रहना। पृथ्वी जितनी सुंदर है 
                    उसमें और सुंदरता भरने का प्रयास करना। इस तरह उन दोनों को पृथ्वीलोक 
                    में भेजा जाता है। उसके बाद दृश्य प्रदर्शन में मध्यांतर होता 
                    है। मीठी धुन के साथ-साथ सुंदर प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते 
                    हैं। मनुष्य की व्यस्तता, नई सभ्यता की शुरुआत, सुख-शांति, 
                    मेलजोल बढ़ता जा रहा दिखाई गया। देखते-देखते आँख में खुशी और 
                    आनंद छलकने लगा। अचानक दृश्य पट बदलता है। 
                    सुंदरता क्षणभर में भयंकर डरावनी स्थिति में परिवर्तित दिखाई 
                    देती हैं, कोलाहल भरा वातावरण दिखाई देता है। इतने में 
                    आवाज़ें।"लक्ष्मी जी! आपने मनुष्यों में धन का मोह बढ़ा दिया। इसलिए आज 
                    पृथ्वी की यह अवस्था हुई है। अत: इसकी ज़िम्मेदार आप हैं। 
                    समाधान भी आपको ही करना होगा।"
 लक्ष्मीजी का उत्तर आता है, "मैंने तो परिश्रमी के परिश्रम की 
                    कदर मात्र की है। मुझे ऐसा करना भी चाहिए। मगर आपने ज्ञान 
                    विवेक देते वक्त कंजूसी की, उसी का परिणाम यह है। आप इस 
                    ज़िम्मेदारी से कैसे भाग सकते हैं?"
 इसके बाद सभी ब्रह्मा जी से 
                    कहते हैं, "आपने शरीर का मध्य भाग बड़ा बना दिया, जिसके कारण 
                    ही भूख की ज्वाला अधिक शक्तिशाली हुई और जिसे नियंत्रित करने 
                    के लिए एक ही सिर रख दिया, उसी की शक्ति कम पड़ जाने से यह 
                    हुआ।" ब्रह्मा जी गरजते हैं, "हाँ, 
                    मैंने अपनी खुशी से मूर्ति बनाई ज़रूर थी परंतु उसमें शक्ति 
                    प्रदान कर जीवात्मा तो मैंने नहीं बनाया। मुझे दोषी बनाना 
                    कितना उपयुक्त हैं, मैं यह प्रश्न इस सभा में सभापति विष्णु और 
                    मुख्य अतिथि महादेव जी से पूछना चाहता हूँ। मनुष्य की सृष्टि 
                    पर पछताना तो हम सबको है। मुझे अकेले नहीं।" उधर टेलिविजन में एक बालक 
                    दिखता है। वह चोरी-छिपे अपने माता-पिता से आँखें बचाकर अपने 
                    पिता की गोपनीय प्रयोगशाला में घुसता है। वहाँ गुजारे, बोतलें, 
                    काँच के टुकड़े, लोहे के साथ-साथ ढ़ेर सारी गेंद भी रखी हुई 
                    देखता है। वह सब चीज़ों को हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखता है। 
                    उसे बहुत आनंद आता है और खेलने को मन करता है। वह बालक अपने दोनों हाथों में 
                    एक ही साथ दो गेंद लेता है और ज़मीन में पटकता है। तुरंत धड़ाम 
                    की आवाज़ के साथ आग और धुएँ की लपटें उठ कर छत के उपर उड़ने 
                    लगती है।
 मैं उस दृष्य की कल्पना करती हूँ, उस नन्हें बालक के कोमल अंग 
                    जो चिथड़े-चिथड़े बन धुएं में उड़ रहे होंगे। मैं सह न सकी और 
                    चिल्लाई "यह अंत सभा का है या मानवता का?"
 
 इसी मानसिक धक्के से मैं नींद से जाग गयी। मेरी आंख उन अखबारों 
                    के पन्ने पर पड़ी जो मेरे चारों ओर बिखरे पड़े थे। उसमें लिखा 
                    था, "शांति स्थापना के लिए सभी राष्ट्रों का एक मत।"
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