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रचना प्रसंग

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उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल
प्राण शर्मा

सहायक क्रिया का प्रयोग
न्नीस सौ सत्तावन या अठ्ठावन की बात है कि हिंदी के प्रसिद्ध गीतकार और ग़ज़लकार स्वर्गीय शंभुनाथ 'शेष' से मिलने का सौभाग्य मुझको उनके जलंधर के मॉडल टाउन के निवास स्थान पर प्राप्त हुआ था। 'सुवेला' नामक चर्चित कविता संग्रह के रचयिता थे वह। सहजता उनका बड़ा गुण था। सामनेवाले की बात का मान करते थे वह।

ग़ज़ल की बात चली तो मैंने अनुरोध भरे स्वर में उनसे पूछा‚ 'शेष' जी‚ ये जो उर्दू के शायर 'नहीं' के साथ 'है' या 'था' के इस्तमाल की ज़रूरत नहीं समझते हैं और हिंदी के कवियों पर भी दोष लगाया जाता है कि सहायक क्रिया को अपनी काव्य–पंक्तियों में खा जाते है‚ आपकी राय में क्या यह ठीक है? अपने स्वभाव के अनुरूप वह बड़ी नम्रता से बोले – 'यूं तो उर्दू और हिंदी में लिपि को छोड़ कर कोई विशेष अंतर नहीं है फिर भी हर ज़बान में कोई न कोई अपनी खूबी या कमी होती है। 'नहीं' के साथ 'है' या 'था' के इस्तेमाल की ज़रूरत अब तो हिंदी के कवि भी नहीं समझते हैं। वे भी वैसा ही लिखने लगे हैं। जहां तक काव्य–पंक्तियों में सहायक क्रिया 'है' या 'था' को खा जाने की बात है‚ मेरे विचार में 'अगर आप चलते तो हर कोई चलता' जैसे वाक्य के आधार पर ऐसा हुआ है। यह कोई बड़ी भूल नहीं है।'
'सुना है कि आपके प्रिय कवि निराला जी हैं। आपको उनकी कोई ग़ज़ल याद हो तो कृपया सुनाएं।'
'ज़बानी तो याद नहीं, हां, कॉपी से पढ़कर सुना सकता हूं। महाकवि निराला भी ग़ज़ल की राह पर चले थे। पर कुछ एक ग़ज़लें लिखकर उन्होंने इस विधा से किनारा कर लिया। उनकी एक ग़ज़ल है–

साहस कभी न छोड़ा आगे कदम बढाए
पट्टी पढ़ी कब उनकी झांसे में हम कब आए
पानी पड़ा समय पर पल्लव नवीन लहरे
मौसम में पेड़ जितने फूले नहीं समाए
कलरव भरे खगों के आवास नीड़ सोहे
मन साधिकार मोहे कितने वितान छाए
जिनसे फला हुआ है वो बाग कौम का हम
हमसे मिले हुए वे आए‚ बसे‚ बसाए
जो झुर्रियां पड़ी थी गालों पे आफ़तों की
उनको मिटा दिया है‚ हमने अधर हंसाए

'शेष' जी से बिदा लेने के बाद उनकी ग़ज़ल की मोहक प्रस्तुति मन–मस्तिष्क में देर तक अंकित रही।
उन्हीं दिनों में पंडित मेलाराम 'वफ़ा' से मिलना मेरे भाग्य में लिखा था। उर्दू शायरी में उनके और जोश मलिसिआनी के नामों की तूती बोलती थी। सैकड़ों शायर उन दोनों के शागिर्द थे। 'वफ़ा' जी से मिलने की मेरी आकांक्षा कई वर्षों से थी। इसलिए पहली बार जब मैं उनसे मिला तब भावावेश में मैंने उनके दो अशआर–

बड़ा बेदादगर वो माहजबीं है
मगर इतना नहीं जितना हंसी है

लिफ़ाफ़े में पुरज़े मेरे ख़त के हैं
मेरे ख़त का आखिर जवाब आ गया  
सुना डाले। अशआर सुन कर उनकी मंद–मंद मुस्कान की खुशबू कमरे के कोने–कोने में फैल गई उनकी आत्मीयता को देखकर मैंने उनसे भी वही प्रश्न किया जो कुछ दिन पहले 'शेष' जी से किया था। हैरत हुई जब उन्होंने भी वही उत्तर दिया था। उनसे मैं कई बार मिला‚ कुछ न कुछ सीखा ही मैंने। उस्ताद शायर थे वह। शायरी में वह जीते थे गोया शायरी ही उनकी जिंदगी थी। वह ग़ज़ल में क्रिया के सही रूप और प्रयोग पर भी ज़ोर दिया करते थे। उनकी धारणा थी कि उसके ग़लत रूप और प्रयोग से काव्य का प्रभाव क्षीण हो जाता है।

क्रिया के प्रयोग में काल का ध्यान
ग़ज़ल में क्रिया के प्रयोग की सबसे बड़ी भूल है उसको शेर के दोनों मिसरों में एक काल में न लिखना। क्रिया के प्रति ग़ज़लकार की उदासीनता सराहनीय नहीं है। एक मिसरा वर्तमानकालिक क्रिया में और दूसरा मिसरा भूतकालिक या भविष्य कालिक क्रिया में लिखना ग़लत है। शेर में दो भिन्न कालों की क्रियाओं का प्रयोग करना ग़ज़लकार की अज्ञानता और अपरिपक्वता का द्योतक है। मसलन‚ उर्दू के एक अज्ञात शायर का शेर है–

न जाने लगी आग वो थी कहां से
धुआं उठ रहा है मेरे आशियां से

शायद शायर कहना चाहता था–
न जाने लगी आग है ये कहां से
धुआं उठ रहा है मेरे आशियां से

हिंदी के शेरों में भी दो भिन्न कालों की क्रियाओं के (ग़लत)प्रयोग हैं। हस्ती–मल–हस्ती का शेर है –

जब कली‚ शाख‚ पत्ते सभी हंसते हों
वो मौसम लगा बस सुहाना मुझे

उपयुक्त शेर के दोनों मिसरे अलग–अलग काल का बोध कराते हैं। शेर का विषय दो भिन्न–भिन्न काल क्रियाओं में उलझकर रह गया है। वह एक क्रिया में लिखा जाता तो पढ़ने में अच्छा लगता। मसलन–

जब कली‚ शाख‚ पत्ते सभी हंसते हैं
वो ही मौसम है लगता सुहाना मुझे

ज़हीर कुरैशी का शेर भी इसी दोष का शिकार है–

हम आत्मा से मिलने को आतुर रहें मगर
बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के

क्रिया में एक काल के रूप का अभाव है। शेर यूं होता तो प्रभावी था–

हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे बड़े
बाधा बने मगर सभी रिश्ते शरीर के

भवानी शंकर का शेर है–

हाड़ सूखे‚ खेत बंजर और ये जलता मकान
देखना है‚ चुप रहेगा और कब तक आसमान

चूंकि शेर की दूसरी पंक्ति का मुख्यांश 'चुप रहेगा' और 'कब तक आसमान' भविष्यतकाल को दर्शाता है इसलिए 'देखना है' का प्रयोग अखरता है। 'देखेगें' का प्रयोग सही होता। लगभग आठ दशक पहले लिखा गया उस्ताद शायर पं.रामप्रसाद 'बिस्मिल' के शेर में 'देखना है' का प्रयोग कितना सटीक है–

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है

बालस्वरूप 'राही' के दोनों शेरों में भी क्रिया की भिन्नता देखी जा सकती है–

मिल गया भीख में भूखे को निवाला लेकिन
उसपे चीलों की शुरू से ही नज़र है यारों

तब से हर शख्स की कोशिश है उसे दूर रखें
जब से यह बात चली उसमें हुनर है यारों

क्रियाओं में एकरूपता न होने से शेर शिथिल है। पहले शेर के मिसरे में 'है' के स्थान पर 'थी' और दूसरे शेर के दूसरे मिसरे में 'चली' शब्द के साथ 'थी' की अपेक्षा थी। 

वचन संबंधी दोष
ग़ज़ल में वचन संबंधी दोष भी अखरता है। व्यक्ति या वस्तु की एक या एक से अधिक संख्या का बोध करानेवाले शब्द को क्रमशः एकवचन और बहुवचन कहा जाता है। एकवचन को बहुवचन और बहुवचन को एकवचन लिखना अनुपयुक्त है। वचन की उपयुक्तता 'राम का मुख' तथा 'राम और श्याम के मुख' लिखने में ही है। चूंकि निम्नलिखित अशआर में 'परिंदा' 'सायबा' और 'घर' बहुवचन में प्रयुक्त हुए है इसलिए 'पर'‚ 'दीवार' और 'छत' भी बहुवचन में प्रयुक्त होते तो उपयुक्त था। देखिए –

ये बात मुझको बताई थी एक चिड़िया ने
कुछ आसमान परिंदों के पर में रहते हैं– ज्ञानप्रकाश 'विवेक'

अगर दीवार हट जाए तो ऐसे सायबां होंगे
बिना छत के घरों में खूबसूरत आसमां होंगे– महेश अनघ

कई बार ऐसा होता है कि कोई ग़ज़लकार भूल से न बदलने वाले एकवचन को बहुवचन बना देता है। 'पानी' का बहुवचन 'पानी' ही है लेकिन उर्दू के मशहूर शायर कतील शफ़ाई ने अपने एक शेर में उसको बहुवचन बना दिया। देखिए–

'जब भी दरिया बारिशों के पानियों से भर गए
तैरने हम भी बदन से बांधकर पत्थर गए।

अब 'पानी' का बहुवचन 'पानियों' चलने लगा है। हिंदी और उर्दू के कई शेरों में यह रूप देखा जा सकता है।

एक कवि का तो तर्क था कि जब सूर्य की 'रश्मि' या 'किरण' का बहुवचन 'रश्मियों' या 'किरणे' होता है तो चांद की 'चांदनी' का बहुवचन 'चांदनियों' क्यों नहीं हो सकता है?

लिंग संबंधी दोष
हर कवि या शायर के लिए अन्य भाषा के शब्द को अपनी रचना में इस्तेमाल करने से पहले उसकी प्रकृति और उसके लिंग को भली–भांति समझना आवश्यक है। हिंदी भाषा में तत्सम‚ तदभव और विदेशी शब्द प्रचुरता में मिलते हैं। कुछेक शब्दों के लिंग अब तक निश्चित नहीं है। 'पवन' शब्द को ही लीजिए। यह पुल्लिंग में लिखा जाता है और स्त्रीलिंग में भी। उर्दू लफ़्ज 'कलम' हिंदी में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों में ही प्रयुक्त होता है। संस्कृत में आत्मा शब्द पुल्लिंग है लेकिन हिंदी में स्त्रीलिंग। 'दही' हिंदी में 'खट्टी' और 'खट्टा' दोनों ही है। अन्य भाषा के किसी शब्द के साथ लगी 'इ' या 'ई' की मात्रा देखकर उसको स्त्रीलिंग का शब्द नहीं मान लेना चाहिए। उर्दू का लफ्ज है 'जिहाद'। इसका शाब्दिक अर्थ है– धर्मयुद्ध। यह पुल्लिंग है उर्दू में और हिंदी में भी। इस शब्द के लिंग से अनभिज्ञ लगते हैं पारसनाथ बुल्ली। इसको स्त्रीलिंग में प्रयोग करके वह किसी विचार को लेकर कोई बहस छेड़ते हुए ऩजर आते हैं। देखिए–

किसी विचार को लेकर जिहाद छिड़ती है
तभी निजात की सूरत कहीं निकलती है

ग़ज़लकार को शब्द के लिंग से संबद्ध एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए। वह यह कि स्त्रीलिंग में प्रयुक्त शब्द का उपमान भी स्त्रीलिंग का शब्द होना चाहिए। शारदा को शेर कहना अनुपयुक्त है‚ उसको शेरनी ही कहना उपयुक्त है। राजेश रेड्डी का शेर है–

ए खुशी‚ मैं जानता हूं तू है सोने का हिरण
तेरे पीछे लेके आई है मेरी किस्मत मुझे

खुशी को 'हिरण' कहने के बजाए 'हिरणी' या मृगी कहा जाता तो उपयुक्त था। शेर को यूं लिखा जाना चाहिए था–

ए खुशी‚ मैं जानता हूं तू है हिरणी सोने की
तेरे पीछे लेके आई है मेरी किस्मत मुझे

अनावश्यक विशेषणों का प्रयोग
कई बार हम गीत या ग़ज़ल में ऐसी वस्तु की विशेषता का बखान करते हैं जिसकी कतई आवश्यकता नहीं होती है। विशेषण से रची–बसी वस्तु के साथ विशेषण लगाना मानो उसकी सुंदरता को क्षीण समझता है। विशेष्य के साथ विशेषण जोड़ने से गीत या ग़ज़ल का प्रसाद गुण मर जाता है। गुड़ का गुण है कि वह मीठा होता है इसलिए उसके साथ मीठा लिखना अनावश्यक है। जब मैंने लिखना शुरू किया था तब गीत–ग़ज़ल की किसी पंक्तिको चमत्कृत बनाने की मेरी लालसा मेरे मन और मस्तिष्क को घेरे रहती थी। परिणामस्वरूप मैंने सोचे समझे बिना ऐसी काव्य पंक्तियां रची जिनमें अनुपयुक्त और अनावश्यक विशेषण 'एक म्यान में दो तलवारें' के समान थे। दो उदाहरण–

तुम्हारी बुरी दुर्दशा देखकर
लगा मुझको जलता हुआ कोई घर

जल रहा है मेरा मन यूं प्यार में
गर्म अगनी में जले ज्यों कोयला

कलांतर में अभ्यास से ही मैं जान पाया कि 'विद्वान' के साथ 'पढ़ा–लिखा'‚ 'कोयल' के साथ 'काली'‚ दुर्दशा के साथ बुरी और कोयल के साथ काली के अनुपयुक्त और अनावश्यक विशेषण लिखना कितनी बड़ी भूल है! विशेषण की उपयोगिता पर रामधारी सिंह दिनकर 'कविता की परख' में लिखते है– 'जहां यह जानने की आवश्यकता हो कि दो कवियों में से कौन बड़ा और कौन छोटा है‚ वहां यह देख लो कि दोनों में से किसने कितने विशेषणों का प्रयोग किया है तथा किसके विशेषण प्राणवान और किसके निष्प्राण उतरे हैं? ' . . .कैसे कंटक बीच मनोरम कोमल कुसुम रहा होगा।' विशेषण प्रयोग की दृष्टि से यह कविता निकृष्ट कोटि की है क्योंकि कुसुम (यदि केतकी और नागफनी को ध्यान में न रखे) तो कोमल और मनोरम होता ही है। फिर उसे अलग से कोमल और मनोरम कहने में नवीनता की क्या बात हुई?

हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला' की रूबाइयों में उर्दू शायरी की लगभग सभी विशेषताएं विद्यमान हैं लेकिन उसमें भी कहीं–कहीं विशेषण का अनावश्यक प्रयोग है। 'मधुशाला' के साथ 'मधुमय' का प्रयोग करना 'शहद' के साथ 'मीठा' लिखने के समान है। 'मधुमय' का अनावश्यक प्रयोग देखिए–

हाथ पकड़ लज्जित साक़ी का
पास नहीं खींचा जिसने
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की
उसने मधुमय मधुशाला

कहावत है खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है सो अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों की रचनाओं से प्रभावित कुछेक हिंदी ग़ज़लकार उपर्युक्त दोष से मुक्त नहीं हो पाए है। सचेष्टता और अभ्यास का अभाव तो है ही उनमें। एक दो उदाहरण हैं। रमा सिंह का शेर है–

शाम का धुंधला धुआं
और रात की ये सलवटें
दिल के आंगन में तड़पती
बिजलियां आती रही

'धुआं' के साथ 'धुंधला' का लिखना आवश्यक नहीं है। धुआं तो होता ही धुंधला है।

चलती आंधी में अब फिर से
भेज न मन के पंछी को
माना पहले बच पाया है
दोबारा मन तोड़ न दे– कुंअर बेचैन

'आंधी' का काम ही चलना है। उसे अलग से 'चलती' कहना अनुपयुक्त है। शेर में 'दोबारा' का प्रयोग ही पर्याप्त था। 'फिर से' लिखने की आवश्यकता नहीं थी। एक ही अर्थ के दो शब्दों का प्रयोग अखरता है। शेर यूं होता तो उपयुक्त लगता–

आंधी झक्कड़ में दोबारा
भेज न मन के पंछी को
अब की बार गया तो शायद
बेचारा दम तोड़ न दे।

फालतू शब्दों का प्रयोग
अशाआर में अनावश्यक विशेषण के प्रयोग के अतिरिक्त 'फ़ालतू' या 'भरती' के शब्द भी देखने को मिलते हैं। छंद को निबाहने के लिए ही शेर में 'फ़ालतू' शब्द का प्रयोग किया जाता है। लेकिन इससे शेर का सौंदर्य बिल्कुल नहीं रहता है। उसमें 'फ़ालतू' शब्द का प्रयोग वैसे ही है जैसे कोई तन पर फ़ालतू कपड़े पहन ले या फ़ालतू खा–पी ले। हुल्लड़ मुरादाबादी का मिसरा है–

खोज रोटी की बड़ी है
उस खुदा की खोज से

यहां 'उस' शब्द भरती का है। सिर्फ़ 'खुदा' कहना पर्याप्त था। 'उस खुदा' से कवि का संकेत किस खुदा की ओर है? क्या उसकी दृष्टि में अनेक खुदा हैं? मिसरा नपा–तुला लगता यदि वह यूं लिखा जाता–

खोज रोटी की बड़ी है
ईश्वर की खोज से

वर्षा सिंह का मिसरा है–

इस काल की कारा में
जब जो भी यहां आया

'यहां' शब्द फ़ालतू है। 'इस काल की कारा में जब जो भी आया' अपने आप में पूर्ण पंक्ति थी।

व्याकरण का नियम है कि जब भी किसी काव्य–पंर्क्ति में दो क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है तो पूर्वकालिक क्रिया (पंक्ति में पहले से प्रयुक्त हुई क्रिया) के साथ 'कर' या 'के' लगाया जाता है। मसलन–

मिरे सामने जो पहाड़ था
सभी सर झुका के चले गए– बशीर बद्र

चूंकि उपर्युक्त मिसरे दो क्रियाओं (झुंकाना और चले जाना)का प्रयोग हुआ है इसलिए पूर्वकालिक क्रिया 'झुकाना' के साथ 'के' लगाना अनिवार्य हो गया है। यह बात ध्यान रहे कि पूर्वकालिक क्रिया के साथ दो बार 'कर' या 'के' यानी 'सोकर के' लिखना भारी भूल है। इस दोष की शिकार कुछेक पंक्तियां हैं–

गर्क होना है मुझको होने दे
डूबकर के उभर के देखूंगा– शलभ श्रीराम सिंह

शलभ श्रीराम सिंह अपने ऊपर लिखित शेर में 'उभर के' का सही प्रयोग करते हैं लेकिन 'डूबकर के' का ग़लत प्रयोग। 'डूब करके' का 'के' फ़ालतू है।

अब बुढ़ापे में जोश लेकर के
पर्वतों को है छल रहा सूरज– विनीता गुप्ता

विनीता गुप्ता के शेर में भी 'लेकर के' का प्रयोग सही नहीं है। 'लेकर' ही पर्याप्त है।

हरिवंश राय बच्चन की रूबाइयों में ऐसी कई पंक्तियां हैं जो किसी शेर से कम नहीं हैं। इस दोष से वह भी बच नहीं पाए हैं। देखिए–

किसी जगह की मिट्टी भीगे
तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण–अर्पण करना मुझको पढ़–पढ़कर के मधुशाला

भरती के शब्द 'के' प्रयोग से 'पढ़–पढ़कर के' पाठ में दुरूहता आ गई है।

शेर में किसी शब्द का छूट जाना 'भरती' के शब्द के समान ऐब (दोष) नहीं माना जाता है। 'आपके घर में कितने लोग रहते हैं' पंक्ति सही है और 'आपके घर कितने लोग रहते हैं' पंक्ति ग़लत है क्योंकि इसमें 'में' छूट गया है। किसी शागिर्द ने शेर लिखा–

तुम बन बहार आए हो
और दिल को मेरे भाए हो

उस्ताद ने परिमार्जन किया–

बन कर बहार आए हो
तुम दिल को मेरे भाए हो

'बन' शब्द के साथ 'कर' लगाने से शेर में पूर्णता आ गई है और सौंदर्य पैदा हो गया है। 'को'‚ 'के' 'पर'‚ 'से‚' 'में'‚ 'कर' इत्यादि का पद्य में उतना महत्व है जितना गद्य में। दूध और पानी का सा मेल है गद्य में भी और पद्य में भी।

शब्द को उचित स्थान पर प्रयोग करना
शेर में शब्द को उचित स्थान पर प्रयोग करना ग़ज़ल की विशेषताओं में से एक है। 'तुम क्या खा रहे हो' को 'क्या तुम खा रहे हो।' लिखने से मानी बदल जाते है। 'और जीवन में कुछ मुस्काओ तो' को 'कुछ जीवन में मुस्काओ तो' लिखने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। शेर में शब्द का सही स्थान पर आना शेर के साथ–साथ उसकी अपनी सौष्ठवता में वृद्धि होती है। उसकी अस्त–व्यस्त प्रस्तुति आकाश को छूनेवाले भाव व बिम्ब प्रतीक को बेमानी बना देते हैं। माना कि एक सफल ग़ज़लकार ग़ज़ल संबंधी समस्त विशेषताओं से परिचित होता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वह सदा सजग रहता है और किसी विशेषता से चूकता नहीं है यानी कभी भूल नहीं करता है। कहते हैं कि बड़े से बड़ा पहलवान भी हर तरह का दाव पेंच जानने के बावजूद कभी कभार अखाड़ा में चारों खाने चित हो जाता है। वास्तव में 'ग़ालिब का है अंदा़जे बयां' हर किसी शायर में मुमकिन नहीं है। इ़कबाल का शेर है–

माना कि तेरे दीद के क़ाबिल नहीं हूं मैं
तू मेरा शौक देख मेरा इंतज़ार देख

'मेरा शौक़ कहना सही है लेकिन 'मेरा इंतज़ार' कहना ग़लत है। इंतज़ार तो 'तेरा' 'उसका' या किसी अन्य का होता है। यदि शायर का मंतव्य है कि तेरे इंतज़ार में मेरा शौक देख तो शब्द शेर में उचित स्थान पर आने से चूक गए हैं।

शेर में कभी 'आप' कभी 'तुम' लिखना भी ऐब है। नियम है कि यदि शेर के एक मिसरे में 'आप' का प्रयोग किया जाता है तो दूसरे मिसरे में भी उसको उसके के अनुरूप ही निर्वाह किया जाना चाहिए। एक मिसरे में आप और दूसरे मिसरे में 'तुम' का आभास खलता तो है ही साथ में हास्यापद भी लगता है। साथी छतारवी की निम्नलिखित पंक्तियों में इस ऐब को साफ़ देखा जा सकता है–

मेरे इस हतभागी मन ने
गिन–गिन तारे रात गुज़ारी
कई बार कमीने घर में
ठहरी है औकात हमारी

मेरी रचनाधर्मिता के प्रारंभिक दिनों में मैंने भी ऐसी कई भूलें की थी। एक शेर पढ़िए–

पत्ती–पत्ती उदास थी तुझ बिन
आप आए तो खिल उठा गुलशन

लोकोक्ति और मुहावरे का महत्व
लोकोक्ति और मुहावरे का महत्व इतना अधिक है कि इनके प्रयोग से गीत ग़ज़ल को चार चांद लग जाते हैं। उस्ताद शायरों ने भी इसके अमिट प्रभाव को स्वीकार किया है। इनका जादू निराला है। एक बार सर पर चढ़ता है तो उतरने का नाम नहीं लेता है। छंद व लय में रची गई लोकोक्तियों का तो कोई जवाब ही नहीं है। ये व्यंजनाओं की ऐसी संपदाएं हैं कि इनके सामने बड़े–बड़े कवियों की काव्य पंक्तियां फीकी लगती हैं। मसलन–

खाल ओढ़ के सिंह की स्यार सिंह नहीं होय
राम–राम जपना पराया माल अपना
अधजल गगरी छलकत जाए
कोयला होय न उजला सौ मन साबुन धोय
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं
अंधेर नगरी चौपट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा

लोकोक्तियों का जादू बरकरार रखने के लिए आवश्यक है कि इनको जस–का तस प्रस्तुत किया जाए। चूंकि इनमें सभी शब्द घी और शक्कर की भांति एक दूसरे में घुल–मिल गए होते हैं इसलिए इनके किसी शब्द को भी बदलना या हटाना इनकी सजीवता को निष्प्राण करना है। 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत' में जो स्वभाविकता 'चिड़िया' कहने से है वह किसी अन्य परिंदेके कहने से कतई नहीं आती है। 'अपनी–अपनी डफली–अपना–अपना राग' में डफली और राग में जो घनिष्ट संबंध है वह ढोल और गीत कहने में संभव कहां?

एक लोकोक्ति है– 'अक्ल बड़ी या भैंस', यह इतनी प्रचलित है कि बचे बूढ़े सभी इसको बोलते–लिखते हैं। जाने–माने कवि संजय चतुर्वेदी ने भैस के स्थान पर 'भालू' का प्रयोग करके इस लोकोक्ति की कैसी दुर्गति की है‚ उनके शेर में देखिए–

अक्ल बड़ी या फिर भालू
दानिशवाले गौर करें
शाख में बैठा है क्यों उल्लू
दानिश वाले ग़ौर करें

कुछ ऐसे भिन्न अर्थों वाले शब्द हैं जो आपस में मिलकर एक शब्द के अर्थ में बोले और लिखे जाते हैं। मसलन‚ अस्त–व्यस्त‚ अजीब और ग़रीब‚ आस और पास इत्यादि शब्द। इनके अर्थ भिन्न है लेकिन जब वे आपस में मिलकर अस्त–व्यस्त‚ अजीब–औ–ग़रीब‚ और आस–पास के रूप में प्रयुक्त होने लगे तो इनके अर्थ ही बदल गए। इनका प्रयोग एक शब्द के अर्थ में रूढ़ हो गया। अब अस्त के साथ लीन‚ अजीब के साथ निर्धन और आस के साथ नज़दीक लिखना ग़लत है। हिंदी का शब्द है सीधा और उर्दू का है सादा। दोनों रूढ़ हुए तो शब्द बना सीधा–सादा। उसका शाब्दिक अर्थ है– भोला–भाला। बालस्वरूप 'राही' ने न जाने कबसे प्रचलित इस मुहावरे को 'सीधा–सच्चा' करके इसका अर्थ बदल दिया। देखिए–

सीधे–सच्चे लागों के दम
पर ही दुनिया चलती है।

सामीप्य दोष
उर्दू शायरी में आमने–सामने आनेवाले दो शब्दों के अंतिम और प्रारंभिक समान अक्षर की समीपता को दोष माना गया है। जैसे– 'निर्लज्ज जन क्या जाने इज्ज़त'। चूंकि निर्लज्ज और जन के 'ज' अक्षर में समीपता है इसलिए उर्दू शायरी में यह दोष है। इस दोष के अनुसार अक्षर की समीपता के कारण बोलने में गतिरोध पैदा होता है। सोहन राही का शेर है –

जला दो‚ फूंक डालो, कोहना आदम
दरिंदों से यह अब बदतर लगे है।

'अब' और 'बदतर' शब्दों के अंतिम और प्रारम्भिक अक्षर 'ब' में समीपता है और यह समीपता उर्दू शायरी के नियम को तोड़ता है। चूंकि सोहन 'राही' शायरी के हर नियम से परिचित है इसलिए उनको यह शेर बदलना पड़ा। पढ़िए उसका परिष्कृत रूप –

जला दो‚ फूंक डालो‚ कोहना आदम
दरिंदों से भी यह बदतर लगे है।

मात्राओं को बढ़ाना या घटाना
शब्द की मात्रा को दबाना यानी दीर्घ को ह्रस्व बनाना उर्दू शायरी में जायज़ माना जाता है। मसलन– मेरा को मिरा‚ तुझको को तुझकु‚ उसको को उसकु‚ इत्यादि। शब्द की मात्रा को दबाने के संदर्भ में यहां यह बताना आवश्यक है कि यह प्रक्रिया आधुनिक हिंदी काव्य में भले ही कम रही हो लेकिन भक्ति कालीन हिंदी काव्य में व्यापक रूप से विद्यमान थी। अमीर खुसरो‚ तुलसीदास‚ सूरदास‚ मीराबाई‚ इत्यादि कवियों ने इसका खुलकर प्रयोग किया। दीर्घ को ह्रस्व बनाने के साथ–साथ ह्रस्व को दीर्घ बनाने की प्रवृति भी उनमें थी। इनके अतिरिक्त अपने नामों की मात्राओं को भी उन्होंने दबाया और बढ़ाया।

कबीरदास ने अपने नाम की मात्रा को किस तरह दबाया और बढ़ाया‚ इसका उदाहरण है–

कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूकै आपनों चले हमारे साथ

तुलसीदास की रचनाओं में 'तुम्हारा' और 'हमारा' शब्दों के सही रूप तो है ही लेकिन इनको 'तुमार'‚ 'तुम्हार' और 'हमार' भी लिखा गया है। कबीरदास की भांति उन्होंने अपने नाम की मात्रा को दबाया। देखिए–

चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर
तुलसिदास चंदन घिसै तिलक देत रघुबीर

अब हिंदी ग़ज़ल में स्वर को दबाना आम है। लेकिन कुछ ऐसे शब्दों को दबाना वर्जित है जिनको पहले ही दबाकर लिखा जाता है। मसलन–
'क्या' और 'क्यों'। इनमें दो मात्राएं होती है। चूंकि इनको पहले ही दबाकर लिखा जाता है इसलिए इनको और दबाकर यानी एक मात्रा के वज़न में लिखना भूल है।

रामदरश मिश्र के मिसरे में क्या को दबाकर 'क' के वज़न में लिखा गया है–
'इसमें क्या खता आपको भाता नहीं हूं मैं'

एक समय था जब नगर–नगर में शायरी की महफ़िलें सजती थीं। उन महफ़िलों में हर शायर को एक तरह का मिसरा दिया जाता था। उसको लेकर शायर काफ़िया और बहर को निबाहते हुए ग़ज़ल लिखते थे। बेहतर ग़ज़ल लिखने की होड़ रहती थी उनमें। किस शायर की ग़ज़ल अभिव्यक्ति‚ काफ़िया–रदीफ़ और बहर की दृष्टि से श्रेष्ठ है इसका तुलनात्मक आकलन होता था। फलस्वरूप अच्छी ग़ज़लें सामने आती थीं। नए शायरों को सीखने और मंजे हुए शायरों को सिखाने का अवसर प्राप्त होता था। सर्वत्र रचनात्मक वातावरण व्याप्त होता था।

हिंदी काव्य गोष्ठियों का ढंग कुछ भिन्न था। मिसरा के स्थान पर उन्हें 'समस्या' पूर्ति दी जाती थी। उस समस्या को पूर्ण करना होता था उन्हें। अनेक पत्रिकाएं भी उस ओर अतिक्रियाशील थी। वे नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने और प्रकाश में लाने के प्रयास में रहतीं थी। न तो उर्दू शायरों की वे महफ़िलें रही और न ही हिदी–कवियों की वे गोष्ठियां। न तो वह रवायत रही और न ही वो परम्परा। पत्रिकाओं के वे पन्ने लुप्त हो गए जिन पर कवियों से समस्यापूर्ति करवाई जाती थी।

उर्दू शायरी की एक स्वस्थ परम्परा है। वह यह कि किसी अच्छे मिसरे पर अन्य शायरों का अशआर लिखने का झुकाव। बड़े–बड़े शायरों को भी किसी और शायर के लिखे मिसरे पर शेर लिखने से गुरेज नहीं है। ग़ालिब‚ दाग़‚ इक़बाल‚ वफ़ा‚ शक़ील इत्यादि शायरों ने भी इस परम्परा में अपनी–अपनी लेखनी चलाई। इससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इस बहाने पाठकों को अच्छे से अच्छा शेर पढ़ने को मिला और अलग–अलग शायरों की शैली‚ अभिव्यक्ति और उर्जा देखने को मिली।

उर्दू शायरी में ऐसे मिलते– जुलते शेरों की भरमार है। कुछ उदाहरण– 

उनके आने से जो आ जाती है मुंह पे रौनक
वे समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है– ग़ालिब

अब पछताएं नहीं ज़ोर से तौबा न करें
आपके सर की क़सम दाग़ का हाल अच्छा है– दाग़

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम‚ वतन है हिंदोस्तां हमारा' – इकबाल

हिंदू हो या मुसलमां‚ कह दो मुख़ालिफ़ों से
हिंदी हैं हम‚ वतन है हिंदोस्ता हमारा – रामप्रसाद बिस्मिल

फलक देता है जिनको ऐश उनको ग़म भी होते हैं
जहां बजते हैं नक्कारे वहां मातम भी होते हैं– दाग़

खुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजती हैं शहनाई वहां मातम भी होते हैं– शक़ील

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
खंजर को अपने और ज़रा तान लीजिए – रामप्रसाद बिस्मिल

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए – शहरयार

हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
सब तेरी जुल्फ़ के असीर हुए – मीर

सबकी मंज़िल तो एक है राही
हम हुए‚ तुम हुए‚ कि मीर हुए – सोहन राही

हिंदी कवियों का इस परम्परा की ओर ध्यान नहीं गया। संभव है कि मौलिकता में ही उनका विश्वास हो और किसी अन्य कवि की लिखी हुई पंक्ति को उठाने से घबराते हों। यदि इस परम्परा को अपनाया होता तो हिंदी ग़ज़ल के समृद्ध होने की अनेक संभावनाएं पैदा होतीं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका है। हंदी ग़ज़ल इन संभावनाओं से वंचित रही है। हिंदी के चंद अशआर ही ऐसे हैं जो बहर और कफ़िया–रदीफ़ में मिलते जुलते हैं। देखिए–

रोशनी ही रोशनी हो जाए शहर में
इस सिरे से उस सिरे तक आग जलनी चाहिए– श्यामप्रकाश अग्रवाल

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए– दुष्यन्त कुमार

हादसा क्या हुआ इस शहर में
आते–जातों को हमेशा डर लगा– उषा राजे

जाने क्यों मुझको यही अक्सर लगा
आपकी खामोशियों से डर लगा – प्राण शर्मा

उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल के मूल्यांकन से हिंदी ग़ज़ल का पलड़ा उर्दू ग़ज़ल के पलड़े से हल्का पड़ता है। उर्दू ग़ज़ल का पलड़ा भारी है क्यों कि वह कई शतकों से लिखी जा रही है और मीर‚ ग़ालिब‚ दाग़‚ इकबाल‚ रामप्रसाद बिस्मिल‚ फिराक गोरखपुरी‚ इत्यादि उस्ताद शायरों का भरपूर योगदान रहा है इसमें। यह उतार पर कभी नहीं रही है। चौंकानेवाला है इसका क्रमिक विकास। दो दशक पहले गली–गली में ग़ज़ल गायक पैदा होने से ग़ज़लकारों ने उनके लिए निम्नस्तर की कुछ ग़ज़लें अवश्य लिखीं लेकिन इसका मयार उतना नही गिरा जितना अदबी दायरों में अंदेशा था। शायद इसी अंदेशे से घिरे निदा फ़ाज़ली ने कभी 'धर्मयुग' में बयान दिया था– 'कुछ अर्सा पहले दिल्ली के पुराने महल्लों में घर–घर बान की चारपाइयां होती थी जो एक–दो महीनों के इस्तेमाल से ढीली हो जाती थीं। बुनाई करनेवाले हर रोज़ 'खाट बनवा लो' की हांक लगाकर फेरी लगाते और पैसा कमाते थे। उनकी तरह आजकल नए गायकों के घरों के सामने भीड़ जमा रहती है जो फ़रमाइशों पर ग़ज़ल लिखने आते हैं और ग़ज़ल गायक की ख़ैर मनाते है। ऐसे वक्तव्यों के बावजूद उर्दू ग़ज़ल का मयार बरकरार रहा। फ़िल्मी ग़ज़ल में भी साहित्यिक स्वर मुखर रहा है। हल्के–फुलके गीत लिखने वाले राजेन्द्र कृष्ण ने भी उसकी मकबूलियत को बनाए रखा। इसका ज्वलंत उदारहण है उनकी कई फ़िल्मी ग़ज़लें। उनके एक शेर पर गौर फ़रमाइए–

उनको ये शिक़ायत है कि हम कुछ नहीं कहते
अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते–

कविवर शैलेन्द्र की फ़िल्मों में लिखी ग़ज़लें कम मिलती हैं। 'बेगाना' में उनकी ग़ज़ल का मतला शायरी का अच्छा नमूना है। देखिए–

फिर वो भूली सी याद आई है
ए–गम–ए दिल तेरी दुहाई है।

नए भावों, नए बिम्ब–प्रतीकों से सुसज्जित हिंदी ग़ज़ल पांच–छः दशकों से लगातार लिखी जा रही है लेकिन ग़ज़ल के पूरे व्याकरण की अनभिज्ञता और अन्य कमज़ोरियों के कारण अब भी इसमें ग़ालिब या फ़िराक़ जैसे उस्ताद शायर का अभाव नज़र आता है। यदि जयशंकर प्रसाद‚ अयोध्या सिंह उपाध्याय‚ सुमित्रनंदन पंत‚ माखनलाल चतुर्वेदी‚ मैथिलीशरण गुप्त‚ महादेवी वर्मा‚ रामधारी सिंह 'दिनकर'‚ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'‚ हरिवंशराय बच्चन इत्यादि सर्वश्रेष्ठ कवि ग़ज़ल विधा से जुड़ते तो हिंदी ग़ज़ल का स्वरूप आज कुछ और ही होता। उज्जवल और सशक्त। ऐसी बात नहीं है कि अब हिंदी में उच्च स्तर के कवियों का अभाव है। ऐसे असंख्य कवि हैं जिनकी छंदहीन काव्य–पंक्तियों में भी भरपूर ऊर्जा है। उनके अंतःकरणों से निकली निम्नलिखित पंक्तियों को मैं पढ़ता हूं तो रसविभोर हो जाता हूं और सोचता हूं कि यदि वे अशआर में कहीं होतीं तो उनका पढ़ने–सुनने का आनंद कुछ और ही होता–

दर्द उंगली में हो कि
सर पर हो
उसकी पहचान की तस्वीर एक जैसी है– कन्हैयालाल नंदन

कभी ये बैरी थपेड़ा था लू का
आया आज
ख़याल तेरा सौंधी मिट्टी के खुशबू सा– दिव्या माथुर

डर इस बात का है अब
कि लोंगों ने छोड़ दिया है
डर से डरना– गंगाप्रसाद विमल

तुम रूक न सके कभी
मैं चल न सका अभी
पर अजब है व्याकरण
चल रहे हैं साथ–साथ– कृष्ण कुमार

अफ़सोस
मुझे मरने का नहीं
तुमसे बिछुड़ने का है– पद्मेश गुप्त

माना कि हिंदी ग़ज़ल ने कथ्य की दृष्टि से अनेक नए आयाम स्थापित किए हैं। वह ग़ज़ल विधा में अपनी भरपूर उपस्थिति दर्ज करा चुकी है और उसके अशआर उर्दू अशआर से आगे निकल गए हैं लेकिन फिर भी इस बात को नकारना उपयुक्त नहीं कि हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से उन्नीस है। अच्छे–अच्छे हिंदी ग़ज़लकारों में भी कथ्य अस्पष्टता और छंद विधान की अनभिज्ञता अब तक बनी हुई है। कोई माने या नहीं माने लेकिन यह सही है कि अपनी कुछ कमियों के कारण हिंदी ग़ज़ल अभी भी बाल्यावस्था के पड़ाव में है। अपनी पूरी पहचान बनाने और युवावस्था के पड़ाव में पहुंचने के लिए इसे अभी लंबा सफ़र तय करना है। यह लंबा सफ़र तब तक तय होना असंभव है जब तक यह ग़ालिब‚ जौक़‚ दाग़‚ फ़िराक जैसे उस्ताद शायर (जो उदीयमान ग़ज़लकारों के पथप्रदर्शक भी बनें) पैदा नहीं होते या जब तक सुधी पाठकों की यह धारणा नहीं बनती कि अमुक ग़ज़लकार हिंदी का ग़ालिब‚ ज़ौक‚ दाग़ या फ़िराक़ है।

नीरज‚ सूर्यभानु गुप्त‚ सोहन राही‚ कुंअर बेचैन‚ बालस्वरूप 'राही'‚ अदम गौंडवी‚ मंगल नसीम‚ देवमणि पांडे‚ ज्ञानप्रकाश विवेक‚ राजेश रेड्डी‚ मुन्नवर राणा‚ राजगोपाल सिंह इत्यादि प्रतिबद्ध और समर्पित‚ ग़ज़लकार है। ग़ज़ल को निखारने संवारने की इनसे नाना आशाएं व संभावनाएं है। क्या पता भविष्य में ये सभी ग़ज़ल उस्ताद शायर के रूप में उभरकर सामने आएं। कहते हैं न कि उम्मीद पर दुनिया कायम है।

9 दिसंबर 2004

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