भले ही कोई छंद को महत्व न दे
किन्तु इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि इसके
प्रयोग से शब्दों में, पंक्तियों में संगीत का
अलौकिक रसयुक्त निर्झर बहने लगता है। सुरलय
छंद ही उत्पन्न करता है गद्य नहीं। गद्य में पद्य हो तो
उसके सौंदर्य में चार चांद लग जाते हैं किंतु पद्य
में गद्य हो तो उसका सौंदर्य कितना फीका लगता है
इस बात को काव्यप्रेमी भलीभांति जानता है।
छंद के महत्व के बारे
में कविवर रामधारीसिंह 'दिनकर' के विचार पठनीय
हैं 'छंदस्पंदन समग्र सृष्टि में व्याप्त है। कला ही
नहीं जीवन की प्रत्येक शिरा में यह स्पंदन एक नियम
से चल रहा है। सूर्य चंद्र गृहमंडल और विश्व की
प्रगति मात्र में एक लय है जो समय की ताल पर यति
लेती हुई अपना काम कर रही है। . . .ऐसा लगता है कि
सृष्टि के उस छंदस्पंदनयुक्त आवेग की पहली
मानवीय अभिव्यर्क्ति कविता और संगीत थे।' (हिंदी
कविता और छंद)
प्रथम छंदकार पिंगल ऋषि
थे। उन्होंने छंद की कल्पना (रचना) कब की है इतिहास
इस बारे में मौन है किन्तु छंद उनके नाम से ऐसा
जुड़ा कि वह उनके नाम का पर्याय बन गया।
खलीलबिनअहमद जो आठवीं सदी में ओमान
में जन्मे थे के अरूज़ छंद की खोज के बारे में कई
जन श्रुतियां है। उनमें से एक है कि उन्होंने मक्का
में खुदा से दुआ की कि उनको अद्भुत विद्या प्राप्त हो।
चूंकि उन्होंने दुआ सच्चे दिल से की थी इसलिए वह
कबूल की गई। एक दिन उन्होंने धोबी की दुकान से
'छुआछु छुआछु की मधुर ध्वनि सुनी। उस
मधुर ध्वनि से उन्होंने अरूज़ की विधि को ढूंढ
निकाला। अरबीफ़ारसी में इन्कलाब आ गया। वह
पंद्रह बहरें खोजने में कामयाब हुए। उनके नाम
हैं हजज रजज रमल कामिल मुनसिरह
मुतकारिब सरीअ मुजारह मुक्तजब मुदीद
रूफ़ीफ़ मुज़तस बसीत बाफ़िर और तबील।
चार बहरें मुतदारिक करीब मुशाकिल और
जदीद कई सालों के बाद अबुल हसीन ने खोजी। हिंदी
में असंख्य छंद है। प्रसिद्ध हैं दोहा चौपाई
सोरठा ऊलाल कुंडलियां बरवै कवित
रोला सवैया मालती मालिनी गीतिका
छप्पय सारंग राधिका आर्या भुजंगप्रयात
मतगयंद आदि।
रागरागनियां भी छंद
है। यहां यह बतलाना आवश्यक हो जाता है कि उर्दू
अरू़ज में वर्णिक छंद ही होते हैं जबकि हिंदी में
वर्णिक छंद के अतिरिक्त मात्रिक छंद भी। वर्णिक छंद गणों
द्वारा निर्धारित किए जाते हैं और मात्रिक छंद मात्राओं
द्वारा।
गणों को उर्दू में
अरकान कहते हैं। गण या अरकान लघु और गुरू वर्णों
का मेल बनते हैं। लघु वर्ण का चिन्ह है 1 (एक
मात्रा) और गुरू वर्ण का 2 (दो मात्राएं) जैसे क्रमशः
'कि' और 'की'। गण आठ हैं मगण (2 2 2) भगण
(2।।) जगण (।2।) सगण(।।2) नगण (।।।)
यगण (।2 2) रगण (2।2) और तगण (।2 2)।
उर्दू में दस अरकान
हैं:– फऊलन (।2।।) फाइलुन (2।।।) मु़फाइलुन
(।2 2।।) फाइलातुन (2।2 2।।) मुसतफइलुन (।।।।।।।)
मुतफाइलुन (।।2 2 2।।।) मफ़ाइललुन (।2।।।।)
फ़ाअलातुन (2। 2।।) मफ़ऊलान (।।2 2 2।) और
मसतफअलुन (।।।।।।।)।
प्रथम दो अरकान
फऊलुन फाइलुन क्रमशः 'सवेरा' या
'संवरना' एवं 'जागना' या 'जागरण' पांच
मात्राओं के शब्दों के वज़नों में आते है। और
शेष आठ अरकान सात मात्राओं के शब्दों के वज़नों
में। जैसे 'सवेरा है।' 'जागना है।' ये गण और
अरकान शेर में वज़न कैसे निर्धारित करते है इसको
समझना आवश्यक है। हिन्दी में एक वर्णिक छंद है
भुजंगप्रयात। इसमें चार यगण होते हैं। चार
यगणों की पंक्ति बनी
'सवेरे सवेरे कहां जा रहे हो'
।2 2 ।2 2 ।2 2 2 2 2 2 2 2 2।2 2 2 2 2
उर्दू में इस छंद को
मुतकारिब कहते हैं। लेकिन भुजंगप्रयात और
मुतकारिब में थोड़ा सा अंतर है। भुजंगप्रयात की
प्रत्येक पंक्ति में वर्णो की संख्या बारह और मात्राओं
की बीस है लेकिन मुतकारिब में वर्णो की संख्या
अठ्ठारह या बीस भी हो सकती है। जैसे
इधर से उधर तक उधर से इधर तक
या
इधर चल उधर चल उधर चल इधर चल
चूंकि उर्दू गज़ल फ़ारसी
से और हिंदी गज़ल उर्दू से आई है इसलिए फारसी
और उर्दू के अरूज़ का प्रभाव हिंदी गज़ल पर पड़ना
स्वाभाविक था। इसके प्रभाव से भारतेंदु हरिश्चंद्र
नथुराम शर्मा शंकर राम नरेश त्रिपाठी सूर्यकान्त
त्रिपाठी निराला आदि कवि भी अछूते नहीं रह सके।
रामनरेश त्रिपाठी ने तो हिंदी उर्दू छंदों व उससे
संबद्ध विषयों पर 'काव्यकौमुदी' पुस्तक लिखकर
अभूतपूर्व कार्य किया। कविवर शंकर और निराला के छंद
के क्षेत्र में किए गए कार्यों के बारे में दिनकर जी
लिखते हैं 'हिंदी कविता में छंदों के संबंध में
शंकर की श्रुतिचेतना बड़ी ही सजीव थी। उन्होंने
कितने ही हिंदीउर्दू के छंदों के मिश्रण से नए छंद
निकाले। . . .अपनी लयचेतना के बल पर बढ़ते हुए
निराला ने तमाम हिंदी उर्दूछंदों को ढूंढ डाला है
और कितने ही ऐसे छंद रचे जो नवयुग की
भावाभिव्यंजना के लिए बहुत समर्थ है। (हिंदी
कविता और छंद)
उस काल में एक ऐसे
महान व्यक्ति का अवतरण हुआ जो अपने क्रांतिकारी
व्यक्तित्व और प्रेरक कृतित्व से अन्यों के लिए
अनुकरणीय बना। हिंदी और उर्दू के असंख्य कालजयी
अशआर के रचयिता व छंद अरूज़ के ज्ञाता पं रामप्रसाद
बिस्मिल के नाम को कौन विस्मरण कर सकता है? मन
की गहराइयों तक उतरते हुए उनके अशआर की बानगी तथा
बहरों की बानगी देखिए
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है।
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा
वतन की गम शुमारी का कोई सामान पैदा कर
जिगर में जोश दिल में दर्द तन में जान पैदा
कर
नए पौधे उगे शाखें फलेंफूलें सभी बिस्मिल
घटा से प्रेम का अमृत अगर बरसे तो यूं बरसे
मुझे प्रेम हो हिंदी से पढूं हिंदी लिखूं हिंदी
चलन हिंदी चलूं हिंदी पहनना ओढ़ना खाना
मदनलाल वर्मा 'क्रांत' ने 'सरफ़रोशी की तमन्ना'
पुस्तक मे ठीक ही लिखा है 'जैसे कि गालिब के बारे
में कहा जाता है कि 'गालिब का है अंदाज़एबयां
और' ठीक वैसे ही 'बिस्मिल' के बारे में भी यह कहा
जा सकता है कि 'बस्मिल' का भी अंदाजें बयां शायरी
के मामले में बेजोड़ है उनका कोई सानी नहीं
मिलता है। उनकी रचनाओं का प्रभाव अवश्य ही मिलता
है उन तमाम समकालीन शायरों पर जो उस ज़माने
में इश्कविश्क की कविताएं लिखना छोड़कर राष्ट्रभक्ति
से ओत प्रोत रचनाएं लिखने लगे थे। कितनी विचित्र
बात है कि बिस्मिल के कुछ एक शेर तो ज्यों के त्यों
अन्य शायरों ने भी अपना लिए और वे उनके नाम से
मशहूर हो गए।' ('सरफ़रोशी की तमन्ना' के संपादक
मदन लाल वर्मा 'क्रांत')
शंकर निराला, त्रिपाठी,
बिस्मिल तथा अन्य कवि शायर छंदों की लयताल में
जीते थे एवं उनको नित नई गति देते थे किन्तु अब
समस्या यह है कि अपने आप को उतम गज़लकार कहनेवाले वर्तमान पीढ़ी के कई कवि छंद विधान को
समझने में दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं उससे कतराते
हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भवन की भव्यता उसके
अद्वितीय शिल्प से आंकी जाती है। कुछ साल पहले मुझको
दिल्ली में एक कवि मिले जो गज़ल लिखने का
नयानया शौक पाल रहे थे। उनके एकआध शेर
में मैंने छंददोष पाया और उनको छंद अभ्यास
करने की सलाह दी। वह बोले कि वह जनता के लिए
लिखते हैं जनता की परवाह करते हैं छंदवंद की
नहीं। मैं मन ही मन हंसा कि यदि वह छंदवंद की
परवाह नहीं करते हैं तो क्या गज़ल लिखना ज़रूरी है
उनका? गज़ल का मतलब है छंद की बंदिश को
मानना उसमें निपुण होना। गज़ल की इस बंदिश
से नावाकिफ को उर्दू में खदेड़ दिया जाता है। मुझको
एक वाक्या याद आता हैं। एक मुशायरे में एक शायर के
कुछ एक अशआर पर जोश मलीहाबादी ने ऊंचे स्वर में
बारबार दाद दी। कुंवर महेन्द्रसिंह बेदी (जो उनके
पास ही बैठे थे) ने उनको अपनी कुहनी मार कर
कहा 'जोश साहिब क्या कर रहे हैं आप? बेवज़न
अशआर पर दाद दे रहे है आप?' कयामत मत ढाइए।' जोश
साहिब जवाब में बोले 'भाई मेरे दाद का ढंग
तो देखिए।'
आधुनिक काव्य के लिए
छंद भले ही अनिवार्य न समझा जाए किन्तु गज़ल के
लिए है। इसके बिना तो गज़ल की कल्पना ही नहीं की
जा सकती है। लेकिन हिंदी के कुछ ऐसे गज़लकार हैं
जो छंदों से अनभिज्ञ हैं और कुछ ऐसे भी हैं
जो उनसे भिज्ञ होते हुए भी अनभिज्ञ लगते हैं।
उर्दू की एक बहर हैः
मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन
हिंदी में इसका रूपांतर है ।।2। 2। 2। ।2 2। 2।।।
इस बहर में उर्दू में हज़ारों गज़लें लिखी गई
हैं। कुछ एक मिसरे प्रस्तुत हैं
आए बहार बन के लुभा कर चले गए राजेन्द्र कृष्ण
जाना था इतनी दूर बहाने बना लिए राजेन्द्र कृष्ण
मिलती है जिंदगी में मुहब्बत कभीकभी साहिर
लुधियानवी
हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए साहिर
लुधियानवी |