हिंदी
ग़ज़लकारों ने भी इस बहर में ग़ज़लें लिखी है
किन्तु कुछ अशआर छंददोष के कारण कमज़ोर पड़ गए
हैं। पढ़िए
अफ़सोस किया
पहलेपहल वार उसी ने
आया था जो हमदर्द हमारे बचाव को ओंकार
गुलशन
ये फूल ये
बच्चे ये किताबें ये रोशनी
सब मेरे आरपार पढ़ो और चुप रहो भवानी
शंकर
जिस नाम के हमनाम
हों उस नाम के लिए
हिस्से में कभी देश निकाले भी पड़ेंगे शलभ
श्री राम सिंह
ऊपर लिखित अशआर में
प्रयुक्त शब्द हमदर्द बच्चे हमनाम क्रमशः
मदर्द बचे मनाम के रूप में आते तो मिसरों
के वज़न सही होते।
इसी तरह एक और शेर है
इसी उम्मीद में कर ली है आज बंद जुबां
कल को शायद मेरी आवाज जहां तक पहुंचे।
आज शब्द ने पहले
मिसरे का वज़न ही गड़बड़ा दिया है। 'आज' को
उल्टाकर 'जआ' के रूप में पढ़े तो मिसरा सही वज़न
में है। संजय मासूम के निम्नलिखित शेर के
दोनों मिसरों में वज़न बराबर नहीं है।
असर अब भी है मुझ पर
राम जी का
कोई नारा नया मत दो मुझे
कैलाश सैंगर का शेर
है
सुबह मांगी तो
दिखाया चेहरा
और बिखरा के जुल्फ़े शाम लिखा
शेर का दूसरा मिसरा
तो वज़न में है किन्तु पहला मिसरा 'दिखाया' शब्द
के कारण बेवज़न है। 'दिखाया' के स्थान पर 'देखना
वज़न का कोई शब्द आता तो वज़न सही होता।
सत्यप्रकाश शर्मा का
शेर है
हादसा जैसे नुमा हो
ग़म तमाशा हो
वो इस अंदाज़ से आते हैं राहतें लेकर
'हादसा' शब्द के कारण
शेर का पहला मिसरा वज़न में नहीं है। 'हादसा'
शब्द के स्थान पर 'बहार' शब्द के वज़न का कोई शब्द
आना चाहिए था।
केवल मात्राएं गिन
लेने से ही शेर में वज़न पैदा नहीं होता।
रवीन्द्र भ्रमर का शेर है :
चिड़िया सोने की है
लेकिन
अलस्सुबह बोलेगी क्या
उसका पिंजरा तो देखो
पूरा मुर्दाघर लगता है
यह मात्रिक छंद है। काफी
राग इसी पर आधारित है। इस छंद के नियमानुसार
प्रत्येक पंक्ति के दो टुकड़े होते हैं। पहले टुकड़े में
सोलह और दूसरे टुकड़े में चौदह मात्राएं होती
हैं। इस छंद को पहचानने का एक और तरी़का है।
सोलह मात्राओं को पढ़ने के बाद अपने आप गति रूक
जाती है। भ्रमर की पहली पंक्ति तो छंद में है किन्तु
दूसरी पंक्ति नहीं क्योंकि उसके पहले टुकड़े में
चौदह और दूसरे में सोलह मात्राएं है।
हस्तीमलहस्ती का शेर है
'आसानी से पहुंच न
पाओगे इंसानी फ़ितरत तक
कमरे में कमरा होता है कमरे में तहखाना भी'
यहां पहले मिसरे के
पहले टुकड़े में अठारह मात्राएं हैं क्योंकि गति
'पाओगे' के बाद रूकती है। रूकनी तो चाहिए 'पाओ' के
बाद ही।
मिसरों
में मात्राओं का सही प्रयोग
जैसे दो मिसरों
(पंक्तियों) के मेल से शेर बनता है वैसे ही
उर्दू और हिंदी के कुछ छंद ऐसे हैं जिनमें
नियमानुसार मिसरे के दो टुकड़े होते हैं। कोई
भले ही इस नियम को न माने लेकिन उसके
इस्तेमाल से शेर में निखार आ जाता है। मिसरे का
संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं के उसके
पहले टुकड़े का अंतिम शब्द (पर का की भी
ही है आदि) दूसरे टुकड़े में नहीं जाने पाएं।
जैसे
हम बुलबुले हैं
इसकी
ये गुलिस्तां हमारा
लाली मेरे लाल की
जित देखूं तित लाल
'की' शब्द उपयुक्त टुकड़े में आने से मिसरे की
गेयता में सुगमता पैदा हो गई है लेकिन
निम्नलिखित मिसरे के पहले टुकड़े का शब्द 'के' कटकर
दूसरे टुकड़े में चले जाने से गेयता में तनिक
विघ्न पड़ गया है
सारे जहान वालों
के खेल हैं निराले
यदि 'के' शब्द के पहले टुकड़े के शब्दों
'जहानवालों' के साथ आता तो मिसरे का निखार
दुगना हो जाता। बालस्वरूप 'राही' की एक ग़ज़ल के
दो मिसरे हैं
उसकी सोचो जो
जंगल को
ही अपना घरबार कहें
सीधेसच्चे
लोगों के दम
पर ही दुनिया चलती है।
पहले मिसरे के दूसरे
टुकड़ें में 'ही' शब्द है। इसको मिसरे के पहले
टुकड़े में आना चाहिए। इसी तरह दूसरे मिसरे के
दूसरे टुकड़े में 'पर ही' शब्द है। इनको भी मिसरे
के पहले टुकड़े में आना चाहिए। दोनों मिसरे
लयसुर में होते तो छंद में सौंदर्य उत्पन्न
करते यदि वे इस तरह लिखे जाते
उसकी सोचो जंगल
को ही
जो अपना घरबार कहें
सच्चे लोगों के दम
पर ही
सारी दुनिया चलती है।
चूंकि ग़ज़ल का संबंध राग रागनियों से है
इसलिए शेर के मिसरे में किसी मात्र के घट या बढ़
जाने के बारे में एक कुशल ग़ज़लकार सदैव सजग
व सतर्क रहता है फिर भी उसके घटनेबढ़ने के दोष
मिल ही जाते है कभी ग़ज़लकार की असावधानी
और कभी ग़ज़लगायक की नासमझी से। साठ की
दशक में हबीब वली ने बहादुरशाह ज़फ़र की
ग़ज़ल 'लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में'
गाई थी। इस ग़ज़ल का एक मिसरा है 'कह दो ये
हसरतों से कहीं और जा बसें'। लेकिन उन्होंने
गाया 'कह दो इन हसरतों से कहीं और जा
बसें'। 'ये' शब्द की जगह 'इन' शब्द को गाने से
मिसरे का वज़न बढ़ गया है। मिसरा सही वज़न
में होता यदि इसको इस तरह भी गाया जाता
कह दो न हसरतों से
कहीं और जा बसें
या
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
नए
छन्दों की रचना
बीस पच्चीस
साल पहले दिल्ली में एक ग़ज़ल संग्रह छपा था।
उसको देखने का अवसर मुझे मिला था। ग़ज़लकार
का नाम मैं भूल गया हूं। उन्होंने नए छंद रचे थे। किसी शेर का एक मिसरा 24 मात्राओं का था और
दूसरा मिसरा 32 मात्राओं का। मात्राओं में भिन्नता
होने के कारण ग़ज़लें अपनी प्रभावोत्पादकता में
असमर्थ रहीं। मनोभावों के अनुरूप नए छंद भी
रचे जा सकते हैं बशर्ते वे रचनाओं में सौंदर्य
उत्पन्न करने में सक्षम हों।
नए छंदों की सृष्टि
करना कुशल कवि की रचनात्मकता का परिचायक है। पहले
ही कहा जा चुका है कि ऐसा रचनात्मक परिचय निराला
ने अपनी अनेक कविताओं में दिया था। 'परिमल का
निवेदन' शीर्षक कविता की पंक्ति 'एक दिन थम जाएगा
रोदन तुम्हारे प्रेमअंचल में' उनके ऐसे ही
प्रयास का फल था। यह छंद हिंदी के 28 मात्राओं के
विधाताछंद तथा उर्दू की बहर मफ़ाइलुन मफ़ाइलुन
मफ़ाइलुन मफ़ाइलुन (उठाए कुछ वरक लाले ने
कुछ नरगिस ने कुछ गुल ने) के साम्य पर
बनाया गया है किन्तु पहले शब्द 'एक' के 'ए' में दो
मात्राएं अलग से जोड़ देने से छंद की गंभीरता बढ़
गई है। (रामधारी सिंह 'दिनकर') इस छंद में
स्वर्गीय शंभुनाथ 'शेष' ने साठ के दशक में
कोमलकांत शब्दावली में सुंदर ग़ज़ल लिखी थी।
यहां यह बताना आवश्यक है कि वह एक अच्छे ग़ज़लकार
थे। उनका नाम हम हिंदी ग़ज़लकार की चर्चा में
अक्सर भूल जाते हैं। ग़ज़ल से उनका आत्मीय
संबंध था। उनका ज़िक्र न करना हिंदी ग़ज़ल के
साथ बेइंसाफ़ी है। ग़ज़ल के प्रति वह समर्पित थे। उन्होंने अनेक ग़ज़लें लिखी थीं। उनके
असामयिक निधन से ग़ज़ल को काफ़ी क्षति हुई।
उर्दू का रंग उनको छू नहीं पाया था हांलाकि वह
उर्दू से हिंदी में आए थे। उनकी हर ग़ज़ल हिंदी का
संस्कार लिए हुए है। भावों के अनुरूप उनकी ग़ज़ल
का रस लीजिए
चांदनी है चांद के
संसार की बातें करें
शुभ्र लहरी शांत पारावार की बातें करें
रो चुके हैं हम जगतव्यवहार का रोना बहुत
कर सकें तो प्रेम की और प्यार की बातें करें
कल्पना सी बह रही रश्मियों की निर्झरी
भावनाओं के मधुर अभिसार की बातें करें
अप्सरा सी है थिरकती स्वप्न की सुकुमारता
आज भावलोक के विस्तार की बातें करें
'शेष' मधुबन वल्लरी यमुना कदम मधु
बांसुरी
प्राण आओ अब इन्हीं दो चार की बातें करें।
यदि कवियों की नई
पीढ़ी नए भावों और नए विचारों के अनुरूप नए छंद
रचे तो ग़ज़ल विधा को चार चांद लग सकते है
लेकिन देखा जाता है कि नई पीढ़ी के अधिकांश कवि
पुराने बहरों पुराने छंदों पर ही आश्रित हैं।
अच्छी ग़ज़ल का जन्म
तभी होता है जब भावों के नए आयामों को
स्थापित करनेवाले ग़ज़लकार को छंदों के
साथसाथ सही उच्चारण व वज़न का सहीसही
ज्ञान हो। एक समृद्ध उन्नत व परिष्कृत भाषा के
शब्दों का अशुद्ध उच्चारण करना या उनको ग़लत
वज़न में लिखना उनके सौंदर्य को बिगाड़ना है।
यह धारणा कि शब्द को तोड़ना मरोड़ना कवि का
जन्म सिद्ध अधिकार है निर्मूल है। 'यह माना कि
कभीकभी किसी भाषा का शब्द दूसरी भाषा में जा
कर अपना रूप बदल लेता है लेकिन उसको जबरन
तोड़मरोड़ कर शायरी में इस्तेमाल करना उससे
खिलवाड़ करना है। यह खिलवाड़ दिखाई देता है उर्दू
ग़ज़ल में भी और हिंदी ग़ज़ल में भी।
उस्ताद शायर बेकल
उत्साही ने ठीक ही कहा है 'उर्दूवाले न हिंदी
व्याकरण जानते हैं न ही हिंदीवाले उर्दू कवायद।
दोनों बेचारे उच्चारण या तलफ़्फुस से ही वाकिफ़
नहीं हैं।' अब देखिए न उर्दू शायरी में हिंदी के
शब्द ब्राह्मण शांति क्रांति प्रीत प्रेम
पत्र कृष्ण आदि को बरहम्न शानती
करानती परीत परेम पत्तर करीशन के रूप में
लिखा जाता है। उसमें हिंदी के कई शब्दों के विकृत
रूप मिलते ही हैं उर्दू के भी कुछ एक शब्द जिनको
तोड़ातरोड़ा जाता है। शब्द हैं आईना सियाह .खामोशी आदि। इनको आइना
सियह ख़ामोशी या ख़ामशी के वज़नों में भी
इस्तेमाल किया जाता है। 'बरसात' के काफ़िए के संग
'साथ' का काफ़िया स्वीकार्य है जबकि 'त' और 'थ'
दो भिन्न ध्वनियां है। अंग्रेज़ी शब्द 'स्टेशन' को
'इस्टेशन' लिखना आम बात है। पढ़िए निदा फाज़ली का
शेर
'जितनी बुरी कही जाती
है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के इस्कूल में शायद तुमसे मिली नहीं है
दुनिया'
दलील दी जाती है कि
उर्दू ग़ज़ल में कुछ शब्दों के तोड़नेमरोड़ने
के नियम हैं। नियम कुछ भी हों लेकिन मेरे
विचार में शब्दों को बदलना उपयुक्त नहीं है।
चूंकि अच्छा शायर शब्द की खूबसूरती को बरकरार रखता
है इसलिए सवाल पैदा होता है कि इसके सही रूप व
वज़न को बदला ही क्यों जाए? गद्य में उसका
रूपवजन सुरक्षित है तो फिर पद्य में क्यों नहीं?
खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग पकड़ता है। हिंदी
ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के इस प्रभाव को अपनाए बिना
नहीं रह सकी है। सच तो यह है कि वह दो कदम आगे
ही है। उसमें हृदय उदय लहर उमड़ तड़प
सड़क नज़र सफ़र महक निकल चलन
सदन कदम मधुर चमक आदि शब्दों के
ग़लत उच्चारण व वज़न देखकर हैरानी होती है। हृदय
और उदय के सही उच्चारण हैं हृ दय और उ दय।
इनके वज़न दया शब्द के वज़न के समान है। इनको
याद शब्द के वज़न में लिखना ठीक नहीं है। शब्दों
को गलत वज़नों में लिखने की इस प्रवृति को
हिंदी के निम्नलिखित शेरों में देखा जा सकता है।
पलते हैं फिर भी शहर
में खुंखार जानवर
माना शहर की रोशनी जंगल नहीं कुंअर कुंअर
बेचैन
'शहर' शब्द 'याद' शब्द
के वज़न में आता हैं। शेर को ज़रा ध्यान से
पढ़ने पर ही भास हो जाता है कि पहले मिसरे में
'शहर' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में और दूसरे में
'दया' शब्द के वज़न में लिखा गया है। दोनों
मिसरों में 'शहर' शब्द के वज़न में भिन्नता है।
आदमी में ज़हर भी है
और अमृत भी मगर
इन दिनों विषदंत उभरे हैं ज़हर हावी हुआ
चंद्रसेन विराट
ज़हर का वज़न है
'याद'। पहले मिसरे में इसका वज़न सही है लेकिन
दूसरे मिसरे में गलत क्योंकि इसमें इसका वज़न
'दया' शब्द के वज़न के समान है।
'उमड़ना' और
'घुमड़ना' शब्द 'जागना' वज़न में आते हैं।
इनको 'जगाना' शब्द के वज़न में लिखना अनुचित
है। रामदरश मिश्र के निम्नलिखित दो मिसरों में
'उमड़त' शब्द तो सही वज़न में हैं लेकिन
घुमड़ते शब्द का वज़न 'जागना' शब्द के वज़न
में हो जाने के कारण .गलत है
आँसू उमड़ते तो हैं बहाता नहीं हूँ मैं
घुमड़ते ही रहें बादल सावनी आकाश में
अजब सफर और ऩजर शब्दों के वजन 'दया'
शब्द के वज़न के बराबर है। निम्नलिखित शेरों में
इनके दो भिन्न रूप वज़न देखिएः
अजब मुसाफिर हूँ मेरा स़फर अजब
मेरी मंज़िल और है मेरा रास्ता और राजेश
रेड्डी
पहले मिसरे में 'स़फर' शब्द के साथ प्रयुक्त 'अजब'
शब्द सही वज़न में है लेकिन 'मुसा़फिर' शब्द के
साथ प्रर्युक्त 'अजब' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में
होने के कारण सही वज़न में नहीं है। 'स़फर' शब्द
का वज़न भी गलत है क्योंकि वह 'याद' शब्द के
वज़न में है।
किश्तों में सब स़फर किए है किश्तों में आराम
दूर गई बैठी फिर चल दी थोड़ा रूक कर धूल
हरजीत
राह में आके मैंने सोचा तो
जाने कितने स़फर निकल आए हरजीत
दोनों शेरों में 'स़फर' शब्द के वज़न में
भिन्नता है
सहमी हुई ऩजर लगता है
बिल्कुल मेरा घर लगता है विज्ञान व्रत
कुछ भी ऩजर नहीं आता
आइना पत्थर लगता है विज्ञान व्रत
पहले शेर में 'ऩजर' शब्द 'दया' के वज़न में
पढ़ा जाता है और दूसरे शेर में 'याद' शब्द के
वज़न में।
'अगर' 'ग़जल' और 'समय' शब्दों के वज़न
'दया' शब्द के समान है। निम्नलिखित मिसरों में
इन शब्दों के वज़न सही इसलिए नहीं क्योंकि ये
'याद' शब्द के वज़न में है। पढ़िए
अगर किसी पर बुरा व़क्त पड़ता सूरज सूरजभानु
गुप्त
यह ग़जल मेरे भीतर अब नाचने लगी है
उद्भ्रांत
चाहे जितना रोले कोई समय कौन लौटाए भाई
सुमन सरीन
'अगर', 'ग़जल' और 'समय' शब्दों के वज़न सही
लिखें जा सकतें थे यदि ग़जलकार थोड़ा परिश्रम
करते। 'समय' शब्द को ही लीजिए। 'कौन समय
लौटाए भाई' लिखा जाता तो 'समय' शब्द का वज़न
सही होता।
'ज़ेहन' शब्द 'याद' शब्द के वज़न में है। उसको
दया शब्द के वज़न में लिखना सरासर अनुपयुक्त है।
'दया' शब्द के वज़न में आने वाले 'बदन' शब्द
को भी 'याद' शब्द के वज़न में लिखना .गलत है।
निम्नलिखित अशआर 'ज़ेहन' 'बदन' और ' 'कुंअर'
शब्द क्रमशः 'दया' और 'याद' शब्दों में आने से
बेवज़न हो गए :
काम चाहे ज़ेहन से
चलता है
नाम दीवानग़ी से चलता है बालस्वरूप 'राही'
आते ही तेरे ओठों पे बजती है अपने आप
फूलों से बदन वाली वो पत्थर की बांसुरी
कुंअर बेचैन
'मुझको आ गए हैं
मनाने के सब हुनर
यूं मुझसे 'कुंअर' रूठ कर जाने का शुक्रिया'
कुंअर बेचैन
'कुंअर' शब्द का सही
वज़न यूं लिखने से होता . . .
'मुझसे 'कुंअर' यूं
रूठ के जाने का शुक्रिया'
शब्द के सही वज़न व सही उच्चारण से संबद्ध एक
उस्ताद शायर ने अपने मंज चुके शागिर्द से प्रश्न
किया 'हम कदमकदम चलते है राहें निहार कर'
और 'कदमकदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा'
में कदम लफ्ज का सही वज़न किस मिसरे में है?
पहले मिसरे में या दूसरे मिसरे में? शागिर्द
को दोनों मिसरों में प्रयुक्त 'कदम' लफ्ज के
वज़न का अंतर समझने में देर नहीं लगी। वह झट
बोला दूसरे मिसरे में।'
'वो कैसे?' उस्ताद ने फिर पूछा
'क्यों कि 'कदम' लफ्ज का सही वज़न है क दम यानि
कि 'वफ़ा' लफ्ज के वज़न के बराबर।'
'पहले मिसरे में 'कदम' लफ्ज के वज़न में क्या
गलती नज़र आई तुम्हें?
यहां 'कदम' दोनों बार ही कद म यानि की 'याद'
लफ्ज के वज़न में इस्तेमाल हुआ है।'
उत्तर सुन कर उस्ताद के मुखमंडल पर जैसे चांदनी
छिटक उठी। शागिर्द को गले से लगाकर वह गर्व से
बोले 'वाह उस्ताद की लाज रखी है तुमने। तुम्हारा
लफ्जों का इल्म अब वाकई लाजवाब है। आगे तुम्हें
इसलाह लेने की ज़रूरत नहीं है। तुम लफ्ज की
खूबसूरती को अपनी शायरी में ढालोगे ये
मुझे यकीन हो गया है।' उस्ताद का आशीर्वाद पाकर
शागिर्द खुशी से फूला नहीं समाया।
मतला,
मक़ता, काफ़िया और रदीफ़
ग़ज़ल में शब्द
के सही तौल वज़न और उच्चारण की भांति काफ़िया
और रदीफ़ का महत्व भी अत्याधिक है। काफ़िया के तुक
(अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या
शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़
नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।
जितने गिले हैं सारे
मुंह से निकाल डालो
रखो न दिल में प्यारे मुंह से निकाल डालो।
बहादुर शाह ज़फर
इस मतले में 'सार'
और प्यारे काफ़िया है और 'मुंह से निकाल डाला'
रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के
प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता
कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक
जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम
रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है
अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में
मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना
ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आजकल
ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते
है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि
मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात
नहीं बनती है क्योंकि उसमें मकता हो या न हो
मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा।
गायक को भी तो सुर बांधने के लिए गीत के
मुखड़े की भांति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है।
ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को
'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा
'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए
वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।
शेर में काफ़िया का
सही निर्वाह करने के लिए उससे संबद्ध कुछेक नियम
हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए
अत्यावश्यक है। मतला के दोनों मिसरों में एक ही
काफ़िया यानि कि 'आता' के साथ 'आता' बांधना
वर्जित है। इसके अतिरिक्त ध्वनि या स्वर भिन्नता के
कारण 'कहा' के साथ 'वहां' 'लाज' के साथ
'राज़' बांट' के साथ 'ठाठ' 'ज़ोर' के साथ
'तौर' आदि के काफ़िए इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है।
यहां एक बात और विचारणीय है कि 'आती' के साथ
'जाती' काफ़िया आता है जो स्वरों की समानता के
कारण उचित भी है किंतु उर्दू शायरी में 'आती' का
दूसरा काफ़िया 'लाई' भी हो सकता है। हां इसमें
यह बंदिश ज़रूर है कि यदि मतला के दोनों
मिसरों में 'आती' के साथ 'जाती' का काफ़िया
बांधा गया है तो पूरी ग़ज़ल समान ध्वनियों
के शब्दों (खाती पाती आती आदि) के काफ़ियों
का ही इस्तेमाल होगा। इस हालत में 'आती' का काफ़िया
के साथ 'लायी' बांधना ग़लत माना जाएगा।
अभिव्यक्ति की
अपूर्णता अस्वाभाविकता छंद अनभिज्ञता व
शब्दों के ग़लत वज़नों के दोषों की भांति
हिंदी की कुछ एक ग़ज़लों में काफ़ियों और रदीफ़ों
के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं। निम्नलिखित अशआर
में काफ़िए किसी न किसी रूप में ग़लत प्रयुक्त हुए
है
अपने दिल में ही रख
प्यारे तू सच का खाता
सबके सब बेशर्म यहां पर कोई शर्म नहीं खाता
भवानी शंकर
फ़िक्र कुछ इसकी कीजिए
यारो
आदमी किस तरह जिए यारो विद्यासागर शर्मा
आदमी की भीड़ में
तनहा खड़ा है आदमी
आज बंजारा बना फिरता यहां है आदमी राधेश्याम
बंद जीवन युगों
में टूटा है
बांध को टूटना था टूटा है त्रिलोचन
खुद से रूठे हैं हम
लोग
जिनकी मूठें है हम लोग शेरजंग गर्ग
बाद की संभावनाएं
सामने है
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने है दुष्यंत
कुमार
दुनिया जिसे कहते हैं
जादू का खिलौना है
खो जाए तो मिट्टी है मिल जाए तो सोना है
निदा फाज़ली
काफ़िया तो शुरू से ही
हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के
आसपास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस
कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था इसके
बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू
और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से
हरिश्चंद्र भारतेंदु दीन दयाल जी नाथूराम
शर्मा शंकर अयोध्या सिंह उपाध्याय
मैथलीशरण गुप्त सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए
बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग
करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी
के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी
कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय
है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन'
(सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी
सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत'
और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ
की छवि दर्शनीय है
जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में
हो रक्त बूंद भर भी जब तक हमारे तन में
मैं ढ़ूंढता तुझे था जब कुंज और वन में
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में
तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता संगीत के भजन में
यहां पर यह बतलाना
आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों
में ही निहित है शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की
प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है साथ ही
शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा
ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा
ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली
के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का
मतला है
इतना चले हैं वो
तेज़ सुधबुध बिसार कर
आए हैं लौटलौट के अपने ही द्वार पर
यहां 'बिसार' और
'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है 'कर'। चूंकि रदीफ
बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप
बना रहना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथसाथ 'कर' रदीफ को
दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।
दुष्यंत कुमार का मतला
है
मेरे गीत तुम्हारे पास
सहारा पाने आएंगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे
यहां 'पाने' और
'दिलाने' काफ़िए है। और उनकी रदीफ है 'आएंगे'।
ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर
'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है।
पढ़िए
हम क्या बोलें इस
आंधी में कई घरौंदे टूट गए।
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे।
कई अशआर में रदीफ के
ऐसे ही प्रयोग मिलते हैं।
भाषा
की शुद्धता
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए शुद्ध व सही भाषा होना भी
आवश्यक है। मंजी हुई भाषा के बारे में
उर्दूहिंदी और पंजाबी के जानेमाने शायर
जनाब सोहन 'राही' ने क्या सटीक कहा है
सादा सहल सही जुबां
गर हो तो ग़ज़ल होती है।
रामनरेश त्रिपाठी ने
कभी हिंदी कवियों के भाषा पर टिप्पणी करी
थी
'उर्दू के शायरों और हिंदी के कवियों की तुलना
करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उर्दू के शायरों ने
अपनी भाषा को शुद्ध करने खरादने मांजने और
चमकाने में जितना परिश्रम और लगन से काम
किया है उनके मु़काबले में उस तरह की प्रवृति हिंदी
कवियों ने बिल्कुल नहीं दिखाई है और न अब दिखा
रहे हैं।'
हिंदी के कुछ एक
ग़ज़लकारों के अशुद्ध भाषा व शब्दों के ग़लत
प्रयोग के संदर्भ में उनका कथन आज भी असत्य
नहीं है। ग़ज़ल की सही व शुद्ध भाषा उसको शक्ति
व स्तरीयता प्रदान करने में सक्षम होती है।
निम्नलिखित शेर का महत्व इसलिए है क्योंकि उसकी
भाषा मंजी और मुहावरेदार है
बड़े शौक से सुन
रहा था ज़माना
हमी सो गए दासतां कहतेकहते सफ़ी लखनवी
मंजी हुई और मुहावरेदार भाषा का जादू पाठक के
सर पर ही नहीं बल्कि उसके दिल की गहराइयों में उतर
कर बोलता है। यहां एक बात ध्यातव्य है कि ग़ज़ल
हो गीत हो रूबाई हो या चौपाई हो भाषा
में कोई अंतर नहीं है। ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल की
भाषा कुछ और होती है और गीत रूबाई और
चौपाई की भाषा कुछ और। हां यह आवश्यक है कि
काव्य की भाषा ऐसी न हो जो गालीगलौच
जैसी लगे और जिसे सुनकर सुधी पाठक के मन
में ग्लानि पैदा हो। ऐसे ही शेर से संबद्ध एक
वाक्या है। लगभग पैंतालिस साल पहले की बात है
कि जलंधर से प्रकाशित दैनिक उर्दू 'प्रताप' के साहित्य
संपादक द्वारिकादास 'निष्काम' के पास प्रताप में छपने
के लिए उनके गुरूभाई राजन की ग़ज़ल आई। उसका
मतला था
'नु़क्ताचीनों की बात करते हो
किन कमीनों की बात करते हो'
इस शेर पर 'निष्काम' जी को उसकी भद्दी भाषा को
लेकर एतराज़ था। उन्होंने ग़ज़ल को पत्र में नहीं
छापा। राजन ने उस्ताद पं. मेलाराम वफ़ा से इस
बारे में शिकायत की। शेर की आपत्तिजनक भाषा को
पढ़कर वफ़ा साहिब का चित भी हताश हो गया।
भाषा की एक छोटी सी
भूल भी शेर के सौदर्य को कम कर देती है। दुष्यंत
कुमार का शेर है
'उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गु़ज़ारिश तो देखिए'
उन्होंने अपने शेर
में 'उन्हें' शब्द का ग़लत प्रयोग किया है। 'उन्हें'
के स्थान पर 'उनकी' होना चाहिए था।
साथी छतारवी की दो पंक्तियां पढ़िए
'अब तो टूट गया इस
मन का वो चमकीला दर्पन
प्राण प्रिये अब मेरे घायल गीत तुम्हारे अर्पन'
'तुम्हारे' के स्थान पर
'तुम्हें ही' आता तो सार्थक होता।
काव्यभाषा की शुद्धता
से संबद्ध जितना स्तुत्य कार्य महाबीरप्रसाद द्विवेदी
के युग में हुआ उतना परवर्ती युग में नहीं।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' तो लठ लेकर उन
साहित्यकारों के पीछे पड़े रहते थे जो भाषा की
शुद्धता को गंभीरता से नहीं लेते थे। भाषा की
शुद्धता से संबद्ध उनके लेख उनकी पुस्तक 'चाबुक' में
संग्रहीत है। उर्दू अदब में इससे संबद्ध महत्वपूर्ण
कार्य हुआ। इस संदर्भ में उर्दू ग़ज़ल तो है ही
उल्लेखनीय। नसर की तरह उर्दू शायरी की विशेषता रही
है व्याकरण और कविता का चोलीदामन का
घनिष्ट संबंध। उसकी एकएक पंक्ति व्याकरण के
हिसाब से चुस्तदुरूस्त है। व्याकरण के उलंघन की
छूट पाना असंभव है। हर बात उसके घेरे में ही रह कर
कहनी पड़ती है। वर्तमान कालिक सहायक क्रिया (हूं
हो या है) को ही लीजिए। हिंदी कवि अपनी
काव्यपंक्ति में इसका इस्तेमाल नहीं भी करे तो
चलता है किन्तु उर्दू शायर को यह मान्य नहीं है।
उसका तर्क है कि यदि शेर में भूतकालिक सहायक क्रिया
(था थी या थे) और भविष्यकालिक सहायक क्रिया
(गा गी या गे) काव्य में निश्चितरूप से आती है
तो वर्तमान कालिक सहायक क्रिया ही की उपेक्षा क्यों
हो? उदाहरण के लिए दो कल्पित पंक्तियां है
मैं गीत प्रणय के गाता
बस इसमें ही रम जाता
'गाता' और 'जाता' की
सहायक क्रिया हूं को छोड़ देने से ऊपर लिखित
दोनों पंक्तियाें की पूर्णता पर प्रश्नचिह्न लग गया
है। इनकी खूबसूरती बरकरार रहती अगर ये यूं होती
मैं गीत प्रणय के
गाता हूं
बस इसमें ही रम जाता हूं।
एक और उदाहरण लीजिए।
ज्ञानप्रकाश 'विवेक' का मतला है
गांव जब से बना है
शहर दोस्तों
पी रहा हादसों का जहर दोस्तों
'बना ही सहायक क्रिया
' है' मतला के पहले मिसरे को पूर्णता प्रदान कर रही
है सो तो ठीक है लेकिन दूसरा मिसरा 'पी रहा' की
सहायक क्रिया ' है' के न होने से अधूरा लगता है।
' है' को शायरी में इस्तेमाल न करने की छूट ज़रूर
है लेकिन उस पंक्ति में जिसमें नहीं शब्द आता है
और वह पंक्ति भूतकाल या वर्तमान काल की ही होनी
चाहिए। उसका सीधासादा उत्तर दिया जाता है कि
'नहीं' में ही ' है' निहित है। शेर देखिए
हम वहां हैं जहां से
हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती ग़ालिब |