उर्दू
ग़जल का नाम जबान पर आते ही उसके उत्थान का
इतिहास आंखों में उभरने लगता है। उस महान उस्ताद
ग़जलकारों की छवियां मानस
में तैरने लगती हैं
जो गागर में सागर भरने की ग़जल विधा को
चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा गए है। अमीर खुसरो वली
मुहम्मद वली दर्द मीर जौंक गालिब
जफर इ़कबाल चकबस्त हसरत मोहानी अकबर
इलाहाबादी मोमिन आगाहश्र काश्मीरी आतिश
सौदा राम प्रसाद बिस्मिल ह़फी़ज जालंधरी
जोश मलीहाबादी जिगर मुरादाबादी फिरा़क
गोरखपुरी फै़ज अहमद फै़ज हरिचंद अख्तर जोश
मलसियानी मेलाराम वफा शकील बदायुनी
साहिर लुधियावनी आदि सैकड़ों उर्दूग़जलकारों
ने भावों के ऐसे मनोरम रंगबिरंगे पुष्प
खिलाएं कि उनकी भीनीभीनी सुगंध यहांवहां हर
तरफ फैली।
इन लोगों ने भाषा
की ऐसी निर्मल सरिता बहाई जिसका प्रवाह सबको
लुभा गया। संगीत का ऐसा जादू बहाया जो सरों
पर चढ़ कर बोला। दिलों को स्पर्श कर लेने वाली
ऐसी ग़जलों की रचना की उन्होनें कि जो छंदबद्ध
होने के साथसाथ मौलिकता स्वाभाविकता
स्पष्टता और सुंदरता की अनूठी छटा लिए हुए थी। उन्होंने
ग़जल को चार चांद लगाए और उर्दू शायरी की
केन्द्रीय विधा के रूप में निर्विवाद स्थापित किया।
उनका करिश्मा ही था कि गज़ल का बोलबाला हुआ।
चारों ओर उसका डंका बजा। रिक्शावाला
तांगावाला बसवाला अमीरगरीब
नवाबखादिम प्रायः हर कोई इसकी ताज़गी
शाइस्तगी और तासीर से प्रभावित हुए बिना न रह सका।
अपनी लोकप्रियता के कारण गज़ल ने कभी नात के रूप
में पीरपैगम्बर की शान में गाई जाने का कभी
कोठों पर पायलों की झंकार के साथ गूंजने का और
कभी मुशायरों में लोगों की वाहवाही लूटने का
कमाल हासिल किया।
अच्छी ग़जल के लिए कुछ
विशेषताएं होती हैं। इन पर समय के साथ के चलते
हुए विशेषज्ञता हांसिल की जाए तो उम्दा ग़ज़ल कही
जा सकती हैं। साथ ही इनका अभाव हो तो ग़ज़ल
अपना प्रभाव खो देती है या ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो
पाती। यहां इन विशेषताओं की विस्तृत चर्चा करेंगे।
विषयों की
व्यापकता
अपने प्रारंभिक दौर में
उर्दू गज़ल में श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोगवियोग का ही वर्णन रहता था लेकिन बाद
में उसमें परिवर्तन आया। उसमें उपदेश नीति
चिंतन और देशप्रेम की बातों का जिक्र किया जाने
लगा। उर्दू गज़लकार जो कभी रूपसौंदर्य और प्रेम
की बातें करने से थकता नहीं था वो 'और भी दुःख है
ज़माने में मुहब्बत के सिवा' की बोली बोलने
लगा। उसने गज़ल को राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना
का चोला पहनाया। गज़ल केवल नाज़ और अंदाज़ की
ही मोहताज नहीं रह गई। वह देशप्रेम
भाईचारा और सामाजिकता के भावों के झूले में
झूलने लगी और निम्नलिखित शेरों के साथ गूंज
उठी।
'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा इकबाल
ये नग़मा सराई है कि दौलत की है तकसीम
इन्सान को इन्सान का गम बांट रहा हूं। फिराक
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में हैं
वक्त आने दे बताएंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।
राम प्रसाद बिस्मिल
आज की उर्दू गज़ल जीवन की हर समस्या से सम्बद्ध है।
अब उर्दू गज़लकार सामाजिक राजनीतिक और धार्मिक
विसंगतियों पर खुल कर प्रहार करता है। वह कामिनी के
रूपसौंदर्य पर इतना आकर्षित नहीं जितना भ्रष्ट
समाज से दुखी है। वह ऊंचनीच भ्रष्टाचार
शोषण सांप्रदायिक संकीर्णता से उद्विग्न है इसलिए
आज के दौर की उर्दू गज़ल में निराशा आक्रोष
असंतोष और विद्रोह के स्वर अधिक सुनाई देते हैं।
पढ़िए कुछ शेर
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की
लोगों ने मेरे जेहन में रस्ते बना लिए सिब्ते
अली शमीम
बियांबा में कलियां झुलसती रही
समंदर पर बरसात होती रही साहिर होशियारपुरी
ईंटें उनके सर के नीचे
ईंटें उनके हाथों पर
ऊंचे महल बनाने वाले
सोते हैं फुटपाथों पर कृष्ण मोहन
घर लौट के मांबाप रोएंगे अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में कैसर
उल ज़ाफ़री
भाषा की
रवानी
उर्दू गज़ल ने भारत की लगभग हर भाषा पर अपनी
अमिट छाप छोड़ी है। हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला मैथिलीशरण गुप्त आदि
कवियों ने गज़लें लिखीं। हरिकृष्ण 'प्रेमी'
उर्दूनुमा गीत लेकर आए। पिछले चार दशकों से हिन्दी
में अनगिनत गज़लकार पैदा हुए हैं। हिन्दी के इन
गज़लकारों की सूची बड़ी लंबी है।अनेक अच्छे
गज़लकार हैं जिन्होंने अच्छे अशआर लिखे हैं लेकिन
सच्चाई यह है कि हिन्दी गज़ल की पहचान उर्दू गज़ल
जैसी अभी तक नहीं बन पाई है।
किसी भी विधा को
उत्कर्ष तक पहुंचाने के लिए चार दशक कम नहीं होते।
वास्तव में बहर की अनभिज्ञता कथ्य की अस्पष्टता आदि
के अलावा उर्दू ज़बान का हिन्दी गज़ल पर हावी होना
उसके स्वरूप के निखार में बाधक है। हिन्दी की अनेक
गज़लें तो लगती हैं जैसे वे उसकी हैं ही नहीं
वे अपनी सोंधीसोंधी सुगंध से जैसे वंचित
हो। 'कुल्फ' 'नासेह' 'खलवत' 'बेदादगर'
'जुल्फ़ेशाम' 'सोजे दरू' 'जिबह' आदि
अरबीफारसी के लफ़्जों से दब कर रह गई है। उनमें
गुड़ और पानी की तरह घुलमिल गए उर्दू के लफ्ज़ों
का इस्तेमाल होता तो भी कुछ बात बनती। चूंकि गज़ल
उर्दू से हिन्दी में आई है इसलिए यह मान कर चलना
कि जब तक उसमें उर्दू के लफ्ज़ फिट न हो तब तक वह
गज़ल नहीं लगती है सरासर असंगत है।
ग़ज़ल लिखने का यह
मतलब नही कि उर्दू के शब्दकोश को ही आयात कर लें।
माना उर्दू और हिन्दी के बोलचाल के शब्दों का
दोनों भाषाओं के बीच आदानप्रदान हो रहा है
लेकिन इस बात से मुंह नहीं फेरा जा सकता है कि
दोनों भाषाओं में गहरा अंतर भी है। फ़ारसी या
उर्दू के मुश्किल अल्फ़ाज़ हन्दी के साथ लिखने या संस्कृत
और हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को उर्दू के साथ लिखना
शायरी के सौंदर्य में बाधा खड़ी कर सकता है। 'उपवन
में नसीम बह रही है' या 'गुलशन में बयार बह
रहा है।' लिखना कितना हास्यास्पद लगता है। हिंदी के कुछ
गज़लकार उर्दू जबान से अपरिचित होने पर भी हिन्दी
गज़ल में फैशन के तौर पर उर्दू के मुश्किल लफ्जों
का प्रयोग करते हैं। जिन उर्दू के लफ्जों को उर्दू
वाले समझने में असमर्थ हैं, उनको हिन्दी भाषी
लोग क्या समझेंगे? उर्दू के वही लफ्ज हिन्दी
गज़ल में लेने चाहिए जो उसमें खप सकें उसकी
सुंदरता को चार चांद लगा सकें और सोने में
सुहागा की उक्ति को चरितार्थ कर सकें।
हिन्दी गज़लकार को
लोगों के दिलो में घर करने के लिए गज़ल लिखते
समय फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी और उर्दू के क्लिष्ट
शब्दों से गुरेज़ करना चाहिए। सबकी समझ में
आनेवाले शब्दों का इस्तेमाल वह करे तो हिंदी गज़ल
के लिए बेहतर होगा। रेखांकित शब्दों पर ध्यान दें,
क्या आम पाठक निम्नलिखित अशआर के अर्थ समझने में
समर्थ हैं? यदि नही तो ऐसे कठिन शब्दों को
गज़ल में इस्तेमाल करने का लाभ क्या ?
तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम हो गई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में कुंवर
कुसुमेश
अज्म को मेरे समझता ये ज़माना कैसे
जर की मीज़ान पे तुलती है हर औकात यहां
ख्वाब अकबराबादी
जो तर्कों को पराजित कर रही है
निरंकुश मन की सेवाएं अलग हैं ज़हीर
कुरैशी
मूल्य मानव के स्वखलित पशुवृत्तियों के
सामने
अब हृदय पर सिर्फ़ पैसों का हुनर हावी हुआ है
चन्द्रसेन विराट
हिंदी का शब्द कोश बड़ा विशाल है। उसमें हज़ारों
ऐसे कर्णप्रिय सरल व सुगम शब्द हैं जो हिंदी
गज़ल (गज़ल को अलग से हिंदी गज़ल कहना
उपयुक्त नहीं। गज़ल से पहले हिंदी लिखने का मेरा
अभिप्राय यही है कि उसको लिखने वाला हिंदी भाषी
है। वैसे भी जब कोई कवि मंच से कोई गज़ल
पढ़ता है तो वह यह नहीं कहता है कि वह हिंदी गज़ल
सुनाने जा रहा है।) के स्वरूप को सौंदर्य प्रदान
करने में समर्थ है। सरल सुगम एवं कर्णप्रिय
शब्दों में यदि हिंदी गज़ल लिखी जाएगी तो प्रश्न
पैदा ही नहीं होता है कि वह जन मानस को न मथ
सकें। यदि गज़ल में सर्वसाधारण के समझ में
आने वाले कर्ण प्रिय मधुर शब्द आएंगे तो वह न
केवल अपनी भीनीभीनी सुगंध से जनमानस को
महकाएगी बल्कि अपनी अलग पहचान भी बनाएगी।
संगीत
से संबंध
गज़ल का संगीत से
गहरा संबंध है। हिंदी काव्य तो सदा से ही संगीत
प्रधान रहा है। तुलसी की चौपाई हो या सूर या मीरा
के पद उनमें संगीत का निर्झर नाना धाराओं में
बह रहा है और वही संगीत का निर्झर नाना धाराओं
में हिंदी गज़ल में बह सकता है। उर्दू गज़ल की तरह
हिंदी गज़ल को भी प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
कठिन काम नहीं है। इसके लिए हिंदी गज़लकार को अपने
आपको तैयार करना होगा। फ़ारसी और संस्कृत या उर्दू
और हिंदी के क्लिष्ट शब्दों का मोह त्यागना होगा।
हिंदी गज़ल को लोकप्रिय बनाने के लिए उसको
बोलचाल या देशज शब्दावली को चुनना होगा
जटिल गज़ल की वकालत छोड़ना होगा। कबीर
तुलसी सूर मीरा आदि के असंख्य पद सुनते ही
समझ आ जाते हैं जो सैकड़ों साल बीत जाने पर
भी जन मानस में रचेबसे हैं।
गज़ल की सादगी के
बारे में उर्दू के एक अज्ञात शायर ने कहा था
'गज़ल के अशआर ऐसे हों जिनको सुनते ही श्रोता
यह सोचे कि वैसे अशआर तो वह भी आसानी से लिख
सकता है लेकिन जब वह लिखने बैठे तो लिख न सके'।
बोलचाल के शब्दों में 'देखन में छोटी लगे घाव
करे गंभीर' पंक्तियां लिखना कितना दुष्कर कार्य है यह
केवल लिखनेवाला ही जानता है। 'अब वो घबरा के
ये कहते हैं कि मर जाएंगे मर के भी चैन न पाया
तो किधर जाएंगे' या 'तेरा मिलना खुशी की बात
सही तुझसे मिल कर उदास रहता हूं।' जैसे अशआर
सुनने वाले के दिल पर तुरंत असर करते हैं।
यहां यह बतलाना
आवश्यक है कि गज़ल के मतला (प्रारंभिक शेर) और
दोहा में कोई मूल अंतर नहीं है। यदि अंतर कोई है
तो यही कि मतला कई बहरों में लिखा जाता है और
दोहा एक छंद में ही। मतला और दोहा दोनों ही दो
मिसरों (पंक्तियों) से बनते हैं और गंभीर से
गंभीर विचार को समेट लेने में सक्षम हैं। यदि
हिंदी में दोहा लिखा जा सकता है तो गज़ल क्यों
नहीं लिखी जा सकती है? साहिर लुधियानवी और जां
निसार अख्तर की निम्नलिखित गज़लें सर्वश्रेष्ठ हिंदी
ग़ज़लों में से हैं:—
'संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या
पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक को में भी
पछताओगे
ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की
मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श
बनाओगे
ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारो क्या
जानो
अपमान रचयिता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे
हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूठा सपना
है
हम जन्म बिता कर जाएंगे तुम जन्म गंवाकर
जाओगे साहिर लुधियानवी
एक तो नैना कजरारे ओर तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाए चमक कुछ और भी गहरे बादल में
आज ज़रा ललचाइ नज़र से उसको बस क्या देख लिया
पगपग उसके दिल की धड़कन उतरी जाए पायल में
गोरी इस संसार में मुझको ऐसा तेरा रूप लगे
जैसे कोई दीप जला हो घोर अंधेरे जंगल में
प्यार की यूं हर बूंद जला दी मैंने अपने सीने में
जैसे कोई जलती माचिस डाल दे पीकर बोतल में
जां निसार अख्तर
आजकल हिंदी के सभी छोटेबड़े कवि गज़ल रूपी
सागर में हाथपांव मार रहे हैं और मोती ढूंढने
का प्रयास कर रहे हैं लेकिन मोती हाथ कैसे लगे
जबकि गहराई तक पहुंचने की कला को सीखने का यत्न
कोई नहीं करता है। अरबीफ़ारसी के लफ्ज हिंदी
गज़ल में इस्तमाल करने का मोह तो प्रायः सबमें
है लेकिन गज़ल की विशेषताओं को अपनाने से वे
दूर भागते हैं। इसलिए कुछ लोगों की यह धारणा
निर्मूल नहीं लगती है कि हिंदी गज़ल में वह असर
नहीं है जो उर्दू गज़ल में है।
कविवर रामधारी सिंह
दिनकर ने अपने लेख 'हिंदी कविता पर अशक्तता का दोष (1938
में बेतिया कविसम्मेल्लन के अध्यक्ष पद से दिया
गया अभिभाषण) में उर्दू शायरी की प्रशंसा करते हुए
हिन्दी कविता की लोकप्रियता पर प्रश्नचिन्ह लगाया था'
क्या कारण है कि हमारी जनता की जबान पर हिंदी की
अपेक्षा उर्दू की पंक्तियां अधिक आसानी से चढ़ जाती है?
क्या बात है कि हमारे युग के प्रतिनिधि कवियों के
ग्रंथ जनता में वह लहर और उत्साह पैदा नहीं करते
हैं जिसके साथ इकबाल और जोश की प्रत्येक कविता
उर्दू जगत में सत्कार पाती रही है?'
लगन
और परिश्रम
उर्दू शायरी की परम्परा है
कि शागिर्द उस्ताद से पूरा फ़ायदा उठाता है। बहरों पर
अधिकार करना सीखता है। अपनी ज़बान दुरूस्त करता है
उसमें निखार लाता है। सहज और सरल गज़ल कहने का
गुर सीखता है। लेकिन हिंदी गज़लकार को गुरूशिष्य
का परम्परागत बंधन स्वीकार नहीं है। गुरूशिष्य का
संबंध संगीत या अन्य कलाओं में तो है लेकिन
हिंदी कविता में नहीं। हिंदी कवि स्वयं ही गुरू है और
स्वयं ही शिष्य है। महान और जन्मजात कवि है।
सीखने से तो उसके अहम को ठेस पहुंचती है क्यों कि
उसकी प्रकृति उसके स्वभाव के अनुकूल नहीं है। इसके
बावजूद हिंदी गज़ल की छवि इतनी धूमिल भी नहीं
है कि उसे नकार दिया जाए। कुछ उल्लेखनीय अशआर है
सब वक्त की बातें हैं सब खेल है किस्मत का
बिंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है'
रामप्रसाद बिस्मिल
'मेरे घर कोई खुशी आती तो कैसे आती
उम्र भर का साथ रहा दर्द महाजन की तरह' गोपालदास
नीरज
'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए' दुष्यंत
कुमार
'तूने कैसे जान लिया मैं भूल गया
रिश्तों का इतिहास है मेरी आंखों में सोहन
राही
'मेरे हाथों की गरमी से कही मुरझा न जाए वो
इसी डर से मै नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया'
उषा राजे सक्सेना
'हिली न शाख कोई और न पत्तियां कांपी
हवा गु़जर गई यूं भी कभीकभी यारों'
देवमणि पांडे
'पहाड़ों पर चढ़े तो हाफना था लाज़मी लेकिन
उतरते वक्त भी देखी कई दुश्वारियां हमने' ज्ञान
प्रकाश विवेक
'घर अपने कई होंगे कोठों की तरह लेकिन
कोठों के मुकद्दर में घर अपने नहीं होते' मंगल
नसीम
'आज दस्तक भी उभरती है तो सन्नाटे सी
जैसे कोई किसी अजगर को छुआ करता है।'
अवधनारायण मुद्गल
'मेरे दिल के किसी कोनें में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों को देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है।
राजेश रेड्डी
'ऐसी चादर मिली हमें गम की
सी इधर तो उधर फटी साहिब' सूर्यभानु गुप्त
'कौन सा सत्संग सुन कर आए थे बस्ती के लोग
लौटते ही दो कबीलों की तरह लड़ने लगे'
राजगोपाल सिंह
'तुम ऐसे खो गए हो जैसे विवाह के दिन
खो जाए सजतेसजते कंगन नई दूल्हन का' कुंअर
'बेचैन'
'यूं भटकती हुई मिलती है गरीबी अक्सर
जिस तरह भीड़ भरे शहरों में अंधा कोई' ओंकार
गुलशन
'दूर बेटी हुई तो याद आया
फल कभी पेड़ का नहीं होता' हस्तीमल हस्ती
'सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुप्पटा नहीं बदला जाता' मुनव्वर
राना
मैंने सूरज से की
दोस्ती
आंख की रोशनी खो गई' दीक्षित दनकौरी
अच्छा शेर सहज भाव स्पष्ट भाषा और उपयुक्त छंद के
सम्मिलन का नाम है। एक भी कमी से वह रसहीन और
बेमानी हो जाता है। भवन के अंदर की भव्यता बाहर
से दीख जाती है। जिस तरह करीने से ईंट पर ईंट
लगाना निपुण राजगीर के कौशल का परिचायक होता
है उसी तरह शेर में विचार को शब्द सौंदर्य तथा
लय का माधुर्य प्रदान करना अच्छे कवि की उपलब्धि को
दर्शाता है। जैसा मैंने पहले लिखा है कि यह उपलब्धि
मिलती है गुरू के आशीष तथा परिश्रम अभ्यास से। जो
यह समझता है कि गज़ल लिखना उसके बाएं हाथ का
खेल है वह भूलभुलैया में विचरता तथा भटकता
है। सच तो यह है कि अच्छा शेर रचने के लिए शायर को
रातभर बिस्तर पर करवटें बदलनी पड़ती है। मैंने भी
लिखा है
'सोच की भट्टी में सौसौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है।'
सहज अभिव्यक्ति
हिंदी में अच्छी गज़लें
लिखी जाने के बावजूद अनेक ऐसे अशआर पढ़ने को
मिलते है जो कथ्य की अस्पष्टता बाहर की
अनभिज्ञता काफ़िया रदीफ़ के गलत प्रयोग और
भाषा संबंधी भूल से फीके हैं। उर्दू गज़ल की
सबसे बड़ी विशेषता है कथ्य की स्पष्टता और
वास्तविकता। कभी कभी शायर अतिशयोक्ति से भी काम
लेता है रचना में सौंदर्य पैदा करने के लिए।
स्पष्टता और वास्तविकता से शेर का गिर जाना शायर का
सबसे बड़ा दोष माना जाता है। भाव चाहे कितना
भी उच्च हो छंद चाहे कितना ही उपयुक्त व सुंदर हो
लेकिन कथ्य की अस्पष्टता व अवास्तविकता से शेर की हत्या
हो जाती है। शेर को समझने में दिमाग चक्कर खाने
लगे तो समझिए कि समय ही नष्ट किया। कवि के
समझाने पर ही शेर समझा तो क्या समझा? व्याख्या
सुनने में तो उसका लुत्फ ही खत्म हो जाता है। काव्य
की अस्पष्टता व अवास्तविकता शेर को कहीं का रहने नहीं
देती है।
उर्दू में भी कई
अस्पष्ट अशआर लिखे गए पर उन्हें खारिज कर दिया गया।
अस्पष्ट शेर के बारे में जानने के लिए निम्नलिखित
उदाहरण दिया जाता है। एक शायर ने महफ़िल में शेर
पढ़ा
मगस को बाग में जाने न देना
कि नाहक खून परवाने का होगा
शेर को समझने की श्रोताओं ने मगज़च्ची की। किसी
के पल्ले नहीं पड़ा। लगा सबके दिमाग ज़वाब दे
गए। आखिर एक ने पूछा हु़जूर आपके शेर की बहर
लाजवाब है लेकिन उसका मजमून हमारी समझ के परे
है। शायर ने शेर की व्याख्या की ए बागवान तू
मगस (मधुमक्खी) को बाग में हरगिज़ न जाने
देना वह गुलों का रस चूस कर पेड़ पर शहद का छत्ता
बनाने में कामयाब हो जाएगा। उस छत्ते से मोम
निकलेगा और वह शमा की शक्ल अख्तियार करेगा। जब
शमा जलेगी तो बेचारा परवाना उस पर मंडराएगा
और बिन वजह जल कर राख हो जाएगा।
अनेक बार प्रसिद्ध
शायरों की रचनाओं में भी यह दोष देखने को
मिलते हैं उदाहरण के लिए
'कहां खो गई उसकी चीखें हवा में
हुआ जो परिंदा जिबह ढूंढता है' संजय मासूम
यह शेर भी स्पष्ट नहीं है। शायद कवि चाहता है कि
'जिबह' (क़त्ल) हुआ पंछी हवा में खो गई अपनी
'चीखें' ढूंढ रहा है। लेकिन 'जिबह' ल़फ्ज़ गलत
जगह पर आने से अर्थ यही निकलता है कि वह जिबह की
तलाश में है।
'कुछ कमीं या बेकली दीवानगी सबकी रहे
काश दिल में दर्द की आसूदगी सबकी रहे' लक्ष्मण
दुबे
इस शेर के दूसरे
मिसरे में अस्पष्टता है दर्द की आसूगदी (चैन) रहे कि
सबकी आसूदगी रहे?
राजघरानों में हमने दरबारी गाए नहीं कभी
इसीलिए तो अपने अंदर बची रही खुद्दारी जी
ज्ञानप्रकाश 'विवेक'
'दरबारी' शब्द ने
अर्थ को गड़बड़ा दिया है। राजदरबार में बैठनेवाला
सदस्य 'दरबारी' से यदि गज़लकार का आशय 'दरबारी
राग' से है तो शेर की स्पष्टता के लिए उसे 'दरबारी
राग' का प्रयोग करना चाहिए था।
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