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कुछ थोड़ी-सी लड़कियाँ, जो हॉस्टल में छुट्टियों के दौरान रह गई थीं, उनमें से एक भी उसकी परिचित न थी। वह सारा दिन अपने कमरे में बन्द रही और बाहर का शोर बन्द होने के बाद, भोजन के समय नहा-धोकर मेस में खाना खा आई। किसी ने उसे छेड़ा भी नहीं, न कुछ पूछा। फिर सारा दिन कमरे में। दिन बीत गया।

लेकिन, आज ऐसा नहीं हो सकता। वह चाहती भी नहीं। उसकी पूरी मित्र मंडली हॉस्टल में है। आज के खाने का मेनू कल दिन में ही स्मिता के कमरे में बन गया था। उसे अपने कमरे में खीर पकानी थी जो वह पका भी चुकी, किन्तु स्मिता के कमरे में वैशाली के साथ-साथ जो नई, खूबसूरत लड़की दिखी, लम्बी, कटे बालों वाली, नीली जीन्स और नीली-गुलाबी धारियों वाली हल्की नीली कमीज़ में - वह हमारी मेहमान है आज के लिए जो हमारे साथ होली खेलेगी, यह जानकारी उसे अभी-अभी स्मिता से मिली है। वह अपने घर में लड़ाई करके कल रात ही वैशाली के कमरे में आ गई थी और शायद आज रात भी यहीं रहे। वार्डन को कोई नहीं बतलाएगा। यों भी किसे फ़ुरसत है आज। सब रंग खेलने के मूड में हैं।

वेदिका अजीब-सी उलझन में है।
लड़कियों की टोली पूरे हॉस्टल में घूम रही है। हाथों में रंग-गुलाल लिए, भूत बने चेहरे तमाम कमरों के दरवाजे पीट रहे हैं ''होली है!'' और हर पुकार पर लड़कियाँ अपने कमरे से निकल कर टोली में शामिल हो रही हैं। कुल जमा पच्चीस-तीस लड़कियाँ। इससे अधिक हॉस्टल में हैं भी नहीं। सब सप्ताह भर पहले घर भाग चुके। होली में तो हॉस्टल से बाहर सड़कों पर निकलना असंभव सा हो जाता है। इस कदर बदतमीजियाँ होती हैं। रात को हॉस्टल में सन्नाटा गूँजता है। तीन सौ लड़कियों में से इतनी ही रह जाती हैं। वेदिका दूसरी मंज़िल पर है। पूरे फ्लोर पर सिर्फ़ तीन ही कमरे हैं जिनमें कोई है। रात को बाथरूम जाने में डर लगता है। इतना खाली- खाली कोरीडोर और यह सिमी! कल रात चली आई। कैसे?
'' कैसे क्या? ऑटो रिक्शा से। सीधे हॉस्टल के दरवाजे पर रुकी, फिर सीधे अन्दर वैशाली के कमरे में।'' स्मिता खिलखिलाई। फिर कुछ कहने का मौका दिए बिना उसने आगे बढ़कर पुकारा-
''हे सिमी, मीट वेदिका दी! '' (सिमी, वेदिका दी से मिलो।)

उसने आगे बढ़कर उसके गालों पर गुलाल मल दिया। वेदिका के हाथ भी बढ़े और हल्के से उसके गालों को छूकर लौट आए। बेहद कोमल! हरा गुलाल मले गालों पर लाल गुलाल का स्पर्श देकर। फिर वह थोड़ा खिसक कर विभा के साथ चलने लगी। न, इन आँखों में एक भटकन-सी है। सहज नहीं लगती।
शोर बढ़ता गया।
वे हॉस्टल से निकल कर परिसर के अन्दर बने महिला कॉलेज के छात्रावास में घुस गए। वहाँ भी कुछ इतनी ही लड़कियाँ। सारा का सारा झुंड आँगन के बीचोबीच बने फव्वारे के चारों ओर बिखर गया। फव्वारा कई दिनों से बन्द पड़ा है, किन्तु उसके चारों ओर बने हौज में गंदा पानी अब भी भरा है। रंग भरी कई बाल्टियाँ एक दूसरे पर उड़ेली जाकर खाली हो चुकीं। स्मिता ने अपनी खाली बाल्टी उल्टी कर बजाना शुरू किया, ''होली खेलें रघुवीरा अवध में, होली खेलें रघुवीरा।'' समवेत स्वर उठा और डूब गया। फिर से कुछ ने स्वर मिलाया। सिमी ने नाचना शुरू किया। वेदिका मूक दर्शकों में। हाथों से ताल देती रही। होठों पर हल्की मुसकराहट लिए।
''इसकी पैंट कितनी टाइट है। फट चुकी जाँघ पर। तब भी नाचे जा रही है।'' विभा फ़ुसफुसाई।
''हाँ।'' वह इतना ही कह पाई।

एक आवेश तारी था सिमी के चेहरे पर। पागलों की तरह वह नाच रही थी अकेली। कुछ लड़कियों ने साथ दिया था पहले फिर वे अलग हट गई थीं। उसकी तरह तेज़ गति से कोई नाच भी नहीं पा रहा था। बस किनारे खड़ी ताल दे रही थीं। उत्साह भरे स्वर, शोर और हंगामा। खेल बढ़ता गया। फिर उसने मिट्टी उठाकर मिट्टी से होली खेलने का उपक्रम किया। कई लड़कियाँ शामिल हो गईं।
विभा ने वेदिका को इशारा किया और वे दोनों चुपचाप भीड़ से बाहर हो गए।
बस इतना ही तमाशा उस दिन वेदिका ने देखा था। वह खूबसूरत साँवला चेहरा- तीखे नाक- नक्श वाला- किसी भी फ़िल्मी हिरोइन को मात कर सकता था। गहरे आवेश में थिरकते पाँव और समवेत स्वर ''होली है!''

वह विभा के साथ कमरे में लौट आई थी। यों भी तब दिन का एक बज रहा था। धूप कड़ी लगने लगी थी और वे दोनों औरों के साथ कई बार रंग भरी बाल्टी उलट कर भीग चुकी थी, भिगो चुकी थीं - दोस्तों-परिचितों को। भीड़ में किसे होश रहता है? सब अपने ही थे। उस पूरी भीड़ में सिमी का परिचय या तो वह और विभा जानती थीं या फिर वैशाली और स्मिता। बाकी किसी को तो कुछ मालूम नहीं था!
दोपहर का खाना स्मिता के कमरे में खाया गया था। दस्तरखान बिछ गया था जैसे। चेन्नई की संगीता वड़े- साँभर बना लाई थी। महाराष्ट्र की पूरन पोली लेकर सुधा आई थी। पूर्णिमा, मधु, सौम्या, सविता, पल्लवी सब थे। दाल- पुलाव, राजमा, आलूदम, खीर, लेमन राइस, गोभी-आलू, टमाटर की मीठी चटनी, अचार, पापड़ और भी जाने क्या-क्या! इतना कुछ कि खाया नहीं चखा गया था और सबका पेट भर गया था।
उस महफ़िल में सिमी नहीं थी। उसने वैशाली के साथ मेस में होली का स्पेशल खाना खाया था।

तब इतना ही वेदिका ने जाना था। शाम ढले स्मिता के कमरे में उसे जाते और रात गए निकलते देखा था। वही वेदिका की उससे आखिरी मुलाक़ात थी। स्मिता तीसरी मंज़िल पर थी। वेदिका ने अपने कमरे के बाहर की बालकनी से हाथ हिलाया था। जवाब स्मिता ने दिया था। उन दोनों ने उसे देखा भी नहीं था।

थकी हारी, कमरे में जो कुछ बचा खुचा था - पावरोटी और दूध खाकर वह जल्द ही सो गई थी। मेस तो रात को बन्द ही था। बीच रात में दो बार नींद टूटी थी। बाहर कुछ शोर- शराबा था। नींद उसकी रूम मेट विभा की भी टूटी थी।
''मेस महाराज ने पी रक्खी है, वही लोग होंगे, हल्ला कर रहे हैं।'' अपने बिस्तर से विभा ने आवाज़ दी थी।
''मुझे भी यही लगता है।'' उसने जवाब दिया था। फिर दोनों ही सो गई थीं।

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