मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


रात के हंगामे का राज अगली सुबह खुला था, जब वे नाश्ते के बाद स्मिता को ढूँढ़ती हुई उसके कमरे में गई थीं। तब सुबह के साढ़े आठ बज रहे थे। स्मिता के चेहरे पर रात्रि जागरण की थकान थी और बहुत सारी उदासी। ''क्या हुआ स्मिता?'' वेदिका ने पूछा था।
''घोड़े बेच कर सोती हैं आप? कुछ पता ही नहीं आपको।''
वह अबूझ-सी उसे देख रही थी।
अभी-अभी सिमी को उसके घर पहुँचा कर लौट रही हूँ। ब्रश भी नहीं किया है।''
''तुम क्यों गईं?''
उसे मेरे सिवा किसी पर विश्वास ही नहीं था। वह तो रात भर पायल बजाती हॉस्टल कारीडोर में घूमती रही है। ग्राउन्ड फ़्लोर पर।''
वेदिका को याद आया, वैशाली ग्राउन्ड फ़्लोर पर रहती है।
''लेकिन क्यों?''
''क्यों क्या! रात होने के साथ ही उसका पागलपन बढ़ने लगा था। शाम को मेरे कमरे में आई तो जाने का नाम न ले। एक छिपकली दिख गई दीवार पर। डंडा लेकर उसके पीछे। इतनी मुश्किल से गई। वैशाली ले गई हाथ पकड़कर, समझा-बुझा कर।''
''हाँ देखा था। तुमने हाथ हिलाया था मुझे। तभी?''
''हाँ। फिर रात गए उसे भ्रम होने लगा कि कोई हॉस्टल गेट के बाहर खड़ा है। पिस्तौल लेकर। उसे मारने के लिए। बस छ्म-छ्म पायल बजाती कारीडोर में एक सिरे से दूसरे सिरे तक घूमना शुरू। पूरा हॉस्टल जाग गया था। मेस के लोग भी। जिस ओर जाती, लड़कियाँ डर के मारे दरवाज़ा बन्द कर लेतीं। फिर दरवाज़े की सूराख से देखतीं। उसका हैलुसिनेशन बढ़ता गया। हॉस्टल की छत पर जा चढ़ी। ''आज कूदकर मर जाना है। मुझे कोई पसंद नहीं करता। सबके लिए बोझ हूँ मैं। घर में सब झेलते हैं मुझे। मेरा रिसर्च गाइड भी मुझे मरवाना चाहता है। मैं खुद ही मर जाऊँगी।''
''बाप रे! फिर कैसे उतारा?''
''वह किसी को करीब आने ही नहीं दे रही थी। मैंने ही हिम्मत की। सीधा उसकी आँखों में देखती, एक-एक कदम आगे बढ़ती, बातें करती, उसके एकदम करीब हो गई। ''जानती हैं वेदिका दी, उसकी आँखों में बच्चों-सा भोलापन था।'' वह चिल्लाती रही, ''डोन्ट टच मी।(छूना मत मुझे) नीचे कूद जाऊँगी।'' वह हॉस्टल की ऊपरवाली छत पर, बालकनी की चारदीवारी के ऊपर चढ़ कर खड़ी थी तब। सारी लड़कियाँ नीचे से दम साधे देख रही थीं। फिर मैंने पूछा, ''यू लव मी''? जाने कैसे उसने मेरी आँखों में देखा, फिर बोली, ''यस।'' ''देन व्हाइ डू यू वान्ट मी टू गेट अरेस्टेड? इफ़ यू डाई देन दे विल ब्लेम मी'' (तो तुम मुझे जेल क्यों भिजवाना चाहती हो? यदि तुम मर गईं तो वे मुझे दोषी ठहराएँगे) मैंने एकदम गम्भीरता से कहा। जाने कैसे बात उसकी समझ में आ गई। एकदम शान्त हो गई। नीचे उतर आई। लेकिन फिर थोड़ी देर बाद प्रलाप शुरू, ''यू नो, टुनाइट इज फ़ुल मून नाइट( तुम जानती हो, आज पूर्णिमा की रात है)। फ़ुल मून डे( पूर्णिमा के दिन) में सिज्रोफ़ेनिया का रोग बढ़ जाता है। मुझे सिज्रोफ़ेनिया है। यू नो?''
अपनी बीमारी के बारे में इतना पढ़ रक्खा है। वह भी उसकी मुसीबत है।
''फिर?''
''फिर क्या। आप तो सोती रहीं। इतने तमाशे किए उसने। इतना शोर मचाया। फ़ोन किया पुलिस को कि बाहर पेड़ के नीचे उसे मारने के लिए कोई खड़ा है। कई बार। पहले तो प्रॉक्टर ऑफ़िस वालों ने ध्यान नहीं दिया। सोचा होगा होली का तमाशा है, लेकिन वह बार-बार फ़ोन करती रही। उसे रोकने की कोशिश करके हम हार गए। पुलिस आई। कोई होता तो दिखता। हमें जवाब देना पड़ा। वैशाली को मानना पड़ा कि वह उसकी गेस्ट है और वह उसे घर पहुँचा देगी।''
''ओ माई गॉड!''
''वह तो घर जाने को तैयार ही नहीं थी। सुबह होते ही ऑटोरिक्शा लेकर प्राक्टर आफ़िस वाले पहुँच गए। मैं उसके साथ गई। उसके घर छोड़कर अभी आ रही हूँ।''

स्मिता बेहद उदास थी। उसके लिए कुछ न कर पाने के एहसास से दुखी। तब भी उसने एक दुर्घटना को घटित होने से रोका था। वरना होस्टल के बरामदे में सिमी की लाश पड़ी मिलती।
वेदिका की साँस रुक गई। इतना कुछ हो गया और उसे कुछ नहीं पता! इतनी साहसी है स्मिता! इतनी भली। पागलों के साथ भी सहज रह सकती है। उन्हें रोक, मना सकती है। अगर वह हॉस्टल की छत से कूद जाती तो!
एक वह है। मुर्दे की तरह सोती है। पूरा हॉस्टल जाग गया था। मेस के लोग निकल आए थे और वह और विभा सोते रहे। महाराज पीकर गा रहा है!

लेकिन वह क्या कर लेती? दर्शकों में ही होती। वह तो स्मिता के सिवा किसी की सुन ही नहीं रही थी। वैशाली की भी नहीं। स्मिता के अन्दर की भली, सुन्दर लड़की को उसने पहचान लिया था, वेदिका की तरह। वह वाकई इन्टेलीजेन्ट है!
फिर धीरे-धीरे करके उसने सिमी के बारे में बहुत कुछ जाना था। उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि - बहुत ही संभ्रान्त परिवार से थी वह। उसकी परेशानियाँ, उसकी कुंठाएँ। उसकी असाधारण मेधा के किस्से सुने थे, लेकिन उसके करीब नहीं जा पाई। वह फिर कभी हॉस्टल आई भी नहीं। अंग्रेज़ी विभाग जाकर उससे मिलना, उसके मन में शक ही पैदा करता। बस, वेदिका की स्मृति का एक कोना चुरा कर बैठ गई वह! उसके बाद कितनी ही होलियाँ खेलीं वेदिका ने। हॉस्टल में, घर पर और फिर यहाँ अमेरिका में। होलिका जलाई। कभी उसे भूल पाई क्या?
वह तो हमेशा से जानती थी कि सिमी जिस यंत्रणा से गुज़र रही थी, उससे बाहर आना उसके वश में नहीं था और उस यंत्रणा की मूक ज्ञाता वह, उससे दूर रहकर भी, उसके दुख की कहीं न कहीं साझीदार हो चुकी है!

सिमी कौशिक ने तो कभी वेदिका को जाना ही नहीं ! जानती तो भी क्या फ़र्क पड़ना था । सिज्रोफ़ेनिया यानी उचाट अकेलापन, अवसाद की पराकाष्ठा।
एक दिन वह भी आया, जब सिमी ने आवेश में वह कर डाला जिससे उस रात स्मिता ने उसे बचा लिया था।

आज, बहुत समय बाद, अमेरिका में अपने तमाम सुविधाओं से युक्त घर में बैठी वेदिका एक बार फिर से बेचैन हो उठी है। क्या वह सिमी कौशिक की माँ को मिल कर जान सकती है कि उन्हें गर्भावस्था के दौरान फ्लू हुआ था या नहीं? यदि यह बीमारी उसे विरासत में न भी मिली तो भी उसे घर पर सहानुभूति और स्नेह पाने का हक तो था?
कई बार औरों की उपेक्षा इनसान को पहले मार डालती है, वास्तव में मरने से पहले।

सिमी कौशिक क्या पता, बहुत पहले ही मर गई थी! बस वेदिका की स्मृति ने उसे आज तक मरने नहीं दिया है और शायद वह स्मिता के लिए भी ज़िन्दा हो!
कुछ स्मृतियों की होली कभी नहीं जलती...!

पृष्ठ : . . .

९ मार्च २००९

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।