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''आप क्या करती हैं?''
''पढ़ाती हूँ।''
''कहाँ?''
''इसी यूनिवर्सिटी में।''
''क्या विषय?''
''ऐन्थ्रोपौलोजी।''
उसने डोरा की ओर इस तरह से देखा जैसे वह कोई बहुत बड़ी हस्ती है।
''आप सच में यहाँ पढ़ाती हैं?''
उसकी आँखों में अभी भी कौतूहल था।
अचानक उसकी आँखों में एक चमक झलकी...
''तो बड़ा होकर क्या मैं भी इस यूनिवर्सिटी में पढ़ सकता हूँ...''
''बिल्कुल
! यहाँ कई काले पढ़ते और पढ़ाते हैं। तुम भी मेहनत करो तो यहाँ आ सकोगे।''
''हाँ मेरी माँ भी मुझे कहती रहती है कि मुझे सिर्फ़ पढ़ने में मन लगाना चाहिए। गली के लड़कों के साथ खेलना नहीं चाहिए।''
'तो तुम माँ का कहना मानते हो न!''
''मानता हूँ, मानता हूँ। बिल्कुल मानता हूँ।''
''तुम स्टोर में क्या कर रहे थे?''
''वह तो स्कूल से छुट्टी के बाद हम कुछ पैसा कमाने के लिए जाते हैं। किसी की मदद हो जाती है, हम कुछ पैसा कमा लेते हैं। वह कैशियर लड़की हमारी ही गली में रहती है। हम कुछ गलत काम नहीं करते।''
''तुम रहते कहाँ हो?''
''नीचे, हारलम में।''
''हूँ।''

डोरा पहली बार नीचे से आनेवाले किसी लड़के से मिली थी। वर्ना अब तक यही सुनती रहती थी कि इस इलाके में बड़ा सावधान होकर रहना चाहिए। एक बार उसका पर्स भूल से सड़क पर खड़ी उसकी गाड़ी में ही रह गया था सो रातोंरात कोई गाड़ी का शीशा तोड़ कर पर्स निकाल कर ले गया। पर वह किसी को दोष देने के बजाय खुद को ही कोसती रही कि गलती तो उसी की थी। कौन भला गाड़ी में पर्स देखकर लुब्ध नहीं होगा। दरअसल वह उदारमना, संवेदनशील, और लिबरल किस्म की महिला थी जो मानव अधिकारों के कई मुद्दों के लिए लड़ चुकी थी। इसी सिलसिले में वह अफ्रीका और भारत पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुकी थी। यों भी भारत पाकिस्तान जैसे देशों से उसका एक तरह से पुश्तैनी संबंध था।

लेकिन न्यूयार्क के इस इलाके की भी अजीब विडंबनामयी स्थिति थी। जैसे कि अकसर शहरों में होता है कि अमीरों की बस्ती के आसपास ही झुग्गी झोपड़ियों का इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। न्यूयार्क के इस हिस्से का विकास इस नज़रिये से काफी दिलचस्प और कुछ अपने ढंग का ही है जिसमें हारलम और अभिजात वर्ग का एक उच्चतम शिक्षण संस्थान, दोनों की ही सीमाएँ शामिल हैं, दोनों ही एक साथ फलते-फूलते फैलते हैं।

यहाँ की इस सबसे अभिजात यूनिवर्सिटी और झुग्गी बस्ती को बाँटनेवाली पूर्व की ओर एक बड़ी-सी चट्टान है यानी कि जैसे कि होना चाहिए चट्टान के ऊपर तो यूनिवर्सिटी बनी है जहाँ गोरे अमरीकियों की एक श्रेष्ठ बस्ती है और चट्टान के नीचे जहाँ गरीबी और अभाव में पलती कालों की बस्ती है या कि आजकल जिन्हें एशियाइयों के तौल में अफ्रीकी मूल के निवासी कहलाना ज़्यादा सम्मानजनक लगता है। चट्टान के नीचे भी एक पार्क बना है जो ऊँचाई के साथ-साथ धरातल पर भी दोनों बस्तियों की दूरी कुछ और चौड़ी कर देता है। दरअसल जहाँ चट्टान शुरू होती है वहीं से पार्क शुरू हो जाता है। यों तो पार्क में सीढ़ियाँ भी बनी हैं जो पार्क को कई धरातलों में बाँटती हुई सबसे नीचे के पार्क के धरातल पर ले जाती हैं। यही सीढ़ियाँ नीचेवालों को ऊपर ला सकती है। ऊपर से नीचे जाने से तो लोगबाग डर जाते हैं पर नीचे से ऊपर आनेवालों को रोक पाना अकसर मुश्किल हो जाता है। क्यों कि हिमालय जैसी ऊँची भी नहीं हैं चट्टान कि उसे पार ही करना बड़ा साहस का काम हो। मुश्किल से दो तीन सौ फीट के करीब होगी। इसलिए काफी देर तर लोहे की कंटीली तारें लगाकर यह सीढ़ियाँ बंद भी कर दी गई थीं पर तारों को हटा लेनेवाले भी काफी ताकतवर हैं सो जल्दी ही रास्ता बना कर वे चले ही आते थे।

सो यह फैसला किया गया कि तारों का लाभ तो है ही नहीं सो इनको हटा ही देते हैं। यों भी यह यूनिवर्सिटी ज़्यादातर उदारमना बुद्धिजीवियों की ही मानी जाती थी। जो बिला वजह किसी नागरिक की आवाजाही पर रोक नहीं लगाना चाहते थे। मूलतः वे मानव समभाव में विश्वास रखनेवाले लोग थे लेकिन जब अपनी सुरक्षा का सवाल उठता है तो मन का डोल जाना भी स्वाभाविक है। तो यह भी चट्टान के ऊपरवालों की मैनेजमेंट का ही निर्णय होता था कि तारें हटाई जाएँ या और मज़बूत से लगाई जाएँ और ऊपरवालों के मूड के हिसाब से ही परिवर्तन होता रहता था। यानि कि अगर ऊपरवाली मैनेजमेंट में डर की जगह मानव समभाव जाग गया तो वे कुछ नरम पड़ जाते और तारें मज़बूत करने की परवाह नहीं करते। फिर जब कोई छोटा मोटा हमला या हादसा हो जाता तो वे ऊपरवालों की सुरक्षा के लिए कमर कस कर डट जाते। यानि कि डर सर्वोपरि हो जाता। बस ऐसे ही चलता रहता, कभी नरम तो कभी गरम।

लड़का इमारत के बाहरवाले दरवाज़े पर ही रुक गया। शायद उसे कुछ अहसास होगा कि वह अनधिकृत इलाके में प्रवेश कर रहा है। दोनों लड़कों ने थैले नीचे रख दिए। डोरा को लगा कि उसे अंदर तक ले जाने में भी मुश्किल होगी। उसने स्नेह पूर्वक उन लड़कों की ओर देखा। कहा, ''अंदर चलो न। यहाँ क्यों रख दिए थैले?''
दोनों बिना कुछ सवाल पूछे आज्ञा का पालन करते हुए उसके पीछे-पीछे आए और डोरा ने सामान रसोई में रखवा लिया। लड़के ने अपार्टमेंट की दीवारों पर लगी शेर और चीते की खाल को हैरानी से देखते हुए पूछा, ''क्या यह रियल है?''
''हाँ।''
''मैं इसे छू सकता हूँ?''
उसने जैसे डरते-डरते छुआ। आँखें कौतूहल और अचंभे से चमक रही थीं।
''कहाँ से आईं?''
''इंडिया से।''
''आप इंडिया गई थीं।''
''मैं भी वहाँ रहती थी। जब बहुत छोटी थी। बाद में रिसर्च के लिए गई थी। लेकिन ये मेरे नाना ने दी थीं। वे इंडिया में डिपलोमैट थे।''
''तो इंडिया में शेर होते हैं।''
''हाँ शेर, चीते, गेंडे, साँप सभी तरह के जानवर होते हैं।''
''अफ्रीका जैसे!''
''हाँ लेकिन वहाँ से कम।''
''उसे वह लड़का बहुत सहज-सा, बच्चा-सा लगा।''
सहसा उसे ध्यान आया कि लड़के चढ़ाई पर सामान उठाकर लाए हैं, प्यासे होंगे। पूछ लिया,
''जूस पिओगे?''
लड़के ने साथी की ओर देख कर कहा,
''पिएँगे। थैंक्यू।''
''मेरा नाम डोरा है, तुम्हारे नाम क्या है?''
''मैं जैस्सी और ये रौनी।''
जब वे ज्यूस पी रहे थे, तभी डोरा को जैसे अचानक ख़याल आया-
''सुनो तुम काम करना चाहते हो न?''
''हाँ बिल्कुल। कोई काम दे सकती है आप मुझे?''
''सफ़ाई करना जानते हो?''
''मेरी माँ कभी-कभी मुझसे घर के काम करवाती है। झाडू भी, कपड़े और बर्तन भी मशीन में डालता हूँ।''
''बहुत अच्छे। तो मेरे घर की सफाई कर पाओगे।''
''आप जो जो कहेंगी, करूँगा।''
''ठीक है। शुक्रवार दोपहर ३ बजे आ जाओ। आ सकोगे!''
''ठीक है।''
''डोरा ने दोनों को उनकी अपेक्षा से कहीं ज़्यादा टिप दी और वह खूब खुश उछलते-उछलते सीढ़ियों से नीचे उतर घर लौटे।''

उनके जाने के बाद डोरा के मन में ज़रा-सा खटका ज़रूर हुआ। क्या ठीक किया उसने? वह तो इन लड़कों को जानती नहीं। अगर कुछ चोरी-वोरी कर ली तो? शाम को साथी घर आए तो ज़िक्र किया। पहले तो हैरी का माथा भी ठनका। बोले, ''अपने सामने सफाई करवाना। चोरी चकारी कैसे होगी।''
शुक्रवार पुरे तीन बजे घंटी बज गई। तो लड़का भरोसे लायक है। देखें काम कैसा करता है। वह अकेला ही आया था। बहुत उत्साहित था जैसे कि नई नौकरी लगने पर कोई हो सकता है।
''बताइए कहाँ से शुरू करूँ?''
''ये लो। पहले झाड़-पोंछ कर लो, फिर झाडू और उसके बाद ये कपड़े नीचे ले जाकर लांड्री मशीन में डाल देना।''

वह एक के बाद एक पूरा मन लगा कर हर काम करता रहा। काउंटर पर दो जगह रेड वाईन के दाग लग गए थे। उसने खूब रगड़-रगड़ कर दाग एकदम मिटा दिए। डोरा ने उसे कपड़े धोने की मशीन के लिए सिक्के दिए और वह कपड़ों की गठरी और साबुन लेकर बेसमेंट में धोने चला गया।
थोड़ी देर में ऊपर आया तो परेशान-सा, लगभग हांफ रहा था। डोरा घबरा गई। पूछा, ''क्या हुआ?''
वह हाँफता-हाँफता बोला, ''एक एशियन लेडी मुझ से पूछ रही थी कि मैं कौन हूँ। बिल्डिंग में कैसे आया। मैंने कहा कि मैं आपके अपार्टमेंट में काम कर रहा हूँ। पर उसको विश्वास ही नहीं हुआ। कहने लगी कि वह आपसे पूछेंगी। वह आएगी आपसे पूछने।''
''तो क्या हुआ। पूछेगी तो बता देंगे। तुम क्यों इतना घबराए हुए हो।''
''वह मुझको डांट रही थी जैसे कि मैं कोई ऐसा वैसा हूँ। जैसे कि चोरी करने आया हूँ।''
''वट नानसेंस। तुम फ़िक्र मत करो मैं उसको समझा दूँगी।''

उसने जल्दी से बाकी का काम खत्म किया। डोरा ने पैसे चुकाए और उसे अगले शुक्रवार को आने को कहा।
थोड़ी देर बाद किसी ने डोरा का दरवाजा खटखटाया। नीचे के तले पर रहनेवाली भारतीय पड़ोसन थी। उसे देखते ही अंदाज़ तो हो गया था कि क्या बात करनेवाली है। फिर भी बहुत विनम्रता से पूछा, ''क्या कर सकती हूँ आपके लिए?''
वह जैसे भरी हुई-सी थी। छूटते ही बोली, ''उस काले लड़के को आपने अंदर बुलाया था?''
''जी हाँ।''
''क्या आप उसे जानती हैं?''
''हाँ, स्टोर में मिला था।''
''स्टोर में मिला और आपने उसे घर में काम पर रख लिया!''
''ऐसी बात नहीं। वह हाईस्कूल में पढ़ता है। बड़ा ईमानदार लड़का है। बहुत विनम्र, काम पसंद करनेवाला और सभ्य।''
''स्टोर से उठाए लड़के के बारे में आप ऐसे बोल रही हैं जैसे कि अरसे से जानती हो। मैं जानती हूँ, इनका न तो कोई ठौर-ठिकाना होता है, न कोई वैल्यूज़। माँ बाप खुद ड्रग्ज़ और शराब में पड़े रहते हैं तो बच्चों को क्या सिखाएँगे। तभी आए दिन इतने अपराध करते हैं ये लोग। जेलें भरी पड़ी हैं इनसे। देखिए आप खुद को तो ख़तरे में डाल ही रही है, हम सब को भी ख़तरे से एक्सपोज़ कर रही है। कल को यह किसी के घर में घुस कर चोरी करने लगा या किसी पर हमला कर दिया तो आप क्या कर लेंगी। ये टीनएजर ही तो ऐसी ख़ुराफ़ातें करते हैं। आपको इसे बिल्डिंग में नहीं घुसाना चाहिए।
''ठीक है।''
पर वह भारतीय महिला उसके छोटे से जवाब से और भी असंतुष्ट हो गई। शायद डोरा के चेहरे से उसे लगा उसकी बात का कोई असर डोरा पर नहीं हो रहा है।
वह भारतीय महिला और ज़ोर देकर बोली, ''आपको क्या याद नहीं कि दो महीने पहले कैसे प्रोफ़ेसर पोलक पर हमला हुआ था।
''ओह हाँ। यह सच्ची बात कही थी उस भारतीय महिला ने।''
''शायद इसीलिए वह इस तरह पैनिक कर रही थी। अभी उस दिन की तो बात थी। इसी इमारत के एक प्रोफ़ेसर स्टोर से थैले उठाए घर चले आ रहे थे। बस दो चट्टान के नीचे से आनेवाले छोकरे उनके पीछे लग लिए। इतिहास के प्रोफ़ेसर अपनी दुनिया में खोए-खोए से खरामा-खर्रामा चले आ रहे थे। उसी धुन में इमारत के अंदर चल दिए। छोकरे पीछे-पीछे। छोकरे तो खामोश थे ही क्यों कि वार की ताक में थे, प्रोफ़ेसर साहब इतिहास की किसी उधेड़बुन में। अपार्टमेंट के बाहर पहुँचकर जेब से चाबी निकाली तो एक छोकरे ने आसपास किसी को न पा, मुँह पर घूँसा दे मारा। खटाक से दोनों ग्रोसरी के थैले एक ने उठाए, दूसरे ने पैंट की पीछे की पाकेट से बटुआ निकाला और मिनटों में इमारत से बाहर आ सीढ़ियों के रास्ते से पार्क में गायब।

पार्क भी तो खूब घना था। इसीलिए ज़्यादातर ये चोरी चकारी गर्मियों में होती थी क्यों कि सर्दियों में एक तो पेड़ नंगे हो जाते हैं सो परदा नहीं रहता। दूसरे बर्फ़ गिरी हो तो भागने में भी न तो तेज़ी रहती है, गिरने का खतरा अलग सो पुलिस तो बहुत जल्द काबू में कर सकती है। गर्मियों में बाहर मौसम सुहावना होता है तो तफरीह के लिए बाहर निकलना ही होता है या जब गर्मी लगती है तो ख़ुराफ़ातों के लिए भी मन मचलता है और एक बार मन मौज में आ गया तो फिर जिसकी भी शामत आ जाए! हाँ तो वह इतिहासविद् नाक पर घूँसा खाकर संतुलन खो बैठा और अपने दरवाज़े के बाहर ही फ़र्श पर लमलेट हो गया। कुछ देर बाद होश आया तो लड़के गायब हो चुके थे। उसने तो उनको देखा तक नहीं था। इतना अचानक हुआ था यह सब। अब पुलिस को क्या और कैसे शिकायत की जाए। वैसे इतना उसको अंदाज़ था या कि सिक्स्थ सेंस थी कि वे काले छोकरे थे सो जाहिर है कि नीचे से ही आए होंगे। यानी कि नीचेवालों की आमदरफ़्ती पर और रोक लगाई जानी चाहिए। जहाँ-जहाँ चट्टान का मुँह खुलता था, वहाँ वहाँ पुलिस तैनात कर दी गई, ख़ास तौर से जहाँ कि यूनिवर्सिटी के महत्वपूर्ण लोगों के घर थे। अगले दिन हर इमारत के प्रमुख स्थानों और दरवाज़ों पर यह नोटिस चिपका हुआ था।
''सावधान''

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