रात के
साढ़े आठ बजे थे। पत्नी शशि भाटिया किचन में डिशवाशर में जूठे
बर्तन धुलने के लिए डालकर अपने बेड-रूम में जा चुकी थीं, और
पलंग पर लेटी टेलीविजन पर 'ऑल इन द फैमिली' प्रोग्राम का आनंद
ले रही थीं। भाटिया जी कुछ देर डिशवाशर के भीतर बर्तनों का
हिलना-टकराना अपने भीतर महसूस करते हुए अपनी टाई ढीली करते
रहे। फिर लम्बे डग भरते हुए बेड-रूम की तरफ़ लपके, हालाँकि
बेड-रूम इतनी दूर नहीं था कि वह वहाँ तक जाने के लिए बड़े-बड़े
कदम लेने पड़ते।
''तुम ने सुना?''
''हाँ।''
''और तुम खामोश हो जैसे कुछ हुआ ही नहीं?''
''तो क्या कर सकती हूँ? वह बच्ची नहीं है।''
''पर मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता। अगर यह हुआ तो मेरा उसका
रिश्ता ख़त्म।''
शशि 'ऑल इन द फैमिली' देखती रहीं। भाटिया जी 'ऑल इन द फैमिली'
के पात्र आर्ची बंकर की तरह कमरे में चक्कर लगाते रहे। बीच-बीच
में रुकते, रिक्लाइनल पर बैठते, खड़े होते और बोलते जाते।
''कई दिनों से देख रहा था खाने से पहले आरती करते हुए आँखे बंद
रखती है। सोचता रहा प्रार्थना कर रही है। अब पता चला कि
यशुमसीह का ध्यान किया जा रहा है।''
''सोचता था, अच्छे ग्रेड ले रही है। कॉलेज में दूसरे साल में
है। किसी दिन डॉक्टर बनेगी मेरी इकलौती, बेटी।...
''एक दो बार मुझे लगा था कि छाती पर क्रास का सा चिन्ह बना रही
है।''
''मैं आरतियाँ करवाता रहा। मंदिर ले जाता रहा। गायत्री मंत्र
का पाठ कराता रहा। सब बेकार।''
''सोच रहा था ग्रेजुएशन कर लेगी तो सत्यनारायण की कथा करवाऊँगा।
सब खत्म।''
''मैं भी सोचूँ कि इतवार को सुबह-सुबह तैयार हो कर कहाँ जाती
है। ...चर्च। संडे मास।''
शशि सुनती रहीं। जानती थीं कि यह
सब उन्हें सुनाया जा रहा है। जब बोले बगैर नहीं रहा गया तो कह
दिया, ''ठंडे रहो और सो जाओ।''
भाटिया जी तो मानों शशि के बोलने की प्रतीक्षा में थे। ''कैसे
ठंडा रहूँ? तुम उसकी माँ हो।''
शशि उठीं और बैठक की ओर चल दीं। जा कर टेलीविजन खोला, और लगा
लिया 'ऑल इन द फैमिली।'
भाटिया जी बुड़बुड़ाते रहे। ''एक दिन कह रही थी, कभी किसी
सूँडवाले के आगे सिर झुकाने को कहते हो, कभी किसी बंदर के आगे।
कभी किसी शेरों पर बैठी औरत के आगे। कितने तो हाथ होते हैं
उनके। हिंदू गॉड्स तो गुड्डा-गुड़िया के खिलौने लगते हैं। मुझे
उसी दिन सतर्क हो जाना चाहिए था।
भाटिया जी जब से वह अमेरिका
आए थे, वह देखते रहे थे कि स्कूल-कॉलेजों में बहुत खुलापन है।
बड़ों का कोई लिहाज नहीं है। लड़के-लड़कियाँ बेशर्मी से चुबुन
आलिंगन करते रहते हैं। इसलिए सोचते रहे थे कि माँ-बाप को हर
वक्त आँख कान खुले रखने की ज़रूरत है। अगर उन्हें पता चलता कि
अमुक की बेटी या बेटा किसी ग़लत, अवांछित सोहबत में है तो वह
उसका दोष माँ-बाप को ही देते। और जब से देव डेविड हुआ था वह
अतिरिक्त सावधान हो गये थे। पत्नी से कह दिया – बहुत सतर्क
रहने की ज़रूरत है। नमिता को मंदिर पहले से ज़्यादा ले जाने
लगे, घर में आए-दिन सत्संग कराने लगे। सोचते रहे जड़ें मज़बूत
होंगी तो भटकने का डर नहीं रहेगा। पर क्या पता था इधर वह घर
माता के जागरण कराते रहे, उधर बेटी ईसाईयत की तरफ़ झुकती चली
गई।
लौटते हुए कार मंदिर की तरफ़
मुड़ गई। शायद सोच रहे थे कि रुक कर गणेश जी के आगे प्रार्थना
कर लें कि बेटी को सुबुद्धि दो। पर वहाँ पंडित ओंकार को देख कर
मन विचलित हो गया। पंडित जी ने प्रणाम किया, लेकिन भाटिया जी
भरे बैठे थे, ''क्या उल्टा-पुल्टा संस्कृत में हमारे बच्चों को
बताते रहते हैं ओंकार जी? उन्हें कुछ समझ तो आता नहीं, वह अपनी
कल्चर से कटते जा रहे हैं।”
पंडित ओंकार नाथ ने संध्या की
आरती की समाप्ति की थी। प्रसाद बाँट रहे थे। वह भाटिया जी का
चेहरा देखते रह गए। दो दिन पहले तक तो भलेचंगे थे। कह रहे थे -
श्लोकों और कर्मकांडों की व्याख्या जिस निष्ठा के साथ आप करते
हैं उससे मन में श्रद्धा बढ़ती है। भारत में भी आप से अधिक
योग्य शायद ही कोई पंडित हो! आज एकाएक क्या हो गया। पूछा,
''क्या बात है भाटिया जी, सब ठीक तो है?''
''क्या ठीक है? व्याख्याओं के 'साइड-इफैक्टस' हो रहे हैं।
नमिता कहती है हिंदू धर्म अपने गॉड के बारे में ही क्लिअर नहीं
है। करोड़ो हैं। और जीसस! एक है। और वह 'सन ऑफ गॉड है। आज की
बिज़ी लाईफ मेरे पास इतने परमात्माओं के लिए समय नहीं है। चर्च
वालों की बात समझ आती है। पर आपकी? कुछ समझ नहीं आती। है कोई
आपके पास इसका जवाब? ''
ओंकार जी बोले, ''समस्या यह है कि हिंदू धर्म को समझना और
समझाना बड़ा कठिन काम है, इसे समझने में समय लगता है।''
''कितना समय...?'' भाटिया जी चालू रहे, ''जब वह ईसाई बन जाएगी
उसके बाद समझ आएगा उसे।''
ओंकार जी ने भाटिया जी को प्रसाद देते हुए कहा, ''ऐसी चिंता की
कोई बात नहीं है। उसे मेरे पास भेजियेगा...''
भाटिया जी ने बेमन से प्रसाद ग्रहण किया। पर चेहरे पर वही
क्रोध। बोले, ''कुछ फ़ायदा नहीं है मंदिरों-वंदिरों का।'' वह
अचानक मुड़े। ओंकार जी पुकारते रहे - ''भाटिया जी, भाटिया जी,
इसका उपाय है...।'' लेकिन भाटिया जी यह जा वह जा, कार स्टार्ट
की, और कसम खाई कि अब कभी मंदिर का मुँह नहीं करेंगे।
वह मंदिर से अभी कुछेक मील ही
दूर आए थे कि उन्हें पंडित ओंकार जी का ख़याल आ गया। कह रहे थे
–''इसका उपाय है।''
''क्या उपाय है? गणपति की पूजा करने के लिए कहेंगे और क्या! या
कहेंगे नक्षत्र पूजा कराओ। पंडितों के पास पूजाओं और पाठों के
अलावा और उपाय कौन सा हो सकता है? कितनी पूजाएँ पहले भी कराई
हैं। अमेरिका आए और जब मरसीडीज़ ली, तब पूजा करवाई, नारियल
फोड़ा। जब मकान ख़रीदा, जब गृहप्रवेश किया, दोनों बार पूजा
करवाई, अपना मकान बनवाया तो मकान का नक्शा बनवाते और नींव
रखवाते हुए वास्तुशास्त्र का पालन किया। जब नौकरी के लिए
इंटरव्यू दी, जब अपना बिज़नस खोला, जब मुकदमा लड़ा, जब नमिता
को स्कूल भेजा, इतनी पूजाएँ कराई। सोचने लगे, शायद ज़रूरत से
ज़्यादा पूजाएँ हो गईं, इसीलिए यह बंटाढार हो गया। व्याख्याओं
ने नमिता को असमंजस में डाल दिया।
लेकिन अच्छा भी तो हुआ।
भाटिया जी के पास बड़ा मकान है शहर के सबसे शानदार इलाके
पोटॉमेक में। छह तो बाथ-रूम ही हैं।
नमिता के क्रिश्चियन बनने में भाटिया जी को अपनी अब तक की
उपलब्धियाँ बेमानी लग रही थीं। उन्हें नमिता के निर्णय में
अपने जीवन की पराजय महसूस हो रही थी। अपने जीवन की ही नहीं,
अपनी समस्त संस्कृति की पराजय, भारत की पराजय।
क्या वह अमेरिका इसीलिए आए थे? उनके बाद हिंदी बोलनेवाला कोई
नहीं। नमिता तो अंग्रेजी ही अधिक बोलती है। वह नमिता से नैंसी
हो गई तो? अब धर्म भी गया। भारत में होते तो धर्म-परिवर्तन के
खिलाफ़ मोर्चा लेते, पर यहाँ...?
भाटिया जी को लगा यह सारी
गड़बड़ इसलिए हो रही है कि हमारे पंडितों का व्यक्तित्व भव्य
नहीं है। पादरियों के पहनावे से लगता है कि पढ़े-लिखे
सुसंस्कृत शालीन व्यक्ति हैं। और ओंकार जी! गोल-मोल चेहरा, सिर
में चोटी, शरीर पर कुर्ता-पजामा और बंडी, या फिर कुछ भी नहीं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक है, कहते हैं संस्कृत की
परीक्षा अंग्रेज़ी में दी थी। कोरी गप्प। लेकिन अंग्रेज़ी बोल
तो लेते हैं। अमेरिकी और भारतीय धर्म संबंधी कानून की
बारीकियों की शुदबुद भी है। मैरिज–रजिस्टरार से कुछ मित्रता भी
हो गई है। देखने में कभी लगता है कि पंडित है, कभी लगता नहीं
हैं। बहुत रहस्यमय व्यक्तित्व है। धर्म की तरह ही रहस्यपूर्ण।
मंदिर ने स्पॉंसर किया या टूरिस्ट वीज़ा पर हैं किसी को कुछ
मालूम नहीं। यह मामला गुप्त ही है। टॉप सीक्रेट। धर्म के नाम
पर अमेरिकी वीज़ा मिलना अपेक्षतया आसान है, शायद उसी का फ़ायदा
उठाया है। हिदायत है कि जब तक ग्रीन कार्ड हाथ में न आ जाए,
बात बाहर न निकले, भारतीयों का कोई भरोसा नहीं, कौन जाने कोई
अड़ंगा डाल दे! |