हम दोनों अक्सर फ़ीस के उन
बचे हुए पैसों से कभी तरह-तरह की किताबें, चित्रकथा, नुक्कड़
नाटक, सिनेमा आदि के टिकट ख़रीद लेते तो कभी ज़रूरतमंदों,
गरीब-गुरबों की सहायता कर देते। स्वभाव से परिश्रमी और
स्वावलंबी होने के कारण जेब खर्च की दिक्क़त हमें कभी नहीं
रही। हमारे हाथ में शायद यश की लकीरें थीं। स्थानीय रेडियो,
प्रदर्शनी, पत्र-पत्रिकाओं आदि में ज़रूरत पर काम करने के लिए
हमने अपने छोटे-मोटे संपर्क बचपन से बना रखे थे।
बीच-बीच में हमारे जीवन में
बहुत सारे बदलाव आए। निरंजन हायर सेकेंड्री के बाद अपने पिता
के व्यापार में लग गया। आगे चल कर उसने कपड़ों की फैक्ट्री के
साथ पुस्तकों के प्रकाशन का काम शुरू कर दिया। इस बीच उसकी शादी हो गई पर
हमारी मित्रता ज्यों की त्यों बनी रही। वह जब भी मिलता तो अपने
कारोबार के बारे में बताता कि व्यापार में क्या-क्या मुश्किलें
आती हैं और कैसे-कैसे अपने ज़मीर को दबाना पड़ता है। मैं भी
दुनिया के रंग-ढंग को खुली आँखों देखता-समझता बेचैन होता और
अपनी बेचैनियों को कलम से काग़ज़ पर उतारता। निरंजन जीवन से
समझौते करते, अपना व्यापार आगे बढ़ाता रहा।
इधर मैं साहित्यिक
पत्र-पत्रिकाओं में अपनी बेचैनियों को रचनाओं में ढाल कर
प्रकाशित कराता रहा। धीरे-धीरे साहित्य जगत में मेरी पैठ बनने
लगी। इस बीच मैं दो-तीन बार विश्व हिंदी सम्मेलन और योरोपीयन
लैंगुएज सेमिनार आदि में शोध-पत्र आदि पढ़ने के सिलसिले में
विदेश-यात्रा कर आया, साथ ही कई विदेशी साहित्यिक संस्थाओं
अकादमियों आदि की फ़ेलोशिप भी ले आया। निरंजन शहर के नामी
व्यापारियों के लिस्ट में आ गया। वह भी अक्सर व्यापार के
सिलसिले में देश-विदेश जाता और मल्टीनेशनल कंपनियों को माल
सप्लाई करता। हम-दोनों एक-दूसरे की तरक़्क़ी पर खुश होते।
निरंजन और उसकी पत्नी मेरे लेखों और मेरी कहानियों में बड़ी
रुचि लेते है और पढ़ कर मुझे अपनी प्रतिक्रिया भी देते।
धीरे-धीरे मैं हिंदी का एक प्रतिष्ठित लेखक और संपादक बन गया।
मेरा मान सम्मान दिनों-दिन समाज में बढ़ता रहा। निरंजन मेरी
प्रगति से वाक़िफ़ था। व्यापार के साथ उसे नुक्कड़ नाटक में अभी
भी रुचि थी। कभी-कभी मेरा लिखा कोई नाटक उसे पसंद आ जाता तो वह
उसे स्पांसर भी कर देता और अगर कोई किरदार उसे पसंद आ जाता तो
वह रंगमंच पर भी उतर आता। साहित्य अकादमी में खेले गए मेरे कई
नाटकों को उसी के किरदारों ने जनप्रिय बनाया। मेरी किताबों के
प्रकाशन, लोकार्पण और चर्चा वगैरह में वह बड़ी रुचि लेता।
मेरा अधिकतर समय लिखने-लिखाने,
साहित्यिक गोष्ठियों और चर्चाओं में व्यतीत होता। इसलिए
साहित्यिक कार्यक्रमों को छोड़कर बाकी अन्य सामाजिक कार्यों और
शादी-ब्याह के उत्सवों में ज़्यादातर मेरी बेटी और पत्नी मेरा
प्रतिनिधित्व कर देतीं। मैं जहाँ ज़रूरी होता वहीं आता-जाता।
उस दिन निरंजन ने अपने लॉन
में एक प्रीतिभोज आयोजित किया
था। उसने मुझे भी निमंत्रित किया। बचपन की दोस्ती निभाने मुझे
वहाँ जाना ही था, यद्यपि मैं व्यस्त था। अगले महीने पंद्रह-बीस
दिनों के लिए मुझे विदेश यात्रा पर जाना था। ढेरो ऑफीशियल
कामों के साथ अपने अधूरे लेखन को भी पूरा कर, संपादन भी करना
थी। इसलिए उत्सव में हाज़िरी लगा, निरंजन को बधाई देकर, मैं
जल्दी ही घर वापस आना चाह रहा था। वहाँ पहुँच कर मैं अभी
इधर-उधर निरंजन या किसी परिचित चेहरे की तलाश कर ही रहा था कि
देखा एक अच्छी कद-काठी और सुदर्शन, हम-उम्र व्यक्तित्व
थ्री-पीस बारीक धारियों वाला सूट-बूट पहने, फर्र-फर्र अँग्रेज़ी में
देश-विदेश की राजनीति पर कुछ लोगों से बहस करता हुआ अपने ही
देश के पिछड़ेपन और गरीबी को कोसता हुआ पश्चिमी देशों की
तारीफ़ों के पुल बाँधे जा रहा था। मैं वहीं खड़ा उसकी
नकारात्मक बातें सुनते हुए उस पर कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त
करने जा ही रहा था, तभी निरंजन उधर से गुज़रा, और मुझे देखकर
बोला ''अरे! जीवा तू यहाँ खड़ा है चल तेरा परिचय इस जंबूरे से
करवा दूँ।'' उसने मेरे कान में कहा।
''हाय! ऐश'' निरंजन ने वहीं से हाथ हिलाते हुए उस थ्री-पीस सूट
को पुकारा, वह अपनी बात अधूरी छोड़, पूँछ हिलाता,
आस-पास खड़े लोगों पर मुस्कराहट फेंकते, गर्दन अकड़ाए, तेज़
कदमों से निरंजन के पास आते हुए अंग्रेज़ी में जारी रही, ''यस सर,
अभी आया, मैं आप ही को ढूंढ रहा था सर। थैंक्स मुझे आमंत्रित
करने के लिए।''
''ओ या'' कहते हुए निरंजन ने उससे मेरा परिचय कराया ''जीवन
से मिलो, प्रसिद्ध लेखक। बहुत सी किताबें लिखी हैं इन्होंने।'' फिर मेरा
कंधा थपथपाते हुए वह अतिथि-सत्कार की परंपरा निभाने अपने
सेवकों के झुंड के साथ आगे बढ़ गया।
''लेखक और वह भी प्रसिद्ध लेखक, क्या बात है।''
लगातार अंग्रेज़ी बोलते हुए वह
व्यक्ति मेरी ओर मुड़ा और आश्चर्य-मिश्रित कौतूहल और सम्मान से
मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए बोला, ''बहुत अच्छा बात है सर,
आपसे मिलकर ख़ुशी हुई, वैसे आप लिखते क्या हैं सर?
मुझे भी लिखना पढ़ना पसंद है।''
''जी, मैं हिंदी में कहानियाँ और उपन्यास लिखता हूँ।''
मैंने
हिंदी में जवाब दिया। मुझे उसकी नाटकीय अँग्रेज़ी और
अँग्रेज़ीपन से खुंदक तो हुई पर मैंने उसको प्रभावित करने की
कोई कोशिश नहीं की।
''क्या!'' आँखें फाड़ते, जैसे मेरी कमअक़्ली
पर तरस खाते हुए उसने कहा, ''आज के युग में, आप हिंदी में
लिखते हैं। क्या बेवकूफ़ी है।'' उसके
स्वर में हिक़ारत थी, ''हिंदी किताबें पढ़ता ही कौन है। आपको
इंग्लिश में लिखना चाहिए।'' उसने शान से आगे जोड़ा।
''क्यों? मेरा लिखा सारा भारत पढ़ता है, देश-विदेश में फैले
भारतवासी पढ़ते हैं। सिर्फ़ आप जैसे मुट्ठीभर अँग्रेज़ी के
गुलाम नहीं पढ़ते होंगे। अन्य भाषा-भाषी जो मुझे पढ़ना चाहते
है वे उसका अनुवाद पढ़ते हैं। मैं अपनी मातृभाषा में ही लिखना
पसंद करता हूँ और उसी में सहजता अनुभव करता हूँ, क्योंकि वह
मेरे ह्रदय की भाषा है।'' मैंने अपने ग़ुस्से को
मन-ही-मन चबाते हुए उत्तर दिया।
वह व्यंग्य से मुस्कराया, और गर्व से ऐंठते हुए बोला, 'ठीक
हैं, अगर तुम अँग्रेज़ी में लिखते तो मेरे साथ सारी दुनिया
तुम्हें पढ़ती। ऐनीटा डेसाई को देखो ऐरुंडटी रॉय को देखो कितनी
कम उम्र में उन्हें बुकर्स पुरस्कार मिल गया।'' उसने अपने टाई की गाँठ को दाहिने हाथ से हिलाते हुए
दर्प से गर्दन उठा कर, किसी विजयेता की तरह चारों-ओर देखा और
ठठा कर व्यंग्यात्मक हँसी हँसा।
मैं उस कार्टून को कुछ तीखा,
तबियत झक करनेवाला जवाब देने ही वाला था कि मैंने देखा निरंजन
दो सेवकों के साथ शाकाहारी और माँसाहारी अल्पाहार, फलों के रस
के साथ मदिरा के गिलास लेकर खड़ा हमारी बातें ध्यान से सुन रहा
है।
''यार! तुम लोग यहीं खड़े-खड़े बहस करते रहोगे या कुछ खाओ-पीयोगे
भी।'' कहते हुए निरंजन ने हम दोनों के हाथ में हमारे रुचि के
अनुकूल एक-एक गिलास पकड़ा दिया।
मैं ऐश की बेहूदगी, उद्दंडता और मूर्खता का करारा, चुभता हुआ,
तेज़-तर्रार जवाब देना चाहता था। पर अपने मित्र निरंजन के
उत्सव में आए उसके अतिथि से झगड़ा कर, खुशी के माहौल में तनाव
नहीं पैदा करना चाह रहा था इसलिए चुप रहा। निश्चय ही अंदर-अंदर
मैं आहत और अपमानित महसूस कर रहा था। फिर भी खुद को संयत करते
हुए एक हाथ से गिलास पकड़ते, दूसरे हाथ से निरंजन के कंधे को
हल्के से दबाते हुए कहा, ''बहुत सुंदर आयोजन है, निरंजन,
बड़े-बड़े अँग्रेज़ी-दाँ, महान विद्वान यहाँ पधारे हैं।
धन्यवाद। बहुत-बहुत बधाई। सबसे मिल-जुल लिया। अब चलता हूँ।''
''वाह! ऐसे-कैसे चल दिया? तूने तो कुछ खाया-पिया भी नहीं।''
उसने मेरी बाँह पर मित्र भाव से दबाव डालते हुए कहा।
''क्यों पी तो रहा हूँ।'' मैंने अपना गुस्सा पीते हुए, अपने को
पूरी तरह सहज करते हुए भी उसकी आँखों में आँखें डालते हुए कहा,
''तुझे तो पता है यार आजकल मेरे ऊपर कितना काम है। पूजा और
रोली को भाभी के पास छोड़े जा रहा हूँ वे दोनों भाभी और सुरभि
के साथ रौनकें लगाएँगी, मुझे तो तू बख़्श दे।''
''तुझे बख़्श दूँ और आज बख़्श दूँ। यह कभी हो ही नहीं सकता
है, बड़ी मुश्किल से तो तू पकड़ में आया है। अभी तो मजलिस
बैठेगी। तू देख तो सही।'' कहते हुए उसने खुलकर एक ज़ोरदार
ठहाका लगाया। ''यार जीवन, तू भी एक ही है। ठैर, पहले तो तू यह
बता कि तूने हमारे आज के ख़ास मेहमान मिस्टर ऐश को पहचाना?।''
उसने ऐश के दाहिने कंधे पर हाथ रखा, ऐश निरंजन की दोस्ती पाकर
घमंड से अकड़ा और इतराया. . .
''नहीं भई! ना ही मैंने इन्हें पहचाना, ना ही पहचानना चाहता
हूँ!'' आख़िर मेरी भड़ास निकल ही पड़ी। निरंजन मेरी चित्तवृत्ति की अवस्थाओं और तरंगों को खूब पहचानता है पर आज मेरी
आवाज़ की तुर्शी, मेरी नाराज़गी को पहचानकर भी वह अनजान बना
रहा।
ऐश और उसके साथियों के चेहरे पर चिपकी मुस्कराहट ने मुझे
चिढ़ाती सी रही।
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