''उस समय मैं अविवाहित था और
लंदन में रहता था। मैं कभी-कभी दो मील की दूरी पर एवेन्यू
पार्क में जाता था। वहाँ एक अंगरेज़ वृद्ध जिसकी उम्र लगभग
55-60 की होगी, बैंच पर अकेला बैठा रहता और वहाँ से गुज़रने
वाले हर व्यक्ति को हँस कर 'गुड-मॉर्निंग' या 'गुड डे' कह कर
इस अंदाज़ में अभिवादन करता, जैसे कुछ कहना चाहता हो।
इंगलैंड में धूप की खिलखिलाती हो तो कौन उस बूढ़े की ऊलजलूल
बातों में समय गँवाए?
यह सोच कर लोग उसे नज़रअंदाज़ कर चले जाते और बैंच पर अकेला
बैठा होता था। मैं भी औरों की तरह आँखें नीचे किए कतरा कर चला
जाता।
हर रोज़ अँधेरा होने से पहले
बूढ़ा अपनी जगह से उठता और धीरे-धीरे चल देता। मैं कभी अनायास
ही पीछे मुड़ कर देखता तो हाथ हिला कर 'हैलो' कह कर मुस्कुरा
देता। मैं भी उसी प्रकार उत्तर देकर चला जाता।
यह क्रम चलता रहा। एक दिन रात को ठीक से नींद नहीं तो विचारों
के क्रम में बार-बार बूढ़े की आकृति सामने आती रही, फिर नींद
लगी तो देर से सो कर उठा। सामान्य कार्यों के बाद कुछ भोजन कर
कपड़े बदले और पार्क जा पहुँचा। बूढ़ा उसी बैंच पर मुँह नीचे
किए हुए बैठा हुआ था। इस बार कतराने के बजाय मैंने उससे
कहा,'हैलो, जेंटिलमैन!'
बूढ़े ने मुँह ऊपर उठाया। उसकी नज़रें कुछ क्षणों के लिए मेरे
चेहरे पर अटक गई। फिर एक दम से उसकी आँखों में चमक-सी आ गई। वह
बड़े उल्लासपूर्वक बोला, 'हैलो, सर। आप मेरे पास बैठेंगे क्या.
. .?'
मैं उसी बैंच पर उसके पास बैठ गया। बूढ़े ने मुझ से हाथ
मिलाया, जैसे कई वर्षों के बाद कोई अपना मिला हो। मैंने पूछा,
'आप कैसे हैं?'
जब कोई दो व्यक्ति मिलते हैं तो यह एक ऐसा वाक्य है जो स्वतः
ही मुख से निकल जाता है। कुछ देर मौन ने हमको अलग रखा था पर
मैंने ही पूछा, 'आप पास में ही रहते हैं?'
मेरे इस सवाल पर ही उसने बिना झिझक के कहना शुरू कर दिया,
'मेरा नाम जेम्स वारन है। 30 डार्बी एवेन्यू, फिंचले में अकेला
ही रहता हूँ।'
मैंने कहा, 'मिस्टर वारन. . .', ''नहीं, नहीं. . .जेम्स! आप
मुझे जेम्स कह कर ही पुकारें तो मुझे अच्छा लगेगा।' जेम्स ने
मेरी बात पूरी कहने से पहले ही कह दिया।
मैं जानता था कि जेम्स वारन के पास कहने को बहुत कुछ है, जिसे
उसने अंदर दबा कर रखा है क्यों कि कोई सुनने वाला नहीं है। उसके
अचेतन मन में पड़ी हुई पुरानी यादें चेतना पर आने के लिए
संघर्ष कर रही होंगी किंतु किसके पास इस बूढ़े की दास्तान
सुनने के लिए समय है?
जेम्स ने एक आह-सी भरी और कहना शुरू किया,
'मैं अकेला हूँ। चार बैड-रूम के मकान की भांय-भांय करती हुई
दीवारों से पागलों की तरह बातें करता रहता हूँ।''
इतना कह कर जेम्स ने चश्मे को उतारा और उसे साफ़ करके दोबारा
बोलना शुरू किया।
''ऐथल, यानी मेरी पत्नी, केवल सुंदर ही नहीं, स्वभाव से भी
बहुत अच्छी थी। हम दोनों एक दूसरे की सुनते थे। उसके साथ दुख
का आभास ही नहीं होता था तो दुख की पहचान कैसे होती?
एक दिन पत्नी ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं फूला न समाया
था। पिता बनने की ख़बर ने मुझे ऐसे हवाई सिंहासन पर बैठा दिया
जैसे एक बड़ा साम्राज्य मेरे अधीन हो। मेरी माँ ने दादी बनने
की खुशी में घर पर परिचितों को बुला कर पार्टी दे डाली। इस तरह
8 महीने आनंद से बीत गए। ऐथल ने अपने आफ़िस से अवकाश ले लिया
था। मैं सारे दिन बच्चे और ऐथल के बारे में सोचता रहता।
एक रात जब मूसलाधार वर्षा हो रही थी। ऐथल के ऐसा तेज़ दर्द हुआ
जो उसके लिए सहना कठिन था। मैंने एम्बुलैंस मँगाई और ऐथल की
करहाटों व अपनी घबराहट के साथ अस्पताल पहुँच गया।
नर्सों ने एंबुलेंस से ऐथल को उतारा और तेज़ी से सी.आई.यू. में
ले गईं। डॉक्टर ने ऐथल की हालत जाँच कर कहा कि शीघ्र ही
आप्रेशन करना पड़ेगा। अंदर डॉक्टर और नर्सें ऐथल और बच्चे के
जीवन और मौत के बीच अपने औज़ारों से लड़ते रहे, बाहर मैं अपने
से लड़ता रहा। काफ़ी देर के बाद एक नर्स ने आकर बताया कि तुम
एक लड़के के पिता बन गए हो। खुशी में एक उन्माद-सा छा गया।
नर्स को पकड़ कर मैं नाचने लगा। नर्स ने मुझे ज़ोर से झंजोड़-सा
दिया पर मेरा हाथ ज़ोर से दबाए रही। कहने लगी, 'मिस्टर वारन,
मुझे बहुत ही दुख से कहना पड़ रहा है कि डाक्टरों की हर कोशिश
के बाद भी आपकी पत्नी नहीं बच सकी।''
जेम्स ने आँखों से चश्मा उतार
कर फिर साफ़ किया। उसकी आँखें आँसुओं के भार को सँभाल ना पाई।
एक लंबी साँस छोड़ी और इस वेदना भरी कहानी जारी करते हुए कहा,
'माँ पोते की खुशी और ऐथल की मृत्यु की पीड़ा में समझौता कर
जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश करने लगी। मेरी माँ बड़ी साहसी
थीं। उन्होंने बच्चे का नाम विलियम वारन रखा क्यों कि विलियम
ब्लेक, ऐथल का मनपसंद लेखक था।
इसी तरह 8 वर्ष बीत गए। माँ बहुत बूढ़ी हो चुकी थी। एक दिन वह
भी विलियम को मुझे सौंप कर इस संसार से विदा लेकर चली गई। उस
दिन से विलियम के लिए मैं ही माँ, दादी और पिता के कर्तव्यों
को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाता। उसे प्रातः नाश्ता देकर स्कूल
छोड़ कर अपने दफ़्तर जाता। वहाँ से भी दिन के समय स्कूल में
फ़ोन पर उसकी टीचर से उसका हाल पूछता रहता। विलियम की उँगली
में ज़रा-सी चोट लग जाती तो मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सारे शरीर
में दर्द फैल गया हो।
इतने लाड़ प्यार में पलते हुए वह 18 वर्ष का हो गया। ए-लैवल की
परीक्षा में ए ग्रेड में पास होने की ख़बर सुन कर मैं बेहद खुश
हुआ था। जब आक्सफर्ड यूनिवर्सिटी से आनर्स की डिग्री पास की तो
मेरे आनंद का पारावार न था।
विलियम की गर्लफ्रैंड जैनी जब भी उसके साथ हमारे घर आती तो मैं
खुशी से नाच पड़ता। जैनी और विलियम का विवाह उसी चर्च में
संपन्न हुआ जहाँ मेरा और ऐथल का विवाह हुआ था। एक वर्ष के
पश्चात ही वलियम और जैनी ने मुझे दादा बना दिया। उस दिन मुझे
माँ और ऐथल की बड़ी याद आई। मेरी आँख भर आई! पोते का नाम जॉर्ज
वारन रखा।
हँसते-खेलते एक साल बीत गया। इतनी कशमकश भरे जीवन में अब आयु
ने भी शरीर से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया था।
'डैडी, जैनी और मुझे कंपनी एक बहुत बड़ा पद देकर आस्ट्रेलिया
भेज रही है। वेतन भी बहुत बढ़ा दिया है, मकान, गाड़ी, हवाई
जहाज़ की यात्रा के साथ कंपनी जॉर्ज के स्कूल का प्रबंध आदि
सुविधाएँ भी दे रही है,'' विलियम ने बताया तो मेरी आँखें खुली
ही रह गईं।
यह सब सुन कर मैं धम्म से सोफे पर धँस गया तो विलियम मेरा आशय
समझ मुस्कुरा कर कहने लगा, 'डैडी, आप अकेले हो जाएँगे। हम
दोनों यह प्रस्ताव अस्वीकार कर देंगे। वैसे तो यहाँ भी सब कुछ
है।'
मैंने अपने आपको सँभाला और कहा कि वाह, मेरा बेटा और बहू इतने
बड़े पद पर जा रहे हैं, मेरे लिए तो यह गर्व की बात है। सच,
मुझे इससे बड़ी खुशी क्या होगी?'
जाने की तैयारियाँ होने लगीं। दिन तो बीत जाता पर रात में नींद
न आती। कभी विलियम और जैनी तो कभी जार्ज के स्वास्थ्य की चिंता
बनी रहती।
वह दिन भी आ ही गया जब लंदन एयरपोर्ट पर विलियम, जैनी और जॉर्ज
को विदा कर भीगे मन से घर वापस लौटना पड़ा। विलियम और जैनी ने
जाते-जाते भी अपने वादे की पुष्टि की कि वे हर सप्ताह फ़ोन
करते रहेंगे और मुझसे आग्रह किया कि मैं उनसे मिलने के लिए
आस्ट्रेलिया अवश्य जाऊँ। वे टिकट भेज देंगे।
मन में उमड़ते हुए उद्गार मेरे आँसुओं को सँभाल ना पाए। जार्ज
को बार-बार चूमा। एअरपोर्ट से बाहर आने के बाद वापस घर लौटने
के लिए दिल ही नहीं करता था। कार को दिन भर दिशाहीन घुमाता
रहा। शाम को घर लौटना ही पड़ा। सामने जॉर्ज की दूध की बोतल
पड़ी थी, उठा कर सीने से चिपका ली और ऐथल की तस्वीर के सामने
फूट-फूट कर रोया।
चार दिन के बाद फ़ोन की घंटी बजी तो दौड़ कर रिसीवर उठाया, 'हैलो
डैडी!'
यह स्वर सुनने के लिए कब से बेचैन था। मैं भर्राये स्वर में
बोला, 'तुम सब ठीक हो न, जॉर्ज अपने दादा को याद करता है कि
नहीं?' जैनी से भी बात की और यह जान कर दिल को बड़ा सुकून हुआ
कि वे सब स्वस्थ और कुशलपूर्वक हैं।
विलियम ने टेलीफ़ोन को जॉर्ज के मुँह के आगे कर दिया, तो उसके
'आंउ-आंउ' की आवाज़ ने कानों में अमृत-सा घोल दिया। थोड़ी देर
बाद फ़ोन पर वो आवाज़ें बंद हो गईं।
तीन माह तक उनके टेलीफ़ोन लगातार आते रहे, किंतु उसके बाद यह
गति धीमी हो गई। मैं फ़ोन करता तो कभी कह देता कि दरवाज़े पर
कोई घंटी दे रहा है और फ़ोन काट देता।
बातचीत शीघ्र ही समाप्त हो जाती। छः महीने इसी तरह बीत गए। कोई
फ़ोन नहीं आया तो घबराहट होने लगी।
एक दिन मैंने फ़ोन किया तो पता लगा कि वे लोग अब सिडनी चले गए
हैं। यह भी कहने पर कि मैं उसका पिता हूँ, नए किरायेदार ने
उसका पता नहीं दिया। उसकी कंपनी को फ़ोन किया तो पता चला कि
उसने कंपनी की नौकरी छोड़ दी थी। यह जान कर तो मेरी चिंता और
भी बढ़ गई थी।
मेरा एक मित्र आर्थर छुट्टियाँ मनाने तीन सप्ताह के लिए
आस्ट्रेलिया जा रहा था। मैंने उसे अपनी समस्या बताई तो बोला कि
वह दो दिन सिडनी में रहेगा
और यदि विलियम का पता कहीं मिल गया तो मुझे फ़ोन कर के बता
देगा। आर्थर का फ़ोन नहीं आया। तीन सप्ताहों की अँधेरी रातें
अँधेरी ही रहीं।
तीन सप्ताह के पश्चात जब आर्थर वापस आया तो आशा दुख भरी निराशा
में बदल गई। विलियम और जैनी उसे एक रेस्तराँ में मिले थे किंतु
वे किसी आवश्यक कार्य के कारण जल्दी में अपना पता, टेलीफ़ोन
नंबर यह कह कर नहीं दे पाए कि शाम को डैडी को फ़ोन करके नया
पता आदि बता देंगे।
उसके फ़ोन की आस में अब हर शाम टेलीफ़ोन के पास बैठ कर ही
गुज़रती है। जिस घंटी की आवाज़ सुनने के लिए इन छः सालों से
बेज़ार हूँ, वह घंटी कभी नहीं सुनी। हो सकता है कि उसे डर लगता
हो कि कहीं बाप आस्ट्रेलिया ना आ धमक जाए।'' |