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हम दोनों बचपन में बाज़ार
सीताराम में रहते थे। आशु मेरा मित्र, मेरे बगलवाले घर में
रहता था। हम दोनों ठीक साढ़े आठ बजे निक्कर पहने, गले में
बस्ता लटकाए, पीपल वाली गली में महादेव जी के दर्शन करते, माथे
पर टीका लगाए, प्रसाद खाते, रामजस स्कूल जाया करते थे। पंडित
जी, हमारे हेडमास्टर, हमारे आचार-विचार और बात-व्यवहार से बड़े
प्रभावित थे। अभी हम सातवीं कक्षा में थे कि आशु के पिता की
पदोन्नति हुई और फिर उनका तबादला हो गया। थोड़े ही दिनों बाद
वह उनके साथ बंबई चला गया। जाते समय हम दोनों गले मिल-मिल बहुत
रोए। उसे जाना था सो वह चला गया। बहुत दिनों तक आशू मुझे याद
आता रहा। सही पता-वता न मालूम होने के कारण आपस में
चिट्ठी-पत्री नहीं हो सकी। आज-कल की तरह उन दिनों मोबाइल फ़ोन
भी नहीं था कि हम एक-दूसरे से बातचीत करते। आशू के जाने के बाद
निरंजन, मेरी कक्षा का एक अन्य लड़का मेरा मित्र बना और
धीरे-धीरे आशू की यादों पर धूल की परतें गिरने लगी।
निरंजन से मेरी मित्रता
गहराती चली गई। निरंजन बेहद चटपटा, मज़ाकिया और दूरंदेशी था।
हम दोनों पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद में ठीक-ठाक थे। हमारे
माँ-बाप या गुरुजनों को हमसे कोई शिकायत नहीं थी। निरंजन की
योजनाएँ ग़ज़ब की होती वह अक्सर किसी न किसी ऐसी फिराक़ में
लगा होता जिससे हम दोनों की फ़ीस या तो आधी हो जाती या माफ़ कर
दी जाती।
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