रोज की तरह उस दिन भी ठीक
साढ़े छे बजे मेरी आंख तो खुल गयी पर बदन अलसाया ही रहा।
बिस्तर छोड़ने को मन नहीं कर रहा था। अचानक याद आया सवा आठ पर
मुझे फियोना से इंश्योरेंस के सिलसिले में उसके ऑफिस में मिलना
है। अब चाहे तन आलस करे या मन। उठना ही होगा। किसी तरह बदन को
पैरों पर घसीटते हुए शावर के नीचे ले आई। शावर के तीखे धार
वाले गुनगुने पानी ने बदन को गुदगुदाया। सारी ख़ुमारी क्षण भर
में छू मंतर हो गयी। फिर तो बीस मिनट में मैं अपने पूरे फार्म
में आ गयी।
ठीक सवा सात पर मैंने घर का
दरवाज़ा बन्द किया और गेट से बाहर आई। सड़क के दोनो ओर काले
बैग के ढेर करीने से लगे हुए थे। कूड़ा गाड़ी अगले मोड़ पर
खड़ी आरा मशीन की तरह शोर मचा रही थी। डस्टबिन मैन पूरी
मुस्तैदी से गमबूट और रबर के दस्ताने पहने कूड़ा उठा-उठा कर
वैन में फेंके जा रहे थे। गाड़ी में लगी कूड़ा-मशीन कूड़े के
बड़े-बड़े बैगों को किसी दैत्य की तरह निगले जा रही थी। घड़ी
भर में सड़क साफ हो जाएगी। फिर हफ़्ते
भर घरों में कूड़ा इकठ्ठा होगा। उन्हें छोटे-छोटे बैगों में बाँधा
जाएगा। मंगल की रात को घर के लोग उन्हें काले बैग में इकठ्ठा
कर सुतली से बाँधेंगे। और सड़क के
किनारे डस्टबिन मैन के लिये सजा कर रख देंगे। और यह सिलसिला
चलता रहेगा
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