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"ओ हाँ, अच्छा तुम्हारी लड़की है ना। तुम्हारी जैसी ही लगती है। कंधे तक काले बाल हैं उसके। वह भी तुम्हारी तरह बहुत अच्छी है।"
"अच्छा तो तुम उसे जानती हो?"
"हाँ-हाँ, वह तो मेरी दोस्त है ना।"
वह थोड़ी देर मुझे देखती रही। उसके चेहरे से साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह अंदर ही अंदर यह निर्णय ले रही है कि सच बोलने में ज़्यादा फायदा है या झूठ बोलने में। साथ ही मैंने यह भी नोट किया कि जिन प्रश्नों के उत्तर वह नहीं देना चाहती उनके बदले में वह मुझसे बिना झिझक प्रति उत्तर में प्रश्न कर लेती है। मेरे सवाल के जवाब में इस बार फिर उसने मुझसे एक मोहक प्रश्न किया।
"तुम रईस हो?"
मैंने कहा, "नहीं मैं माँ हूँ मेरे दो बच्चे हैं जो तुमसे बड़े हैं और अगले साल से कालेज की पढ़ाई करेंगे।"
"अच्छा।" वह मुसकराई, उसकी मुस्कुराहट में बाल सुलभ चतुराई के साथ साथ कृतज्ञता भी थी। उसने घड़ी भर रुक कर मेरी आँखों में देखा फिर कहा, "मेरा खयाल है कि तुम रईस और नेकदिल दोनो हो। मुझे इनसान की अच्छी पहचान है।" प्लेट में पड़े हुए मटन के आखिरी टुकड़े को काँटे में फँसा कर मुँह में रखते हुए वह पल भर के लिये रुकी, फिर मुझसे मुखातिब होते हुए बोली,
"मैंने इस छोटी सी उम्र में दुनिया की गज़ालत देखी है, युद्ध की विभीषिका देखी है। इनसान को दरिंदा होते देखा है। कान फाड़ने वाले तोप गोले, बंदूकें, लाशें, खून से रंगी धरती, बलात्कार, घृणा-प्रेम, जन्म-मरण सब एक साथ देखे हैं।" उसकी चमकती हुई हरी आँखें अचानक यादों के काले साये में स्याह सी हो गयीं।

वह अपने हिस्से का खाना खा चुकी थी। और अपनी भाषा में बार बार अपने छोटे भाई को शायद यह समझा रही थी कि ऐसा खाना रोज़ नहीं मिलेगा। इसलिये उसे वह सबकुछ खा लेना चाहिए जो उसकी प्लेट में है। अब भाई से और अधिक खाया नहीं जा रहा था। फिर अभी पुडिंग और कॉफी भी रखी हुई थी। मैंने उसकी मन:स्थिति को समझते हुए कहा, "क्या तुम बाकी का खाना घर ले जाना चाहती हो?" उसकी आँखों में कुछ लज्जा और कुछ विनय का सा भाव उभर आया, फिर उसने अंग्रेज़ वेटर और कुक की ओर देखते हुए कहा, "ऐसा करने से वह लोग मुझे और मेरे भाई को रेस्ट्रां से निकाल तो न देंगे।" मुझे उसका सावधान होना अच्छा लगा। मैंने कहा, "नहीं, हमने मुफ्त में खाना नहीं खाया है। पूरे पैसे दिये हैं। हम अपना खाना खाएँ या घर ले जाएँ उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है। मैं अभी एक कैरियर बैग का इंतजाम करती हूँ।"
कहती हुई मैं टिल पर बैठी हुई महिला के पास गयी और उससे एक कैरियर बैग की माँग की, उसने 'कैरियर बैग' के साथ साथ मुझे कुछ डिस्पोज़ेबल डब्बे भी पकड़ा दिये।

लड़की मेरे तरीकों से बहुत प्रभावित लग रही थी। और उसके बाल सुलभ मन में संभवत: बहुत सारे प्रश्न उठ रहे थे।
हमने खाना पैक किया। छोटा भाई जो अबतक खामोश था, बहन के कान में कनखियों से मुझे देखते हुए शरमीली मुस्कान के साथ अपनी भाषा में कुछ बोला। लड़की ने उसकी पीठ को प्यार से थपथपाया, फिर मेरी ओर देखते हुए बोली, "मेरा भाई आपको किसी जागीरदार की बेहद रहमदिल और नेक किस्म की बेगम समझ रहा है।"
मैंने जल्दी से कहा, "नहीं, नहीं! मैं बेगम वगैरह कुछ नहीं हूँ , मैं तो यहाँ के बच्चों के स्कूल में पढ़ाती हूँ। और एक माँ हूँ। उससे कहो अगर वह स्कूल जाया करे और दिल लगा कर पढ़ा करे, तो एक दिन वह भी अच्छा कमाता-खाता हुआ इनसान बन जाएगा।"

आज से साल भर पहले जब हम यहाँ आए थे तो मैं स्कूल जाती थी। वहीं मैंने अंग्रेज़ी सीखी। पर फिर माँ को अस्पताल ले जाना पड़ा वह पेट से थी। घर के खरीद फरोख्त आदि के लिये या फिर किसी भी सरकारी काम के लिए अगर कहीं भी जाना होता तो मुझे साथ जाना होता था क्यों कि हमारे घर में मेरे अतिरिक्त किसी को अँग्रेज़ी नहीं आती है। इस तरह मेरा स्कूल जाना रुक सा गया।"
"तुम्हारे पिता क्या काम करते हैं?"
"मिनी कैब ड्राइवर हैं, पर मेरी माँ को उस पर यकीन नहीं है वह कहती है वह झूठा बोलता है। उसे कार चलानी ही नहीं आती। कैब ड्राइवर कैसे बन सकता है।"
"अच्छा तो तुम्हारी माँ काम करती है, क्या काम करती है?" उसने एक पल मेरी ओर देखा फिर बगैर किसी झिझक कहा, "वह मर्दों के साथ सोती है और उनसे पैसे लेती है। मुझे भी शायद यही काम करना पड़े। पर मेरी माँ कहती है अगर यही काम मैंने किया तो वह मेरा मुँह कभी नहीं देखेगी और खुदकुशी कर लेगी।"
"ठीक कहती है तुम्हारी माँ, उसके लिये तो यह बहुत मजबूरी की बात है। एक माँ अपने बच्चों को भूखा नहीं रख सकती है। वह उनके लिये अपने जिस्म के टुकड़े टुकड़े में काट कर भरे बाज़ार में बेच सकती है। तुम अभी बच्ची हो। तुम्हारे सामने संभावनाओं का विशाल विस्तार है। तुम और बहुत से काम कर सकती हो। अभी तो तुम किसी तरह स्कूल जाती रहो। पढ़ लिखकर कोई भी नौकरी कर लेना। तुम सफाई कर्मचारी बन सकती हो, गार्डनिंग कर सकती हो, बस कंडक्टर बन सकती हो। इन कामों के लिये किसी ज्यादा पढ़े-लिखे होने की ज़रूरत नहीं होती।

अगले शनिवार को ठीक साढ़े दस बजे शुकराना मेरे दरवाज़े पर महकते हुए फूलों का गुलदस्ता लिये खड़ी थी। उसका चेहरा आत्मविश्वास से दीप्त था।
"कैसी हो शुकराना?"
"आपके आशीर्वाद से बहुत अच्छी तरह से" कहते हुए उसने मेरे हाथों में वह खूबसूरत गुलदस्ता पकड़ा दिया, साथ ही बोसनियन ढंग से मेरे गालों को आद्रता से चूमकर अभिवादन किया।
"इस सबकी तो कोई आवश्यकता नहीं थी शुकराना" , मैंने महकते हुए गुलदस्ते को गुलदान में सजाते हुए कहा।
"जानती हूँ। यह मात्र मेरे आंतरिक भावों का प्रतीक है।" शुकराना ने विह्वल होकर कहा।
हाँ मैंने शुकराना को केवल कुछ शब्द ही तो दिये थे। यदि शब्द की महिमा पकड़ में आ जाए तो जीवन का सार मिल जाता है, ईश दर्शन हो जाता है और शायद निर्वाण भी मिल जाता है।

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१५ अगस्त २००८

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