'हरेकृष्ण
बाबा ने जैसे ही पानी में डुबकी मारी - चिल्ला उठे - 'जय
तिरबेनी जी।' तिरबेनी बाबा घाट पर खड़े थे। वे डरकर चिल्लाए
'का हो भइया।' उन्हें लगा कि हरेकृष्ण बाबा डूब रहे हैं।
उन्होंने आव देखा न ताव पानी में कूद पड़े - चिल्लाते हुए
'हरेकृष्ण, हरेकृष्ण, हरेकृष्ण।' लोगों ने समझा कोई भक्त
है जो कृष्ण का नाम लेकर चिल्ला रहा है, हरेकृष्ण
हरेकृष्ण। उधर हरेकृष्ण बाबा ने देखा कि तिरबेनी बाबा पानी
में कूदकर उनका नाम पुकार रहे हैं तो वह चिल्लाने लगे -
'तिरबेनी जी, तिरबेनी जी।' फिर तो चारों ओर शोर मच गया -
'तिरबेनी जी, तिरबेनी जी, हरेकृष्ण, हरेकृष्ण ... हरे
कृष्ण, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण ...।' अरे भाई, इस साले ने
कैसी कहानी गढ़ी है मेरे पिता और चाचा के नाम पर। सच यह है कि
ये लोग कभी प्रयाग नहाने गए ही नहीं और मेरे पिता हरेकृष्ण्ा
को भइया कहेंगे? वे तो उनसे बड़े हैं।'
रामलाल गुस्से में हाँफ रहा था। मुझे हँसी आ रही थी। मैंने
कहा, 'अरे भाई रामलाल, इसमें इतना गुस्सा होने की क्या बात
है। जोगी ने कोई गाली तो नहीं न दी है, आपके पिताजी और चाचाजी
को प्रयागराज में नहला ही तो रहा है। यह तो पुण्य काम कर रहा
है।'
अब रामलाल की समझ में बात आई तो चुप हो गया। मैंने जोगी को भी
बुलाया। वह मुस्कराता हुआ आया। उसकी मुस्कराहट देखकर रामलाल
फिर बौखलाने को हुआ कि मैंने शांत कर दिया। बच्चे भी हँसने
लगे। मैं वहाँ से अलग हुआ तो सोचने लगा कि तिरबेनी बाबा और
हरेकृष्ण बाबा ने प्रयाग में स्नान किया हो या न किया हो,
जोगीराय ने हम सबको प्रसन्नता के प्रयाग में स्नान जरूर करा
दिया।
इसी तरह की यादों में खोए-खोए न जाने कब नींद आ गई। जोगीराय
दूसरे दिन भी मिलने नहीं आए ओर अब कभी मैं उनसे मिलने की बात
करता तो भतीजा कहता, 'वे मिलेंगे नहीं। रुकिए, पहले देख तो
आऊँ।' और आकर बताता कि वे घर पर नहीं हैं।
कई दिन तक यह घटना दुहराई गई तो भतीजा झल्लाकर बोला, 'छोडि़ए
चाचाजी, आप क्यों इस नाचीज के लिए इतने बेचैन हैं? आप जैसा
बड़ा आदमी इस जैसे घसकट्टे से मिलने के लिए आतुर है और वह है
कि उसे घास काटने से फुरसत नहीं मिलती?'
'अरे ऐसा मत काहे। सबका अपना महत्व होता है। कोई बड़ा होता है
तो अपने घर का होता है। छोटे उससे दान लेने तो नहीं आते। सबके
काम का अपना-अपना महत्व होता है। हो सकता है, जोगीराय आवश्यक
कामों में फँसे हुए हों।'
'छोडि़ए चाचाजी। अरे, जो आवश्यक काम सबको हैं वही उसको भी
हैं। आखिर जिन लोगों को आपसे मिलना अच्छा लगा, वे अपने
इन्हीं कामों के बीच से तो आए। हो सकता है जोगी को अब आपसे
मिलना अच्छा न लग रहा हो।'
'हाँ, होने को तो कुछ भी हो सकता है।' मैंने कह तो दिया किंतु
जोगीराय जिस रूप में मेरे भीतर थे, उसे महसूस करते हुए
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उन्हें मुझसे मिलना अच्छा
नहीं लग रहा होगा।
आखिर तीसरे दिन शाम को जोगीराय आए। दुआ-सलाम हुई। उन्होंने
आते ही अपनी विवशता की कहानी कहते हुए देर से आने की माफी भी
माँगी।
'बहुत दिन बाद आपसे भेंट हो रही है, जोगी भाई। एक जमाना गुजर
गया। आपको देखते हुए बचपन की कितनी बातें याद आ गईं बल्कि यों
कहिए कि जब से गाँव आया हूँ और आपसे मिलने की संभावना बनी है
तभी से उन बातों में खोया हुआ हूँ।'
जोगीराय मुस्कराए और बोले, ' हाँ श्रीधर भाई, वे दिन भी क्या
दिन थे।' कहकर उन्होंने मेरे बचपन की कुछ शरारतों का उल्लेख
कर दिया और वहाँ बैठे लोग हँसने लगे।
'कैसे रहे जोगीराय। बहुत दिनों बाद भेंट हो रही है न। कैसे हैं
घर परिवार के लोग, बचपन की वह मस्ती इस यात्रा में कहीं छूट
गई कि साथ चलती रही।'
'बचपन की मस्ती बचपन की मस्ती होती है, भाई साहब। जब तक
माँ-बाप जीवित होते हैं, अपने ऊपर कोई जिम्मेवारी नहीं होती।
बपई के मरने के बाद तो सारा बोझ मेरे ही ऊपर आ गया न? रेहन के
खेतों से हम बड़े खेत वाले थे। लोगों ने रेहन के खेत छुड़ा
लिए। फिर पहले तो पिताजी और उनके भाई लोग साथ थे, इसलिए खेत
काफी लगते थे। सब अलग हो गए तो खेतों की औकात समझ में आई। अपने
खेतों से काम चलाना मुश्किल हो गया। नौकरी खोजने लगा। पढ़ाई तो
दर्जा सात के बाद ही छूट गई थी। कोई लिखने पढ़ने की नौकरी तो
मिलने से रही, किसी तरह रेलवे में नौकरी मिली - लेबर की। बस
वहीं से थोड़ी-बहुत तरक्की करता हुआ कुछ ऊपर उठा। खलासी बन
गया।'
'चलिए, नौकरी छोटी भी हो तो एक स्थायी सहारा बन ही जाता है।'
'क्या सहारा बनेगा, भाई साहब। छोटी सी तनखाह में क्या सहारा
बनेगा? घर पर पत्नी थी, पाँच बच्चे थे, जिनमें चार बेटियाँ
थीं और एक बेटा संजय। और सारे खर्चे छोड़ दीजिए, केवल चार-चार
बेटियों के विवाह का ही खर्चा जोड़ लीजिए तो हाथ-पाँव फूल
जाएँ। दो-दो जगह गृहस्थी। आख्रिर संतानों में बड़ा था, सोचता
था कि उसे अपने पास लाकर लिखाऊँ-पढ़ाऊँ लेकिन घर पर चार
लड़कियों के साथ मेरी औरत कैसे रहती? कोई पुरूष नाम का प्राणी
तो वहाँ होना ही चाहिए था।'
मैंने अनुभव किया कि जोगीराय कुछ गमगीन हो गए। एकाएक हँसे।
शायद उन्हें लगा कि उनकी ख्याति हँसने-हँसाने की रही है,
उन्हें गमगीन नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने अपने भारीपन
को झटककर फेंक दिया और अपनी सहज गर्दन-हिलाऊ मुद्रा को कुछ तेज
करते हुए हँसकर बोले, 'लेकिन भाई साहब, मैंने भी कमाई-धमाई का
कुछ रास्ता निकाल ही लिया था। व्यापारी लोग अपना माल छुड़ाने
माल गोदाम में आते थे तो उनका सामान खोजता था, यानी खोजने का
बहाना करता था। सामान दिखाई पड़ गया तो उसे उठाकर ऐसी जगह फेंक
देता था कि खोजते रहो, दिखाई ही न पड़े। और आकर कहता था - पता
नहीं माल कहाँ पड़ा है, भीड़ में मिल नहीं रहा है। आज खोजे
रहूँगा, कल-परसों आइएगा। व्यापारियों के हाथ-पाँव फूल जाते थे
- 'अरे नहीं भाई, हमारा तो बड़ा हर्ज हो जाएगा। कुछ करो भाई।'
मैं कहता - 'क्या करूँ, सामान पैदा करूँ, अब न जाने कहाँ दबा
पड़ा है, कुछ माल छंटेगा तो उसका पता चलेगा।' वे कहते - 'अरे
नहीं नहीं, कुछ कीजिए, कुछ कीजिए।' इसका मतलब वे भी समझते थे,
हम भी। यानी मेरे साथ काम करने वाले सभी लोग। और जब व्यापारी
जी कुछ पान-फूल चढ़ाते थे तो उनका सामान खोज निकालने का नाटक
करता था। बस, ऐसी ही छोटी-छोटी ठगी करके कुछ कमा लेता था।'
इतना कहकर जोगीराय जोर से हँसे। और मुझे लगा कि जोगीराय अभी भी
हँसते हैं लेकिन उनकी हँसी का संदर्भ कितना बदल गया। तब अपना
खोकर हँसते थे, अब पाकर हँसते हैं।
लगा, जैसे मेरे भीतर का सवाल उनसे टकरा गया। वे बोले - 'नहीं
भाई साहब, इसमें अनुचित बात कोई नहीं थी। अरे ये व्यापारी न
जाने कितना कमाते हैं गरीब लोगों को ठग-ठगकर। मैंने अपना पेट
भरने के लिए उन्हें थोड़ा ठग लिया तो क्या बुरा किया? न ठगता
तो मेरा घर कब का उजड़ गया होता। यह क्या पाप है, भाई साहब?'
'नहीं, नहीं, ठीक ही किया। लाखों-करोड़ों कमाने के लिए जो लोग
दूसरों का खून चूसते हैं उनकी कमाई में से अपनी दो रोटी के लिए
पैसे खींच लेना कोई पाप नहीं है। यह तो जीवन की रक्षा है और
जीवन की रक्षा पान नहीं होती।'
फिर एक गंभीर चुप्पी बीच में आ गई। मैंने तोड़ी - 'होली दो
दिन रह गई है जोगी भाई। याद है न अपने बचपन और जवानी के दिनों
की होली। और सब लोग जो करते थे, करते ही थे, किंतु तुम तो
फागुन की मस्ती के प्रतीक बन जाते थे। बाप रे बाप। फागुनी हवा
की तरह किस-किससे छेड़छाड़, किस-किसकी चीजों से छेड़छाड़,
क्या-क्या स्वाँग, क्या-क्या झूठे किस्से, कहानियाँ,
गाना-बजाना, नाचना-कूदना, चिढ़ने वाले लोगों पर छिप-छिपकर पानी
डालना, कीचड़ और धूल फेंकना, और गनपति बाबा की तो शामत आ जाती
थी। वह तो तुमसे भागते फिरते थे। लेकिन रह-रककर तुम्हारे नाटक
की लपेट में आ ही जाते थे।'
जोगीराय मुस्कराए फिर गमगीन हो गए। बोले - 'हाँ, भाई साहब।
मेरी उनकी जुगलबंदी खूब चलती थी। गालियाँ तो खूब देते थे लेकिन
मुझे प्यार भी करते थे इसलिए दूर हो होकर भी मेरे पास आ जाते
थे। वह मेरी छेड़छाड़ पर गालियाँ तो देते ही थे, हँसी-मजाक का
जवाब भी खूब देते थे। देखिए, वह कितने बुजुर्ग थे और मैं कितनी
छोटी अवस्था का। लेकिन ऐसा लगता था कि मेरी उनकी यारी हो।
उनकी याद आती है तो मन रोने लगता है। मेरी हँसी मजाक उनके लिए
दो बार घातक सिद्ध होते-होते बचा। उसके बाद तो मैंने कान पकड़
लिया और उनसे छेड़छाड़ बंद कर दी। लेकिन उन्होंने बुरा नहीं
माना और वे विशेषतया जब मैं फागुन में घर आता था मुझे पूछते
हुए मेरे पास चले आते थे और अपनी उसी रौ में बहने लगते थे।'
'वे दो घटनाएँ क्या थीं? जोगी भाई जरा मुझे भी तो बताइए।'
'एक घटना तो सावन की है। हम दोनों बाजार से साथ ही आ रहे थे।
बाढ़ आकर हटी थी। घर और बाजार के बीच एक नाला पड़ता था। वह हर
बरसात में खूब भर जाता था। इस बार तो खैर बाढ़ ही आई थी। एक
दूसरा रास्ता भी था जो लंबा था। मैंने गनपति बाबा से कहा -
'बाबा कहाँ लंबे रास्ते से घर जाइएगा, चलिए नाले में से चलते
हैं।'
'वह बोले - 'अरे पागल हो गए हो। उसमें छाती भर पानी है और धारा
भी तेज है। मेरे पाँव कहीं फिसल गए, तो। तैरना भी नहीं आता
है।'
'अरे बाबा, आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा। बात यह है बाबा जब मैं
कई साल पहले खूब बीमार पड़ा था तो मेरी औरत ने मनौती मानी थी
कि मेरे स्वामी अगर अच्छे हो गए तो किसी बामन को अपने कंधे
पर बिठाकर नदी-नाला पार कराएँगे। सो बाबा, उस मनौती को पूरा
करने का इससे अच्छा अवसर क्या होगा? मेरे बड़े पुण्य जागे
हैं कि आपके साथ आज बाजार से लौट रहा हूँ।'
'गनपति बाबा तैयार हो गए। उन्हें कंधे पर बैठा लिया और ज्यों
ही बीच धारा में गया, मैं डुबकी मारकर अलग हो गया और वे पानी
में चित्त हो गए। मैं कुछ दूर हटकर खिलखिलाने लगा और वह पानी
में ऊभचूभ होने लगे। फिर मुझे होश आया कि अरे मैंने क्या कर
दिया? जाकर उन्हें पकड़ा और खींचकर धारा से बाहर ले आया। बाबा
ने खूब गालियाँ दीं। मैंने कुछ नहीं कहा किंतु रात भर मेरी
आत्मा धिक्कारती रही कि यह कौन-सा मजाक है। कहीं वे डूब गए
होते तो? अब तक तो तुम अपने मजाक के लिए खुद को सजा देते रहे
हो जोगी, अब दूसरों को सजा देकर मजाक का मजा ले रहे हो? उसी
दिन तय किया कि अब बाबा से छेड़छाड़ नहीं करूँगा - खास तौर पर
इस तरह की छेड़छाड़।' जोगीराय चुप हो गए लगा जैसे उसी पुराने
पश्चाताप के गम में उतर गए हों।
'लेकिन आदत आसानी से नहीं जाती, भाई साहब, और फागुन ससुरा तो
आकर ही जाने कब मेरी उस आदत को उकसाने लगता था। याद है वह साल,
मैं नौकरी से आया हुआ था और अपने खलिहान में बैठा हुआ था।
गनपति बाबा मुझे खोजते हुए आ गए थे, कुछ और लोग भी आ गए। वैसे
तो लोगों को मेरी चुहुलबाजी का आकर्षण खींच लाता था लेकिन जब
वे गनपति बाबा को मेरे साथ देखते थे तो हुलसित हो जाते थे। सो
और लोग भी आ गए। वहाँ पेड़ की एक डाल रखी थी जिसका बीच का भाग
जमीन पर था और दोनों सिरे जमीन से उठे हुए थे। मैं उसके एक
सिरे पर बैठा दूसरे पर आग्रहपूर्वक गनपति बाबा को बैठा दिया,
इसलिए संतुलन कायम था। मेरे न चाहते हुए भी छेड़छाड़ शुरू हो
गई। कुछ लोगों ने उकसाया, कुछ गनपति बाबा के हँसी-मजाक ने।
देखते-देखते फागुन का वातावरण गहरा हो उठा। किसी मजाक से
छिड़कर गनपति बाबा जोश में आए ही थे कि मैं डाल पर से उठ गया।
डाल का संतुलन बिगड़ा - गनपति बाबा दूर जा गिरे। लोग हो-हो
करके हँसने लगे लेकिन जब गनपति बाबा के कराहने की आवाज आई तो
हमने झपटकर उन्हें उठाया। मालूम पड़ा, उनके पाँव में काफी चोट
आई है। मैं बहुत दुखी हुआ, कई दिन तक मैं अपने को धिक्कारता
रहा और दुबारा तय किया कि अब इनसे मजाक नहीं करूँगा।'
फिर एक चुप्पी छा गई। कुछ छण बाद मैंने पूछा, 'अब तो घर की
जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए होगे।'
'हाँ, एक तरह से हो गया हूँ। चार बेटियाँ थीं, सभी ब्याह दी
गईं।'
'और बेटा संजय क्या करता है?' मैंने पूछा।
वे चुप रहे और लगा कि धीरे-धीरे भारी हो रहे हैं। फिर उनकी
आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। मैं चकित-सा उन्हें देखता
रहा। अरे, मैंने क्या कह दिया कि इनका यह हाल हो गया।
जोगीराय चुप ही रहे और लगता था कि वह अपनी रुलाई को चाँप रहे
हैं किंतु भतीजे ने कहा, 'चाचाजी, इनके साथ तो बड़ा बुरा हुआ।
दो साल पहले इनका इकलौता जवान बेटा चल बसा।'
'ओह, माफ करना जोगी भाई, मैंने आपके दर्द को छेड़ दिया।' आगे
कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई, यद्यपि पूछना चाहता रहा कि
कैसे क्या हो गया था।
फिर भतीजा ही बोला - 'चाचाजी, संजय एक जलते हुए घर में कूद
पड़ा था। होली के दिन गनपति बाबा के घर में किसी ने आग लगा दी
थी। उनका पोता मकान में फँस गया था। सभी लोग बाहर खड़े होकर
चिल्ला रहे थे लेकिन भीतर कोई नहीं पैठ रहा था। संजय ने
बच्चे को तो बचा लिया लेकिन खुद को नहीं बचा सका।'
'अरे, यह तो बहुत दर्दनाक हादसा हुआ।'
जोगीराय संभल चुके थे। बोले - 'भाई साहब, मैंने बहुत चाहा कि
संजय कुछ पढ़-लिख ले लेकिन वह पढ़ाई-लिखाई में मेरा भी बाप
निकला। मैंने सात पास कर लिया था, उसने तो यह भी नहीं किया।
उसे लेकर मैं बेहद परेशान रहा और कभी-कभी सोचता था कि मेरे साथ
न रहने के कारण वह आवारा निकल गया। क्या करता? नौकरी छोड़कर
घर तो नहीं न बैठता। सोच लिया कि कोई बात नहीं, पढ़ाई के खयाल
से निकम्मा ही सही, गाँव की घर-गृहस्थी तो संभालेगा ही। कुछ
खेत मैंने और खरीद लिए थे और संतोष था कि इससे बेटे का काम चल
जाएगा। दो भैंसे भी खरीद दी थीं, दूध पिएगा और बेचेगा भी। शादी
भी कर दी।'
'संतानें भी होंगी ही।'
'हाँ, दो बेटियाँ ही हैं। मैं अपनी बेटियों की शादी करके
निश्चिंत हुआ था लेकिन बताइए, जवान बहू, दो-दो पोतियाँ अब
क्या करूँ?'
मैं क्या कहता, चुप रहा।
'भाई साहब, मैंने चाहा कि भैंसों को बेच दूँ, कौन बबाल पाले इस
बुढ़ौती में। लेकिन संजय का बड़ा गहरा लगाव था इन भैंसों से।
इसलिए इन्हें बेच नहीं पाया। अपने को उनके साथ लगा दिया।
उन्हें चराने के लिए यहाँ-वहाँ निकला जाता हूँ। इससे मन भी
बहलता है और लगता है संजय मेरे साथ है। '
मैं बहुत भारी हो आया था। लगता था, रो दूँगा। व्यंग्य-विनोद
के जीवंत व्यक्तित्व का इस तरह टूटना मुझे तोड़ रहा था।
'लेकिन, भाई साहब।' जोगीराय के स्वर में एक ऊर्जा-सी महसूस
हुई। मैंने सिर उठाकर उन्हें देखा - 'मैं संजय को बहुत
निकम्मा और मूर्ख कहता रहा। न जाने किन-किन शब्दों में उसे
कोसता रहा लेकिन उसने गनपति बाबा के पोते की जान बचाकर मेरा
सिर ऊँचा कर दिया। बेटे के, और वह भी इकलौते बेटे के मरने के
गम का आरपार नहीं है लेकिन वह इस तरह मरकर मेरा सिर ऊँचा कर
गया। और विडंबना देखिए कि अपने को लायक कहने वाला जोगीराय
जिंदगी भर छेड़छाड़ कर गनपति बाबा को दुखी ही करता रहा और
उसके नालायक बेटे ने गनपति बाबा के पोते को बचाने के लिए अपनी
जान दे दी।' जोगीराय ठठाकर हँसे तो मैंने उस हँसी को पहचानने
की कोशिश की।
'भाई साहब, देखिए। इस गाँव में अब होली नहीं होती, उसकी छूत
छुड़ाई जाती है। देखिए, दो दिन रह गए होली को, सम्मति नहीं
गड़ी। लेकिन आप आ गए हैं तो होली होगी, जमकर होगी। आपके साथ
जोगीराय फिर एक बार जोगीराय बनेगा। और सुनो भाईयो, आज के
लौंडों को छोड़ो, चलो अभी मेरे साथ चलो, सम्मति गाड़ते हैं,
सम्मति बटोरते हैं और नाचते हैं, गाते हैं।'
साथ बैठक कुछ लोगों को पकड़े हुए जोगीराय वहाँ से चल पड़े। वे
एक जोगीड़ा गा रहे थे। उनके स्वर में कुछ स्वर मिलने लगे।
मैं भी साथ हो लिया। मैं सब देखता रहा और यह नहीं समझ पा रहा
था कि जोगीराय के दर्द से उल्लास फूट रहा है या उल्लास से
दर्द। |