'अरे
नहीं, मैं ही मिल लेता हूँ चल कर।'
'आप कहाँ मिलेंगे उनसे?
पता नहीं, खेत में होंगे या खलिहान में। भैंस चरा रहे होंगे या
कहीं गए होंगे। मैं तो जाकर उनके घर सूचना दे दूँगा कि वह आएँ
तो जरा भेज दिए जाएँ और मिल जाएँगे तो क्या बात?'
जोगीराय विदूषक रहे हैं - यह बात उनके समय के लोगों को तो
ज्ञात रही ही है। नई पीढ़ी भी इसकी कुछ न कुछ झलक देख चुकी
होगी, तभी तो सभी लोग जोगीराय का नाम आते ही हँसने लगते हैं।
इस समय भी सबके चेहरों पर हँसी की
एक चमक थी।
भतीजा लौटकर आया तो बताया कि जोगीराय संयोग से मिल गए थे। वह
खेत की ओर जा रहे थे। बोले- 'अच्छा तुम्हारे चाचाजी आए हैं।
आऊँगा अभी जरा खेत की ओर जा रहा हूँ।'
जोगीराय से मिले जमाना हो
गया था और वह अभी उसी तरह मेरे भीतर छाए हुए थे इसलिए उनसे
मिलने की उतावली अनुभव कर रहा था परंतु जोगीराय शाम तक नहीं
आए। रात भी हो गई। एक बार मन में चोट-सी लगी - मुझे कितनी ललक
है इस आदमी से मिलने की, और यह मेरा आना सुनकर भी, बल्कि बुलाए
जाने पर भी नहीं आया। पूरा दिन बीत गया। लोग निहायत कामकाजी हो
गए हैं। किसी को किसी से मिलने की फुरसत कहाँ है, इन दिनों -
चाहे कोई बंबई से आए, चाहे दिल्ली से चाहे सिंगापुर से। ..
नहीं, जोगीराय ऐसे नहीं हो सकते। किसी जरूरी कामकाज में फँस गए
होंगे। आखिर मेरी तरह सभी लोग फुरसत में तो हैं नहीं। जोगीराय
का जीवंत अतीत बार-बार सामने आता था और विश्वास नहीं करने दे
रहा था कि वह इतने ठंडे हो गए हैं कि इतने दिनों बाद अपने बचपन
के प्रिय मित्र से मिलने नहीं आ रहे। ... और मेरे बार-बार न
चाहने पर भी उनका दूर और पास का अतीत मेरे मन पर दस्तक दे रहा
था। अपने तमाम दोस्तों के बीच जोगी जोगी थे। उनका
व्यक्तित्व तो अलग था ही उनका पारिवारिक परिवेश भी कुछ अलग
था। तमाम गरीब ब्राह्मण घरों के बीच जोगीराय का घर संपन्न कहा
जाता था। तमाम कच्चे घरों के बीच उनका पक्का मकान अलग से
चमकता था। उनके घर में एक बड़ा-सा दढि़यल बकरा और एक खूँखार
कुत्ता था। हम लोग उनके घर के पास से गुजरने में डरते थे -
उनका कुत्ता भौंकता हुआ खदेड़ देता था और बकरा भी सामने पड़ने
पर खतरा बन जाता था। यानि कई तरह से उस घर की अलग पहचान बन गई
थी और उसी जोगीराय भी अपनी खुद की पहचान थे। लेकिन अपने पक्के
मकान, कुत्ते, बकरे के आतंक से अलग एक व्यंग-विनोद की पहचान।
अन्य सारे साथी एक-दूसरे के जैसे दिखाई पड़ सकते थे किंतु
जोगीराय बस जोगीराय थे - अपने में मस्त, अवधूत और खिलंदड़।
मुझे याद है कि वह पाँच-छ: साल तक गाँव में नंगे घूमते थे, कोई
परवाह नहीं किसी के कुछ-कहने सुनने की। लोग छेड़ते थे तो वह
हँसते थे, रोते हुए घर नहीं भागते थे। कभी मेंढक पकड़कर, कभी
केंचुआ पकड़कर, कभी हाथ में जोंक लेकर अपने दोस्तों को
पकड़ाते थे। वे रोते हुए भागते थे और जोगी हँसते रहते थे।
एक कोई मोटे
पेट वाला अतिथि उनके यहाँ आया। वह दोपहर को सोया हुआ था। में
जोगीराय के साथ खेलता हुआ उनके घर पहुँचा तो जोगीराय उस अतिथि
को देखकर खड़े हो गए और मुस्कराते हुए इशारा करने लगे। मैं
समझ नहीं पा रहा था कि वे क्या सोच रहे हैं, क्या करना चाहते
हैं। फिर पास से ही एक तिनका ले आए और अतिथि की गहरी ठोढी में
डालकर गुदगुदी करने लगे। मुझे हँसी आ रही थी और डर भी लग रहा
था कि जोगीराय खुद तो इसका फल भोगेंगे ही, मुझे भी सहना
पड़ेगा। मैंने इशारों से उन्हें मना भी किया किंतु वे मंद-मंद
मुस्कराते हुए उसकी ठोढी में तिनका हिलाए जा रहे थे। वह नींद
में अटपटापन अनुभव कर करवट बदल लेता था। कुछ देर बाद फिर
जोगीराय का काम शुरू हो जाता था। थोड़ी देर बाद आजिज आकर वह
मेहमान जाग गया। अधकचरी नींद के नाते उसकी आँखें लाल-लाल थीं।
जोगीराय खिलखिलाते हुए
अंदर भाग गए। मैं भी डरकर घर लौट आया। दूसरे दिन जोगीराय मिले
तो पूछा - 'क्या हुआ?'
'अरे भाई बड़ी मार पड़ी। उसने मेरे बाप से कह दिया और मेरी
जमकर धुनाई हुई।' कहकर जोगीराय खिलखिलाकर हँसने लगे।
'अरे, तुम मार खाने की कथा सुनाकर इतना हँस रहे हो?'
'अरे, मान न खाई जाए तो फिर छेड़छाड़ का मजा ही क्या है यार?
देखो, आज वह सोएगा तो फिर वही करूँगा जो कल किया था। कितना मजा
आ रहा था यार उसकी गहरी ठोढी में लकड़ी कोंचने में। देखा नहीं,
गुदगुदी से उसका मोटा पेट कैसे हिलता था।'
न जाने कितने छोटे-मोटे प्रसंग जोगीराय की हँसी और सजा से भीगे
हुए हैं। जोगीराय जो अब गर्दन को झटका देते हुए चलते हैं, वह
भी उनकी हँसी की ही सजा है। हमारे एक अध्यापक थे। वे रह-रहकर
गर्दन को झटका देते थे। जोगीराय उन्हें देखते थे, मुस्कराते
थे और बाद में खिलखिलाकर हँसते थे। कहते थे - 'कैसा उल्लू
मास्टर मिला है हम लोगों को।
गर्दन यों फेंकता रहता है जैसे
उसे मिरगी आ रही हो।'
जोगीराय पढ़ने में बहुत सामान्य थे। क्लास में मास्टरों के
पूछने पर सही जवाब नहीं दे पाते थे इसलिए पिटते भी थे। उस दिन
उसी गर्दन झटक मास्टर की क्लास में हम बैठे हुए थे।
उन्होंने मार्क कर लिया कि जोगी उनकी गर्दन-झटक देखकर
मुस्करा रहा है। गुस्से में उसने कोई सवाल पूछ लिया। जोगीराय
उसी तरह गर्दन झटकते हुए कहा कि जवाब नहीं सूझ रहा है। फिर
क्या था, उन पर गर्दन-झटक मास्टर का गुस्सा उतरना ही था। जब
लोग छुट्टी में घर लौट रहे थे तो हमने कहा - 'हाय बेचारे जोगी
को बड़ी मार पड़ गई।'
जोगी खिलखिलाकर सामने आ गए - 'अरे यार, छोड़ो मार-वार की। जो
मजा उसे चिढ़ाने में आया, उसके बारे में सोचो।' और जोगी
बार-बार गर्दन झटककर दोस्तों का मनोरंजन करने लगे। फिर तो
उनका शगल हो गया और कुछ दिनों बाद
स्वयं उनकी आदत पड़ गई। अब वे
झटके पर झटका देते हुए चलते रहते हैं।
जोगीराय तथा उन जैसे लोगों के बारे में मैं बाद में सोचता रहा
हूँ कि उन्हें अवसर मिला होता तो क्या उनकी वह
व्यंग-विधायिनी प्रतिभा साहित्य में चमकी न होती, जो बचपन या
युवावस्था में एक हल्के-फुल्के विनोद और शरारत के रूप में
ली जाती रही है। जोगीराय जिस तरह व्यंग-विनोद की कथाएँ गढ़ते
थे, उससे उनके भीतर छिपी हुई शक्ति के संकेत मिलते थे। उन्हें
अवसर मिला होता तो क्या वह दूसरे हरिशंकर परसाई नहीं बने
होते। उनके व्यंग्य-विनोद अपने आस-पास की जीवंत स्थितियों एवं
चरित्रों से फूटते थे और सबसे बड़ी बात यह थी कि वे स्वयं
अपने व्यंग्य-विनोद को जीते थे, उनके परिणामों को
हँसते-मुस्कराते झेलते थे। बल्कि उनकी मान्यता थी कि
व्यंग्य-विनोद करने का मजा ही क्या, यदि उसकी सजा न मिले।
अब तो आलम यह है कि बड़े से बड़े व्यंगकार सुरक्षित होकर
व्यंग्य करते हैं। यानि वे चाहते हैं कि वह दूसरों पर चोट तो
करें किंतु वे स्वयं सुरक्षित रहें। यदि उन्हें कोई प्रतिफल
भोगना पड़ता हे तो साहित्य में हाय-तौबा मच जाती है। जोगीराय
किसी पर हमला नहीं करते थे, बस विनोद करते थे और जीते थे।
हम लोगों के सहपाठी थे इंद्रासन। वह वैसे तो शक्तिशाली थे,
किंतु थे थोड़े स्त्रैण स्वभाव के। उनकी चाल में, उनकी बोली
में जनानापन था। एक दिन जोगीराय ने दोस्तों के बीच उड़ा दिया
कि इंद्रासन साड़ी और टिकरी कैरैया (माथे पर पहनने का एक गहना)
पहनकर लड़कियों के साथ गीत गाते जा रहे थे।
'धत्त, लबार कहीं का। अंड-बंड बकता रहता है।' हममे से किसी ने
डाँटा।
'अरे, आप लोग झूठ मान रहे हैं। उन्होंने यह टिकरी कैरैया तो
खासतौर पर कलकत्ता से अपने चाचा से मंगाई है।' जोगी हँसने
लगा।
'कलकत्ता से?'
'हाँ, आप लोग नहीं जानते? अरे इस बार इंद्रासन के चाचा
कलकत्ता जाने लगे तो उन्होंने पूछा - अरे, इंद्रासन इस बार
आऊँगा तो तुम्हारे लिए क्या-क्या लाऊँगा?'
इंद्रासन चुप रहे। तो चाचा ने पूछा - 'धोती-कुर्ता?'
इंद्रासन चुप।
'जूता, टोपी?'
इंद्रासन चुप।
'छाता, घड़ी, कलम। कुछ तो बोलो।'
इंद्रासन चुप रहे तो चाचा ने जोर देकर कहा - अरे बोलता क्यों
नही? एकाएक हाथ चमकाते हुए इंद्रासन बोल पड़े - ए चाचा, मेरे
लिए तो लाइएगा टिकरी कैरैया रैया-रैया-रैया-रैया ...
जोगी ने जो नकल करके बताया तो सभी लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो
गए।
'तो क्या हुआ?'
'फिर तो चाचा ने इंद्रासन की पीठ पर एक लात मारकर कहा - भाग
साला जनखा। हमारे घर में तुम्हीं को पैदा होना था।'
'तो फिर क्या टिकरी कैरैया भेजा उन्होंने?'
'अरे वे काहे को भेजते?'
'तुम्हीं तो कह रहे थे कि कलकत्ता से मंगाई हुई टिकरी कैरैया
पहनकर वह गा-बजा रहे थे।'
'हाँ, वे लड़कियों से कह
तो यही रहे हैं कि यह कलकत्ता से आई है लेकिन उन्होंने यहीं
के सोनार से बनवा ली हैं। सोनार मुझको बता रहा था।'
कुछ दिनों बाद हम लोग शाम को खेत में रामलीला का खेल खेलने के
लिए जुटे। यह तय होने लगा कि कौन क्या बनेगा? और सारे पार्ट
तो बंट गए, कोई सीता बनने को तैयार नहीं था। यहाँ तक कि
इंद्रासन भी नहीं। वे लक्ष्मण बनने की जिद कर रहे थे। हममे से
ही किसी ने कहा - 'अरे भाई तुम जिस योग्य हो उसका पार्ट लो।
तुम तो लड़कियों के बीच साड़ी पहनकर गाते-बजाते हो और
तुम्हारे पास कलकत्ता से मंगाई गई टिकरी कैरैया भी है। तुम
यह सब पहनकर सीता के रोल में खूब जमोगे।'
इंद्रासन उत्तेजित हो गया और झगड़ा करने को तैयार हो गया तो,
उस लड़के ने कहा, 'मुझसे क्यों झगड़ते हो? जिस आदमी ने यह
सूचना दी है उससे निबटो।'
और उसके बाद कई दिन तक गाली देते हुए इंद्रासन जोगीराय को
खोजते रहे और जोगीराय छिप-छिपकर बचते रहे और हँसते रहे। पूरे
गाँव में हल्ला हो गया टिकरी कैरैया का। इंद्रासन जहाँ से
गुजरते, किसी गली से आवाज आती - टिकरी
कैरैया रैया रैया रैया।' फिर तो
तंग आकर इंद्रासन ने खुद ही जोगीराय का पीछा छोड़ दिया।
मेरे एक सहपाठी थे रामलाल। एक दिन देखा कि वे गाली देते हुए
जोगीराय को खदेड़ रहे हें और जोगीराय हँसते हुए भाग रहे हैं।
मैं पहुँच गया और रामलाल को पकड़ लिया। और भी लड़के जुट आए।
जोगीराय थोड़ी दूर पर खड़े मुस्करा रहे थे। मैंने पूछा, 'बात
क्या है भाई? इस तरह जोगीराय पर खफा क्यों हो?'
'बात क्या है, यह जोकर साला कुछ न कुछ गढ़ता रहता है।'
'आखिर हुआ क्या?'
एक लड़के ने बताया कि जोगीराय कह रहा था कि पिछले साल जब
तिरबेनी और हरेकृष्ण बाबा प्रयाग नहाने गए थे तो।
'हाँ तो, तो क्या?' |