पर वह लड़का लोहे का फाटक
थामे खड़ा था... खामोश...। पूरे स्टेडियम में वह उसकी ख़ास जगह
थी। ईडन गार्डन में होने वाले हर मैच के दौरान लोहे के उस फाटक
के पास आकर खड़ा हो जाता। वहाँ खड़े-खड़े वह खेल के खत्म होने
का इंतज़ार करता। पुलिस वालों से लेकर मैदान की चौकीदारी करने
वाले उसे पहचानते थे। इसलिए उसे वहाँ खड़ा होने से कोई मना
नहीं करता था। ड्रेसिंग रूम से क़रीब होने की वजह से वहाँ से
खिलाड़ी भी दिखाई देते थे, शायद उसके वहाँ खड़ा होने की एक वजह
यह भी होगी।
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की हडबडाहट थी। टाइपराइटरों की खटाखट के बीच मैं चुपचाप बैठा
उस लड़के को ही घूर रहा था। एक अजब-सा रिश्ता था उस लड़के से मेरा। कोई रिश्ता न होते हुए
भी एक गहरा और आत्मीय रिश्ता। इन रिश्तों का कोई नाम नहीं होता
है लेकिन इसे महसूस किया जा सकता है। उस लड़के के साथ भी कुछ
ऐसी ही बात थी। यों तो राजकुमार नाम रखा था उसके माँ-पिता ने।
उसने बताया था कि उसके नामकरण के समय बहुत बड़ा समारोह हुआ था।
पर समय ने राजकुमार को राजू बना दिया था।
चौदह-पंद्रह साल की उम्र भी
चिंता-फिक्र की कोई उम्र होती है। ये उम्र तो घरौंदे बनाने,
खूबसूरत सपने और साफ़ झकझक शर्ट-पैंट पहन कर स्कूल जाने की
होती है। लेकिन राजू के साथ उल्टा हुआ। उम्र के इस छोटे से
पड़ाव पर ही उस पर माँ और घर की ज़िम्मेदारी आ गई। सपने देखने
वाली आँखों में समय ने उदासी भर दी थी। पता नहीं उसके भीतर
कहाँ और कैसे एक आग सुलगी थी। लेकिन इस आग ने उसके भीतर एक
विश्वास भरा और राजू नन्हें-नन्हें पाँव से संघर्ष की राह पर
चल पड़ा था। उसने अपने जीवन की किताब को मेरे सामने धीरे-धीरे
खोला था...। काफी झिझकते हुए लेकिन एक बार खुल जाने के बाद
उसने मुझसे कुछ भी नहीं छुपाया था।
उससे मुलाक़ात भी अजीबो-गरीब
तरीक़े से ही हुई थी। अख़बार में नौकरी मिलने के बाद कलकत्ता
आना हुआ। कलकत्ता को लेकर यह बात तो मशहूर थी कि खेलों से लोग
दीवानगी की हद तक जुड़े हैं। ख़ास कर ईस्ट बंगाल, मोहन बागान
या मोहम्मडन स्पोर्टिमग के बीच होने वाले मैचों को लेकर
दीवानगी इस हद तक है कि लोग एक दूसरे से भिड़ने से भी नहीं
चूकते। इस दीवानगी का नज़ारा भी जल्द ही देखने को मिला। ईस्ट
बंगाल व मोहन बागान के मैच रिपोर्ट के दौरान लोगों के जुनून का
पता चलने में देर नहीं लगी। कलकत्ता के इस चेहरे से यह मेरी
पहली मुलाक़ात थी। दोनों टीमों के समर्थकों का जोश और दीवानगी
पूरे स्टेडियम एक अजब समाँ पैदा करने वाली थी।
पहली बार राजू को इसी मैच के
दौरान देखा था। बारह-तेरह साल के उदास-उदास आँखों वाले इस
लड़के ने मैच के बाद कुर्सियों पर बिछे अख़बार को चुनना शुरू
कर दिया था। उसी के उम्र के कुछ दूसरे लड़के भी इस काम में लगे
थे। अचानक ही अख़बार चुनने के काम में लगे दूसरे भी इस काम को
घेर कर उसके साथ पहले तो धक्का-मुक्की की फिर उसके हाथों से
रद्दी अख़बारों का बंडल छीन लिया। चार-पाँच लड़कों के बीच घिरे
उस असहाय लड़के की आँखों की उदासी ने पल में मुझे अंदर तक भेद
दिया था।
पता नहीं उसकी आँखों में ऐसा क्या था कि मेरे क़दम
उसकी तरफ़ बढ़ गए थे। उस लड़के को उन पाँचों से न सिर्फ़ बचाया
था बल्कि उसके अख़बार के बंडल को भी उनसे लेकर उसे वापस किया
था। अख़बार हाथ में लेते वक़्त अचानक उसकी आँखें भर आईं थीं।
यह राजू से मेरी पहली मुलाक़ात थी। और यहीं से मेरे और उसके
बीच पनपा था एक रिश्ता। अनाम रिश्ता।
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