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                     इसके बाद तो वह हर मैच में 
                    दिखाई पड़ता... एक ही स्टाइल में... मैच के बाद अख़बार चुनता 
                    हुआ। मुझे देख कर पास आता। मुस्कराता... हाल समाचार पूछता और 
                    फिर अपने काम में लग जाता। मुझसे वह धीरे-धीरे खुला था। उसने 
                    अपनी कहानी बताई थी किस्तों में... पिता पुलिस में बड़े पद पर 
                    थे। उन्होंने प्रेम-विवाह किया था। दोनों अलग-अलग जात के थे 
                    इसलिए पिता के घरवालों ने माँ को नहीं स्वीकारा। पर पिता जी 
                    माँ के साथ सुखी थे। फिर अचानक जैसे सब कुछ थम-सा गया। तब उसकी 
                    उम्र कोई दस साल रही होगी। पिता एक ऑपरेशन में मारे गए... और 
                    इसी के साथ शुरू हुआ अंधेरों का सफ़र। पिता की मौत के बाद 
                    सरकार और पुलिस विभाग से सिर्फ़ आश्वासनों का ही रिवार्ड मिला। 
                     
                    सरकारी दफ़्तरों और बाबुओं के चक्कर काटते-काटते माँ के तलवे 
                    घिस गए। पर पिता के पी.एफ. व दूसरे जमा पैसे अब तक नहीं मिले। 
                    माँ को नौकरी देने का वादा भी काग़ज़ों से आगे नहीं बढ़ा। तब 
                    मजबूरन माँ को छोटी-मोटी नौकरी करनी पड़ी। वह चाहती थीं कि मैं 
                    पढ़ लिख कर अपने पैर पर खड़ा हो सकूँ। पढ़ना मैं भी चाहता हूँ 
                    इसलिए अपने तरीक़े से मेहनत कर कुछ पैसा जमा कर लेता हूँ ताकि 
                    माँ पर कम बोझ आए। बड़े मैचों में अख़बार बटोर कर वह दस-बीस 
                    रुपए की ऊपरी आमदनी कर लेता है। टेस्ट और वन डे मैचों में तो 
                    आमदनी और भी ज़्यादा होती है।  
                    और भी ढेर सारी बातें उसने बताई 
                    थीं... कई बार उसे मैंने पैसे देने की कोशिश भी की थी। पर उसने 
                    साफ़ मना कर दिया था 'एक बार ले लूँगा तो फिर माँगने की आदत 
                    पड़ जाएगी... प्लीज़ मुझे खुद की नज़र में शर्मिंदा न करें।' 
                    और मैं ख़ामोश हो जाता था। अनुभव ने उसे उम्र से कहीं बड़ा कर 
                    दिया था। हाँ इसके बाद इतना ज़रूर करता कि अपने साथ तीन-चार 
                    अख़बार मैच में ले जाता और उससे छुपा कर इस तरह रखता कि उसे यह 
                    न लगे कि मैं अंजाने में भी उसकी मदद कर रहा हूँ।'' 
                    'ख़बर नहीं भेजनी है'- मुझे 
                    खामोश देख कर सौमित्र ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। 
                    ''भेजनी है...।'' सौमित्र की आवाज़ सुन कर मैं चौंका। फिर धीरे 
                    से उसके सवाल का जवाब दिया... लेकिन थोड़ा ठहर कर। 
                    इतना कह कर मैं नीचे चल बड़ा राजू से मिलने। 
                    मुझे देख कर एक उदास मुस्कुराह़ट उसके होंठों पर उभरी। मैं 
                    उसकी उदासी का सबब पूछता हूँ। वह टालता है। ज़ोर देने पर कहता 
                    है, ''माँ कई दिनों से बीमार है। काम पर नहीं जा पाई। सोचा था 
                    यहाँ सेमी फाइनल व फाइनल मैच है तो माँ की दवा के लिए कुछ पैसे 
                    हाथ आ जाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। वह ख़ामोश हो गया। 
                    लेकिन उसकी निगाहें अख़बारों को मशाल की तरह जलाते लोगों पर 
                    टिक-सी गईं थी। जलते हुए अख़बारों ने राजू की आँखों की उदासी 
                    और बढ़ा दी थी। 
                    मेरी समझ में सारी बात आ चुकी 
                    थी... फ्लडलाइट की दूधिया रोशनी में अज़हर और उसके साथी अभी भी 
                    ट्राफी को सर पर उठाए चक्कर लगा रहे थे। मेरी आँखों के सामने 
                    एक चेहरा उभरता है। एक बीमार औरत का और फिर लगा कि पूरा 
                    स्टेडियम रोशनियों के बावजूद अंधेरे में डूबता जा रहा है। 
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