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                    दोनों आमने-सामने बैठे थे-काले 
                    शीशों का परदा आँखों पर डाले बूढ़ा और मुँह में सिगार दबाए, 
                    होठों के दाएँ खखोड़ से फुक-फुक धुँआ फेंकता फ्रेंचकट युवा। 
                    चेहरे पर अगर सफेद दाढ़ी चस्पाँ कर दी जाती और चश्मे के एक शीशे 
                    को हरा पोत दिया जाता तो बूढ़ा 'अलीबाबा और चालीस चोर' का सरदार 
                    नज़र आता। और फ्रेंचकट? लम्बोतरे चेहरे और खिंची हुई भवों के 
                    कारण वह चंगेजी-मूल का लगता था।1
 आकर बैठे हुए दोनों को शायद 
                    ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा था, क्योंकि मेज़ अभी तक बिल्कुल 
                    खाली थी।
 बूढ़े ने बैठे-बिठाए एकाएक कोट की दायीं जेब में हाथ घुमाया। 
                    कुछ न मिलने पर फिर बायीं को टटोला। फिर एक गहरी साँस छोड़कर 
                    सीधा बैठ गया।
 ''क्या ढूँढ रहे थे?'' फ्रेंचकट ने पूछा,''सिगार?''
 ''नहीं…''
 ''तब?''
 ''ऐसे ही…'' बूढ़ा बोला, ''बीमारी है थोड़ी-थोड़ी देर बाद जेबें 
                    टटोल लेने की। अच्छी तरह पता है कि कुछ नहीं मिलेगा, फिर भी…''
 इसी बीच बेयरा आया और मेज पर मेन्यू और पानी-भरे दो गिलास टिका 
                    गया। अपनी ओर रखे गिलास को उठाकर मेज पर दायीं तरफ सरकाते हुए 
                    बूढ़े ने युवक से पूछा, ''और सुनाओ…किस वजह से…?''
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