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                     ''सिगार लेंगे?'' बूढ़े के सवाल 
                    का जवाब न देकर अपनी ओर रखे पानी-भरे गिलास से हल्का-सा सिप 
                    लेकर युवक ने पूछा। ''नहीं,'' बूढ़ा मुस्कराया,''बिल्कुल पाक-साफ तो नहीं हूँ, 
                    लेकिन कुछ चीजें मैं तभी इस्तेमाल करता हूँ जब उन पर मुझे मेरे 
                    कब्जे का यकीन हो जाए।''
 ''आप जैसा चाहें।'' युवक भी मुस्करा दिया।
 ''…मैं सिर्फ़ तीस मिनट ही यहाँ रुक सकता हूँ।'' बूढ़ा बोला।
 इस बीच ऑर्डर की उम्मीद में बेयरा दो बार उनके आसपास मँडरा 
                    गया। उन्होंने उसकी तरफ़ जैसे कोई तवज्जो ही नहीं दी, अपनी 
                    बातों में उलझे रहे।
 ''मैं तहे-दिल से शुक्र-गुज़ार हूँ आपका कि एक कॉल पर ही आपने 
                    चले आने की कृपा की…।'' युवक ने बोलना शुरू किया।
 ''निबन्ध मत लिखो। काम की बात पर आओ।'' बूढ़े ने टोका।
 ''बात दरअसल यह है कि आपसे एक निवेदन करना है…''
 ''वह तो तुम मोबाइल पर भी कर सकते थे!''
 ''नहीं। वह बात न तो आपसे मोबाइल पर की जा सकती थी और न आपके 
                    ऑफ़िस में।'' युवक बोला,''यकीन मानिए…मैं बाई-हार्ट आपका मुरीद 
                    हूँ…।''
 ''फिर निबन्ध?''
 ''क्या ले आऊँ सर?'' ऑर्डर के लिए उन्हें पहल न करते देख बेयरा 
                    ने इस बार बेशर्मी से पूछा।
 ''अँ…बताते हैं अभी…दस मिनट बाद आना।'' चुटकी बजाकर हाथ के 
                    इशारे से उसे टरक जाने को कहते हुए युवक बोला।
 ''फिलहाल दो कॉफी रख जाओ, फीकी…शुगर क्यूब्स अलग से।'' बेयरा 
                    की परेशानी को महसूस कर बूढ़े ने ऑर्डर किया।
 बेयरा चला गया।
 ''कॉफी…तो…जहाँ तक मेरा विचार है…आप लेते नहीं हैं!''
 ''तुम तो ले ही लेते हो।''
 ''हाँ, लेकिन दो?…आप अपने लिए भी कुछ…।''
 ''नहीं, मेरी इच्छा नहीं है इस समय कुछ भी लेने की।'' बूढ़ा 
                    स्वर को रहस्यपूर्ण बनाते हुए बोला,''लेकिन…दो हट्टे-कट्टे 
                    मर्द सिंगल कॉफी का ऑर्डर दें, अच्छा नहीं महसूस होता। इन 
                    बेचारों को तनख़्वाह तो ख़ास मिलती नहीं हैं मालिक लोगों से। 
                    टिप के टप्पे पर जमे रहते हैं नौकरी में। यह जो ऑर्डर मैंने 
                    किया है, ज़ाहिर है कि बिल-भुगतान के समय कुछ टिप मिल जाने का 
                    फ़ायदा भी इसको मिल ही जाएगा।…लेकिन उसकी मदद करने का पुण्य 
                    कमाने की नीयत से नहीं दिया है ऑर्डर। वह सेकेण्डरी है। 
                    प्रायमरीली तो अपने फ़ायदे के लिए किया है।…''
 ''अपने फ़ायदे के लिए?'' युवक ने बीच में टोका।
 ''बेशक… कॉफी रख जाएगा तो कुछ समय के लिए हमारे आसपास मँडराना 
                    बन्द हो जाएगा इसका। उतनी देर में, मैं समझता हूँ कि तुम्हारा 
                    निबन्ध भी पूरा हो जाएगा। अब…काम की बात पर आ जाओ।''
 
                    फ्रेंचकट मूलत: राजनीतिक 
                    मानसिकता का आदमी था और बूढ़ा अच्छी-खासी साहित्यिक हैसियत का। 
                    युवक ने राजनीतिज्ञ तो अनेक देखे थे लेकिन साहित्यिक कम। बूढ़े 
                    ने राजनीतिज्ञ भी अनेक झेल रखे थे और साहित्यिक भी। कुछ कर 
                    गुज़रने का जज़्बा लिए युवक राजनीति के साथ-साथ साहित्य के 
                    अखाड़े में भी ज़ोर आजमा रहा था। उसके राजनीतिक सम्बन्ध अगर 
                    कमज़ोर रहे होते और वह अगर लेशमात्र भी नज़र-अन्दाज़ होने की 
                    हैसियत वाला आदमी होता तो अपना ऑफिस छोड़कर बूढ़ा उसके 
                    टेलीफोनिक-आमंत्रण पर एकदम-से चला आने वाला आदमी नहीं था। ''काम की बात यह है कि…आप से एक निवेदन करना था…''
 ''एक ही बात को बार-बार दोहराकर समय नष्ट न करो…'' सरदार वाले 
                    मूड में बूढ़ा झुँझलाया।
 ''आप कल हिन्दी भवन में होने वाले कार्यक्रम में शामिल न होइए, 
                    प्लीज।''
 ''क्यों?'' यह पूछते हुए उनकी दायीं आँख चश्मे के फ्रेम पर आ 
                    बैठी। काले शीशे के एकदम ऊपर टिकी सफेद आँख। गोलाई में आधा 
                    छिलका उतारकर रखी गई ऐसी लीची-सी जिसके गूदे के भीतर से उसकी 
                    गुठली हल्की-हल्की झाँक रही हो। उसे देखकर फ्रेंचकट थोड़ा चौंक 
                    ज़रूर गया, लेकिन डरा या सहमा बिल्कुल भी नहीं।
 ''आ…ऽ…प नहीं होंगे तो ज़ाहिर है कि अध्यक्षता की बागडोर मुझे 
                    ही सौंपी जाएगी। इसीलिए, बस…'' वह किंचित संकोच के साथ बोला।
 ''बस! इतनी-सी बात कहने के लिए तुमने मुझे इतनी दूर हैरान 
                    किया?'' यह कहते हुए बूढ़े की दूसरी आँख भी काले चश्मे के फ्रेम 
                    पर आ चढ़ी। पहले जैसी ही- गोलाई में आधी छीलकर रखी दूसरी 
                    लीची-सी।
 बेयरा इस दौरान कॉफी-भरी 
                    थर्मस और कप-प्लेट्स वगैरा रखी ट्रे को मेज पर टिका गया था। 
                    युवक ने थर्मस उठाकर एक कप में कॉफी को पलटने का उद्यम करना 
                    चाहा।''नहीं, थर्मस को ऐसे ही रखा रहने दो अभी।'' बूढ़े ने धीमे 
                    लेकिन आक्रामक आवाज़ में कहा। वह आवाज़ फ्रेंचकट को ऐसी लगी 
                    जैसे कोई खुले पंजों वाली कोई भूखी चील अपने नाखूनों से उसके 
                    नंगे जिस्म को नोंचती-सी निकल गई हो। आशंकित-सी आँखों से उसने 
                    बूढ़े की ओर देखा- वह भूखी चील लौटकर कहीं वापस तो उसी ओर नहीं 
                    आ रही है? और उसकी आशंका निर्मूल न रही, चील लौटकर आई।
 ''कार्यक्रम का अध्यक्ष तो मैं अपने होते हुए भी बनवा दूँगा 
                    तुम्हें!…'' उसी आक्रामक अन्दाज़ में बूढ़ा बोला,''मैं खुद 
                    प्रोपोज़ कर दूँगा।''
 ''आपकी मुझपर कृपा है, मैं जानता हूँ।'' चील से अपने जिस्म को 
                    बचाने का प्रयास करते हुए युवक तनिक विश्वास-भरे स्वर में 
                    बोला,''महत्वपूर्ण मेरा अध्यक्ष-पद सँभालना नहीं, उस पद से 
                    आपको दो-चार गालियाँ सर्व करना होगा।…और वैसा मैं आपकी 
                    अनुपस्थिति में ही कर पाऊँगा, उपस्थिति में नहीं।''
 उसकी इस बात को सुनकर बूढ़े ने 
                    फ्रेम पर आ टिकी दोनों लीचियों को बड़ी सावधानी से उनकी सही जगह 
                    पर पहुँचा दिया। चील के घोंसले से माँस चुराने की हिमाकत कर 
                    रहा है मादरचोद! -उसने भीतर ही भीतर सोचा। बिना प्रयास के ही 
                    प्रसन्नता की एक लहर-सी उसकी शिराओं में दौड़ गई जिसे उसने बाहर 
                    नहीं झलकने दिया। बाहरी हाल यह था कि अपनी जगह पर सेट कर दी 
                    गईं लीचियाँ एकाएक एक-साथ उछलीं और फ्रेम से उछलकर सफेदी पकड़ 
                    चुकी भवों पर जा बैठीं। 
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