चरित्र-परिचय
पिछड़ी जाति
के ख़बरनवीस दरअसल ख़बरनवीस थे ही नहीं। वे विद्वान लोग थे।
अलग-अलग अख़बारों-पत्रिकाओं में नौकरी करने के बावजूद उनमें एक
साम्य यह था कि वे अपने आसपास के समाज और वातावरण से असंतुष्ट
और दुखी थे। वे मोटी-मोटी किताबें पढ़ते थे। समाज बदलने के
विभिन्न रास्तों पर गंभीर बहसें करते थे। देश में हो रहे
दंगे-फसादों को देख चिंतित होते थे। पुरस्कार प्राप्त करते थे
और पुरस्कार देने वाली समितियों के सदस्य भी थे। वे भाषा के
धनी थे। कल्पनाशील थे। मेधावी थे। एक-दूसरे का सम्मान करते थे
लेकिन अपने-आप में सिमटे रहते थे। वे कविताएँ लिखते थे।
कहानियाँ लिखते थे। आलोचनाएँ लिखते थे। सेमिनारों में भाषण
देते थे। वे सिगरेट भी पीते थे, बीड़ी भी और सिगार भी। उनका
कोई ब्रांड नहीं था। सुविधा और सहजता से जो भी मिल जाए उसे
अपना लेते थे। वे जोखिम मोल नहीं लेते थे और दुखी रहते थे कि
व्यवस्था बदल नहीं रही है। वे रम भी पी लेते थे और व्हिस्की
भी। मात्रा कम हो तो वे रम और व्हिस्की को मिलाकर पी लेते थे।
पी लेने के बाद भावुक हो जाना उनकी कमज़ोरी थी। पीने के बाद
कभी वे 'हम होंगे कामयाब' वाला गीत गाते थे, कभी अपने न होने
के बाद के शून्य और अभाव के भाव कविताओं में दर्ज करते थे। हर
सुंदर स्त्री से प्रेम करने को वे आतुर रहते थे और पत्रकारिता
के लगातार गिरते स्तर से क्षुब्ध रहते थे। उन्हें पत्रकारिता
को सृजनशीलता से जोड़े रखने की गहरी चिंता थी और अपनी प्रतिभा
पर उन्हें नाज़ था। वे सब अपने-अपने मालिकों को धनपशु कहते थे
और उनकी सनकों-आदतों पर ठहाके लगाते थे। पत्रकारिता की दुनिया
में वे खुद को श्रेष्ठतम और योग्यतम मानते थे और इस बात पर
हैरान रहते थे कि जब भी कोई नया अख़बार शुरू होता है तो उनके
पास बुलावा क्यों नहीं आता है।
सवर्ण जाति
के ख़बरनवीस भी दरअसल ख़बरनवीस नहीं थे। यश, धन और सत्ता की
उच्चाकांक्षा लेकर वे पत्रकारिता में घुसे थे और आँख बचाकर
राजनीति के गलियारे में दाखिल हो गए थे। वे किताबें नहीं पढ़ते
थे, राजनेताओं का जीवन-परिचय रटते थे। अपने मालिकों का वे बहुत
सम्मान करते थे। और उनकी संतानों तक को खुश रखते थे। तस्करों,
अधिकारियों और दिग्गज नेताओं से उनके सीधे ताल्लुक थे। वे
ख़बरों के लिए मारे-मारे नहीं घूमते थे बल्कि ख़बरें उनके पास
चलकर आती थीं। वे अपनी जेबों में गुप्त टेप रिकॉर्डर रखते थे
और विशेष बातों को टेप कर लिया करते थे। वे जींस पहनते थे,
स्कॉच पीते थे और कारों में चलते थे। वे मंत्रियों के साथ हवाई
जहाज़ों में उड़ते थे और चुनाव के समय छुटभैयों को टिकट दिलाते
थे। उनके नाम से नौकरशाही काँपती थी और उनके काम से
उद्योगपतियों को कोटे-परमिट मिलते थे। निष्ठा, प्रतिबद्धता और
विद्वता को वे उपहास की चीज़ समझते थे और साहित्य तथा संस्कृति
को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। लोग इन्हें प्रोफेशनल कहते थे और
स्टार मानते थे। जब भी कोई नया अख़बार शुरू होता था, तो इन्हीं
के पास बड़े-बड़े पदों के लिए प्रस्ताव आते थे। बीसवीं शताब्दी
के जाते हुए वर्षों ने इन्हें पहचाना था और हाथ पकड़कर सवर्ण
जाति की कतार में खड़ा कर दिया था।
यह कथा
इन्हीं दो जातियों के उत्थान और पतन, द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व
तथा हर्श और विषाद का साक्ष्य है। इसे लिख दिया गया है ताकि
सनद रहे और भविष्य में काम आए।
दृश्य : एक
वह मैं नहीं
हूँ, जो मारा गया। पुष्कर जी बार-बार अपने को यही दिलासा देने
का प्रयास कर रहे थे पर जो घटा था उनके साथ, वह इतना नंगा और
सख़्त था कि अपनी उपस्थिति उन्हें शर्म की तरह लग रही थी।
दर्शक दीर्घा जैसे तालियों से गूँज रही थी और वह विदूषक की तरह
खड़े थे मंच पर-एकदम अकेले और असुरक्षित। दर्शकों का शोर
क्रमश: उग्र हो रहा था और ज़मीन थी कि फट नहीं रही थी, परदा था
कि गिर नहीं रहा था। सीधे हाथ की उँगलियों में बुझी बीड़ी लिए
वह कुर्सी पर इस तरह बैठे हुए थे मानो किसी मूर्तिकार का शिल्प
हों। पूरे दस वर्षों की मेहनत और प्रतिबद्धता एक असंभव लेकिन
क्रूर मज़ाक की तरह उन्हें मुँह चिढ़ा रही थी और दु:स्वप्न था
कि शेष ही नहीं हो रहा था। अपने सामने पड़ी मैनेजमेंट की तीन
लाइन की चिट्ठी उन्होंने फिर पढ़ी। एकदम साफ़ लिखा था : 'आप ने
पाठक वर्ग को समझ नहीं पा रहे हैं इसलिए फिल्म के पेज विनय को
सौंप दें। नया कार्यभार मिलने तक आप चाहें, तो छुट्टी पर जा
सकते हैं।'
सब कुछ कितना
पारदर्शी था! कहीं कोई पेंच नहीं, अस्पष्टता नहीं। मैनेजमेंट
ने उनसे उनके वे पेज ही नहीं छीने थे, जो उन्होंने अपने दस
वर्षों की मेहनत, ज्ञान, प्रतिभा और सक्रियता से सँवारे थे,
प्रतिष्ठित किए थे बल्कि उनकी पेशेवर क्षमता और फिल्म माध्यम
की समझ को भी नकार और लताड़ दिया था। कहाँ असफल हुए वे? कौन
नहीं समझ पा रहा है पाठक वर्ग को? कौन-सा पाठक वर्ग? अख़बार
क्या अब मनोरंजक सिनेमा की तर्ज़ पर निकलेंगे? उनके पन्नों को
अब विनय देखेगा, जो सिनेमा की ए बी सी डी भी नहीं जानता,
तारकोवस्की और गोदार का नाम सुनकर जिसे गश आ जाता है और मिथुन
चक्रवर्ती को जो सर्वश्रेष्ठ हीरो मानता है और श्रीदेवी पर जो
फिदा है? गहरे अवसाद की गिरफ्त में थे पुष्कर जी। 'नया
कार्यभार मिलने तक वह चाहें, तो छुट्टी पर जा सकते हैं' -क्या
मतलब है इसका? पुष्कर जी को सब कुछ साफ़ समझ आ रहा था,
पत्रकारिता की नई रिजीम में अट नहीं पा रहा है उनका ज्ञान।
अख़बार में उनकी उपस्थिति को व्यर्थ सिद्ध कर देने की कार्रवाई
है यह। फिल्म पत्रकारिता के लिए राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त कर
चुके पुष्कर जी का विकल्प है विनय, जो नए पाठक वर्ग को समझता
है और हमारे गौरवशाली अतीत को संस्कृति का कूड़ेदान कहकर मुँह
बिचकाता है। ठीक है, यही सही। पुष्कर जी ने ठंडी साँस ली और
सोचा, हाशिये पर ही सही लेकिन रहेंगे वह तनकर ही।
दृश्य : दो
पुराने
संपादक को हटाकर नए संपादक को लाए जाने के क्षोभ से मुक्त भी
नहीं हुए थे प्रवीण जी कि अभी-अभी आए सुमन जी के फोन ने उन्हें
और उद्विग्न कर दिया। सुमन जी ने सूचित किया था कि उनके अख़बार
के संपादक को डिमोट कर दिया गया है जिसके विरोधस्वरूप वह
इस्तीफ़ा दे गए हैं। कवियों के कवि कहे जाते थे सुमन जी के
संपादक। हिंदी को उन्होंने अनेक नए शब्द दिए थे। उनके संपादन
में निकल रहा अख़बार बौद्धिक संसार की महत्वपूर्ण घटना बना हुआ
था। मैनेजमेंट का तर्क़ था कि स्तर भले ही उठ रहा हो अख़बार
का, लेकिन सर्कुलेशन गिर रहा है। उनकी जगह ३२ वर्ष के जिस युवक
को संपादक बनाकर लाया जा रहा था, वह प्रधानमंत्री के एक
सलाहकार के भाई का भतीजा था।
यानी
पत्रकारिता का पतन शुरू हो गया है। प्रवीण जी ने सोचा। इस पतन
पर पूरी तरह चिंतित भी नहीं हो पाए थे वह कि चपरासी ने आकर
बताया कि उनके नए संपादक ने उन्हें याद किया है। सहसा वह घबरा
गए। उठकर संपादक के केबिन की तरफ़ चले, तो पाया कि पूरा हॉल
उन्हें ही घूर रहा है। अपने सिमटे-सिमटे वजूद को और अधिक
सिमटाकर वह धीरे-धीरे चले और केबिन में घुस गए।
सामने संपादक था। लकदक सफारी में ट्रिपल फाइव पीता हुआ। सुना
था कि यहाँ आने से पहले वह किसी दूसरे देश की प्रसारण सेवा में
था। सामना होने पर उसे ऐसा ही पाया प्रवीण जी ने। अपने यहाँ के
लोगों की तरह थका-थका और चिंताग्रस्त नहीं बल्कि चुस्त-दुरुस्त
और आक्रामक। बहुत अशक्त और असुरक्षित-सा महसूस किया प्रवीण जी
ने खुद को।
'आप साहित्य
देखते हैं?' पूछा संपादक ने। कोई भूमिका नहीं। दुआ-सलाम की कोई
औपचारिता नहीं और कुर्सी पर बैठने का आग्रह करने वाली कोई
शिष्टता नहीं।
आहत हो गए प्रवीण जी। उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में गर्दन हिलायी
मानों साहित्य देखते रहकर वह अब तक एक अक्षम्य अपराध करते आ
रहे हों।
'अगले अंक से साहित्य बंद।' संपादक ने कश लिया। 'आप न्यूज के
पन्नों पर शिफ्ट हो जाइए।'
'लेकिन...' प्रवीण जी की आवाज़ फँस-सी गई। वह खुद एक
प्रतिष्ठित कथाकार थे और अपने सामने किसी सनकी तानाशाह की तरह
बैठे इस नए संपादक को झेल नहीं पा रहे थे। इतने आदेशात्मक स्वर
में उनके पूर्व संपादक ने कभी बात नहीं की थी उनसे। लेकिन वह
अंतर्मुखी स्वभाव के बेहद संकोची व्यक्ति थे इसलिए बहुत-बहुत
चाहने पर भी गुस्से से उखड़ नहीं सके। दबे-दबे शब्दों में
रुक-रुककर बोले, 'लेकिन, हमारी मैगज़ीन के बहुत प्रेस्टीजियस
पेज हैं ये।'
'नाओ यू कैन गो।' संपादक ने सिगरेट ऐश ट्रे में मसल दी और फोन
करने में व्यस्त हो गया।
कई टुकड़ों
में कट चुके अपने जिस्म को लिए-दिए किसी तरह केबिन से बाहर
निकले प्रवीण जी और अपनी सीट पर जाकर धुआँ-धुआँ हो गए।
दृश्य : तीन
बहुत दिन
जब्त नहीं कर सके सुमन जी। अपने नए संपादक पर ताव आ ही गया
उन्हें। आता भी क्यों नहीं? आखिर सहायक संपादक थे। इससे पहले
तीन संपादक भुगत चुके थे। एक संपादक के जाने और दूसरे संपादक
के आने के अंतराल वाले दिनों में अख़बार के कार्यवाहक संपादक
कहलाते थे। अपने पूर्व संपादक के जाने का गम भी शेष नहीं हुआ
था अभी और उस दौर को वह अपना स्वर्णिम अतीत मानते थे। नए
संपादक का आगमन उन्हें वज्रपात-सा लगा था और अख़बार के प्रति
अपनी रागात्मकता में भी दरार-सी आई महसूस की थी उन्होंने। नए
संपादक द्वारा किए जा रहे क्रांतिकारी परिवर्तनों का शुरू में
उन्होंने प्रतिवाद किया भी किया, लेकिन बाद में यह सोचकर ठंडे
पड़ गए कि अख़बार कौन उनके बाप का है। वे नौकर हैं और नौकरी
करते रहना ही नौकर का अंतिम सच है। कला, साहित्य, संस्कृति के
सभी नियमित-अनियमित स्तंभ नए संपादक ने अपने साथ लाए नए लड़कों
को सौंप दिए थे। कविता-कहानी छापने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
सेक्स और ग्लैमर का स्पेस बढ़ा दिया था। धर्म को प्रमुखता से
छापा जाने लगा था। सुमन जी किसी दुखद हादसे की तरह सब कुछ
बर्दाश्त करते आ रहे थे। उनके अख़बार के बारे में जनता की
धारणा बदलने लगी थी और उनके हितैशी उन्हें सलाह देने लगे थे कि
अब आपको इस अख़बार से हट जाना चाहिए। कई बार तो लोग
मज़ाक-मज़ाक में उनके अख़बार को प्रधानमंत्री निवास का मुखपत्र
तक कह डालते थे। सुमन जी जानते थे कि यह सब परिवर्तन मैनेजमेंट
की भाह पर हो रहे हैं क्योंकि मैनेजमेंट में भी अब नए लोग आ गए
थे। ये नए लोग अख़बार से मुनाफ़ा चाहते थे। इस चाहत से सुमन जी
को कोई एतराज़ नहीं था, लेकिन यह बात उनकी बुद्धि में नहीं
अटकती थी कि परिर्वतन की दिशा पतन की ओर जाना क्यों ज़रूरी है।
इन सब तनावों में मुब्तिला रहने के कारण सुमन जी की नींद गायब
रहने लगी थी। लेकिन सुकून खोजने वह जाते भी तो कहाँ? हर
पत्रिका, हर अख़बार में परिवर्तन की यह तेज़ आँधी चल रही थी।
जिस्म दिखाऊ हीरोइनों की तरह सभी तो अपने ज़्यादा-से ज़्यादा
कपड़े उतारने की होड़ में शरीक थे। लेकिन अब पानी सिर के ऊपर
बह रहा था। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के मसले पर अख़बार
ने साफ तौर पर धर्मांध हिंदुओं का प्रवक्ता बनना शुरू किया,
तो सुमन जी बौखला गए। उनकी सोची हुई प्रगतिशीलता ने अंगड़ाई ली
और उठ खड़ी हुई।
एक दिन शाम
के साढ़े सात-आठ बजे के करीब सुमन जी तीन पैग रम पीकर संपादक
के कमरे में घुस गए।
जिस समय सुमन जी संपादक के कमरे में घुसे, वहाँ ठहाके गूँज रहे
थे। अख़बार के ही तीन-चार जूनियर पत्रकारों से घिरा संपादक
अपनी कोई शौर्य-गाथा बयान कर रहा था और उसके सामने बैठे लोग
हैं-हैं, हैं-हैं कर रहे थे।
सुमन जी को यकायक आया देख कमरे में सन्नाटा छा गया। ज्यूनियर
पत्रकारों को आग्नेय नेत्रों से ताका सुमन जी ने, लेकिन
आश्चर्य कि वे बिना सहमे और बिना विचलित हुए उसी तरह बैठे रहे।
'आप लोग जरा बाहर जाएँ।' सुमन जी ने ठंडे स्वर में कहा। वह
अपने क्रोध को गलत जगह जाया नहीं करना चाहते थे।
'सब अपने ही लोग हैं सुमन जी,' संपादक ने सुमन जी के आदेश पर
घड़ों पानी उलट दिया, 'बताइए-बताइए, व्हाट्स द प्रॉब्लम?'
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