''तुम
परेशान मत होना। मैं ऑटो ले लूँगा।....''
बाबू जी ने सकुचाते हुए कहा।
''कार्यक्रम
आठ बजे समाप्त हो जाएगा। लोगों से बिना मिले निकल आऊँगा.....
यहाँ पहुँचने में एक घण्टा तो लग ही जाएगा,
लेकिन आप ऑटो के चक्कर में नहीं पड़ेंगे.....मैं आ जाऊँगा।''
उसने पिता को बॉय किया और गाड़ी स्टार्ट कर सड़क पर उतर गया।
******
अमित जब हारवर्ड पढ़ने गया था,
माँ
जीवित थीं।
पिता रेल मंत्रालय से निदेशक पद से अवकाश प्राप्त कर चुके थे।
माँ-बाप
का वह इकलौता बेटा था।
उन लोगों ने कभी अपनी इच्छाएँ
उस पर नहीं थोंपीं,
लेकिन उसने भी उन्हें कभी निराश नहीं किया।
हारवर्ड जाने के एक वर्ष बाद ही
माँ
का निधन हो गया।
पिता अकेले रह गये।
पटेल नगर के तीन सौ वर्ग गज के उस मकान में नितांत एकाकी।
उसने वापस लौटने की इच्छा व्यक्त की,
लेकिन पता ने पहली बार उसे सख्त आदेश सुनाया,
''मेरे
लिए लौटने की बात तुम्हारे दिमाग में आयी कैसे अमि.... अपनी
शिक्षा पूरी करो।...
''
कुछ देर तक चुप रहे थे बाबू जी और वह सिर झुकाए उनके सामने
बैठा रहा था।
तब वह
माँ
के दसवें पर आया था।
''तुम्हें
दूसरों से कुछ अलग करना चाहिए।....अलग बनना चाहिए। मेरे लिए
अगले दस वर्षों तक तुम्हें सोचने की आवश्यकता नहीं है। नौकरी
से अवकाश ग्रहण किया है।... शरीर और मन से नहीं।
वंदना।...तुम्हारी माँ थी तो अधिक बल था,
लेकिन।...''
पिता फिर चुप हो गए थे।
अतीत में खो गए थे वह। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह धीमे स्वर
में फिर बोले, ''तुम्हें
कुछ ऐसा करना है,
जिससे देश-समाज....देशान्तर को लााभ पहुँचे।....नौकरी सभी कर
लेते हैं,
लेकिन दुनिया उससे आगे भी है.....''
अमित चुपचाप पिता की ओर देखता रहा था।
पढ़ाई समाप्त कर लौटने के बाद पिता ने केवल एक बार पूछा,
''क्या
करना चाहते हो?''
''फिलहाल
नौकरी नहीं।...अपना कुछ करने के विषय में सोच रहा हूँ।''
''अपना।....?''
''पर्यावरण
सम्बन्धी एक संस्था स्थापित करना चाहता हूँ.......''
''हुँह
।''
कुछ देर की चुप्पी के बाद।....कुछ सोचते हुए पिता बोले,
''अच्छा
विचार है।''
संस्था को लेकर उसने देश के पर्यावरणविदों से सलाह करना
प्रारंभ कर दिया।
इसके परिणामस्वरूप सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने पहले उसे
अपने सेमीनारों में श्रोता के रूप में,
फिर वक्ता के रूप में बुलाना प्रारंभ कर दिया था
।
*******
सेमीनार खत्म होते ही वह निकलने लगा।
चाहता था कि कोई उसे देखे,
टोके-रोके,
उससे पहले ही वह गाड़ी में जा बैठे,
लेकिन वैसा हुआ नहीं।
वह हाल से बाहर निकला ही था कि सामने दिल्ली के प्रसिध्द
पर्यावरणविद डॉ.
मुरलीधरन टकरा गए।
''क्या
खूब बोलते हो नौजवान!''
पकी दाढ़ी और सफेद बोलों में स्पष्ट वैज्ञाानिक दिखनेवाले
मुरलीधरन बोले,
डॉ.
सुनीता नारायण को तुम जैसे युवकों से परामर्श लेना चाहिए।
''
''सर,
वह बहुत विद्वान हैं।.... विश्व में उनकी पहचान है। मैं तो
अभी।...''
''यही
न कि अभी कम उम्र - कम अनुभवी हो!''
ठठाकर हंसे मुरीधरन तो वह संकुचित हो उठा।
दोनों देर तक चुप रहे।
अंतत: कुछ सोचकर,
शायद यह भांपकर कि उसे चलने की जल्दी है,
मुरलीधरन बोले, ''ओ।
के।
यंगमैन,
हम फिर मिलेंगें।
''
''जी
सर।''
वह गाड़ी की ओर बढ़ा यह सोचते हुए कि अनुभवी लोग चेहरे से ही
अनुमान लगा लेते हैं कि कोई क्या सोच रहा है।'
******
वह सामान्य गति से गाड़ी चला रहा था।
कभी तेज गाड़ी चलाता भी नहीं वह।
दिल्ली की सड़कें और ट्रैफिक की अराजकता।....
वह पैंतालीस-पचास तो कहीं -कहीं बीस-तीस की गति से चला रहा था।
तालकटोरा स्टेडियम के पास गोल चक्कर पर टै्रफिक कुछ अधिक था।
उसकी गाड़ी रेंग-सी रही थी।
तभी उसके बगल में हट्टा -कट्टा लगभग बत्तीस वर्ष के युवक ने
अपनी पल्सर रोकी और चीखता हुआ बोला,
''गाड़ी
चलानी नहीं आती?
गाड़ी (मोटरसाइकिल) को टक्कर मार देता अभी।''
वह भौंचक
था,
क्योंकि उसकी जानकारी में कुछ हुआ ही नहीं था।
उसने धीमे और सधे स्वर में,
जैसा कि उसका स्वभाव था,
कहा, ''टक्कर
लगी तो नहीं!
''
वह कुछ समझ पाता उससे पहले ही मोटर साइकिल सवार ने मोटर साइकिल
आगे बढाकर उसकी कार के आगे लगा दी।
वह गोल चक्कर पारकर शंकर रोड चौराहे की ओर कुछ कदम ही आगे बढ़ा
था।
उसने गाड़ी रोक दी।
मोटरसाइकिल सवार युवक उसकी ओर झपटा।
वह कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसने उसे गाड़ी से बाहर खींचा और
फुटपाथ की ओर घसीटने लगा।
''बात
क्या है।... आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?''
विरोध करता हुआ वह उसकी मजबूत पकड़ के समक्ष अपने को असहाय पा
रहा था।
''तेरी
माँ की।....बताता हूँ कि बात क्या है।....मादर।...के कहता है
कि लगी तो नहीं।...''
युवक का झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर पड़ा। वह लड़खड़ा गया। उसे
चक्कर -सा आ गया। जब तक वह संभलता मोटर साइकिल सवार का दूसरा
तमाचा उसके दूसरे गाल पर पड़ा।
पैदल चलने वालों की भीड़ इकट्ठा
हो गयी।
लेकिन कोई भी वाहन वाला नहीं रुका।
भीड़ मूक दर्शक थी और मोटर साइकिल सवार युवक दरिन्दे की भांति
उस पर लात-घूँसे
बरसा रहा था।
लगभग अधमरा कर उसने उसे छोड़ दिया और फुटपाथ से नीचे उतरकर
घूरकर उसे देखने लगा।
अमित फुटपाथ पर पसरा हुआ था।...
निस्पंद।
भीड़ में कुछ लोग अपनी राह चल पड़े थे।
कुछ खड़े थे।.....
लेकिन उनमें अभी भी साहस नहीं था कि वे अमित को उठा सकते,
क्योंकि मोटर साइकिल सवार वहीं खड़ा था अमित को घूरता हुआ।
लगभग दस मिनट बाद उसने आँखें
खोलीं और किसी प्रकार उठकर बैठा।
बैठते ही उसका हाथ मोबाइल पर गया।
उसका दिमाग,
जो सुन्न था,
अब काम करने लगा था।
पिता को यह बताने के लिए कि पहुँचने
में उसे कुछ देर हो जाएगी,
वह उनका नम्बर मिलाने लगा।
उसे नम्बर मिलाता देख मोटर साइकिल सवार झपटकर फुटपाथ पर चढ़ा और
उससे मोबाइल छीनते हुए उसके जबड़े पर मारकर चीखा,
''धी
के..... पुलिस को फोन करता है।....स्साले
इतने से ही सबक ले।...
शुक्र मना कि बच गया।...''
उसने अमित का फोन अपनी जेब के हवाले किया,
मोटर साइकिल स्टार्ट की और अमित के इर्द-गिर्द खड़े लोगों को
हिकारत से देखता हुआ तेज गति से शंकर रोड चौराहे की ओर मोटर
साइकिल दौड़ा ले गया। |