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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
शैली खत्री की कहानी— 'बादल छँट गए'


आँख के कोने से एक बूँद आँसू निकल आया। नहीं, ये आँसू दुख के नहीं बेबसी के हैं। परिस्थितियों का क्या किया जाए। सच, समय और परिस्थितियाँ बड़ी बलवान होती हैं। ये अपने इशारों पर नचा कर रख ही देती हैं। सपने तोड़ती नहीं हैं तो सपने पूरे भी नहीं होने देती। उन सपनों का बजूद आँखों तक ही सिमटा कर रख देती हैं। फिर धीरे-धीरे बहुत कुछ समा जाता है आँखों में। वे प्यारे, मासूम और महत्वपूर्ण से लगने वाले सपने एक याद बनकर रह जाते हैं। एक ऐसी याद जिन पर न मुस्कुराया जाए और जिन्हें न भूलाया ही जा सके। सोचता-सोचता दीप रुक गया। क्या फ़ायदा इन बातों पर विचार करने से। उचित हो यह होगा कि आज के अपने नए काम के बारे में सोचा जाए, सपनों की मीमांसा फिर कभी की जाएगी।

घर से कदम निकालते ही उसे माँ का ख़याल आया। नए काम के लिए जा रहा हूँ तो माँ का आशीर्वाद तो लेना ही चाहिए। उसके कदम वापस अंदर की ओर मुड़ गए। माँ के कमरे में गया तो माँ टीका की थाली लिए बाहर ही आ रही थी। मुझे आशीर्वाद दो माँ कि मेरा काम ठीक चले, कहता हुआ वह माँ के पैरों पर झुका। माँ ने पुलकित होकर उसे बाहों में भर लिया। थोड़ा ठहर कर बोली, ''दीप! काम कोई भी बुरा नहीं होता। याद रखना छोटे काम से भी बड़ा नाम कमाया जा सकता है और छोटे काम करते हुए भी अपने सपने पूरे किए जा सकते हैं।

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