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                         | "री, लक्खे तरखान के तो भाग खुल 
                    गए।" "कौण?... ओही सप्पां दा वैरी?"
 "हाँ, वही। साँपों का दुश्मन लक्खा सिंह।"
 "पर, बात क्या हुई?"
 "अरी, कल तक उस गरीब को कोई पूछता नहीं था। आज सोहणी नौकरी और 
                    सोहणी बीवी है उसके पास। बीवी भी ऐसी कि हाथ लगाए मैली हो।"
 जहाँ गाँव की चार स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं, लक्खा सिंह तरखान की 
                    किस्मत का किस्सा छेड़ बैठतीं। उधर गाँव के बूढ़े - जवान मर्द 
                    भी कहाँ पीछे थे। उनकी ज़बान पर भी आजकल लक्खा ही लक्खा था।
 "भई बख्तावर, लक्खा सिंह की तो लाटरी खुल गई। दोनों हाथों में 
                    लड्डू लिए घूमता है।"
 "कौन?... बिशने तरखान का लड़का? साँपों को देखकर जो पागल हो 
                    उठता है...।"
 "हाँ, वही।"
 "रब्ब भी जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। कल तक यही लक्खा 
                    रोटी के लिए अन्न और चूल्हा जलाने के लिए रन्न(बीवी) को तरसता 
                    था।"
 "हाँ भई, किस्मत के खेल हैं सब।"
 
                    गाँव में जिस लक्खा सिंह के 
                    चर्चे हो रहे थे, वह बिशन सिंह तरखान का इकलौता बेटा था। जब 
                    पढ़ने-लिखने में उसका मन न लगा और दूसरी जमात के बाद उसने 
                    स्कूल जाना छोड़ गाँव के बच्चों के संग इधर-उधर आवारागर्दी 
                    करना शुरू कर दिया, तो बाप ने उसे अपने साथ काम में लगा लिया। 
                    दस-बारह साल की उम्र में ही वह आरी-रंदा चलाने में निपुण हो 
                    गया था। |