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बिशन सिंह तरखान एक गरीब आदमी था। न उसके पास ज़मीन थी, न जायदाद। गाँव के बाहर पक्की सड़क के किनारे बस एक कच्चा-सा मकान था जिसकी छत के गिरने का भय हर बरसात में बना रहता। गाँव में खाते-पीते और ऊँची जात के छह-सात घर ही थे मुश्किल से, बाकी सभी उस जैसे गरीब, खेतों में मजूरी करने वाले और जैसे-तैसे पेट पालने वाले! बिशन सिंह इन्हीं लोगों का छोटा-मोटा काम करता रहता। कभी किसी की चारपाई ठीक कर दी, कभी किसी के दरवाजे-खिड़की की चौखट बना दी। किसी की मथानी टूट जाती- ले भई बिशने, ठीक कर दे। किसी की चारपाई का पाया या बाही टूट जाती तो बिशन सिंह को याद किया जाता और वह तुरंत अपनी औज़ार-पेटी उठाकर हाज़िर हो जाता। कभी किसी का पीढ़ा और कभी किसी के बच्चे का रेहड़ा! दाल-रोटी बमुश्किल चलती।

जब लक्खा सिंह की मसें भींजने लगीं तो बिशन सिंह आस-पास के गाँवों में भी जाने लगा- बढ़ईगिरी का काम करने। सुबह घर से निकलता तो शाम को लौटता। काम के बदले पैसे तो कभी-कभार ही कोई देता। गेहूँ, आटा, चावल, दालें वगैरह देकर ही लोग उससे काम करवाते। थोड़ा-बहुत लक्खा सिंह भी घर पर रहकर कमा लेता। इस प्रकार, उनके परिवार की दाल-रोटी चलने लगी थी।
दिन ठीक-ठाक गुज़र रहे थे और लक्खा सिंह की शादी-ब्याह की बातें चलने लगी थीं कि एक दिन...

चौमासों के दिन थे। एक दिन शाम को जब बिशन सिंह अपने गाँव लौट रहा था, लंबरदारों के खेत के पास से गुज़रते समय उसे एक साँप ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई।
तभी से लक्खा सिंह को साँपों से नफ़रत हो गई। बाप के मरने के बाद कई दिनों तक वह लाठी लिए खेतों में पागलों की भाँति घूमता रहा था। बाँबियों को ढूँढ़-ढूँढ़कर नष्ट करता रहा था, साँपों को खोज-खोजकर मारता रहा था। गाँव के बड़े-बुजुर्गों के समझाने-बुझाने के बाद उसने ऐसा करना छोड़ा था।

लेकिन, गाँव में जब किसी के घर या पशुओं के बाड़े में साँप घुस आने की खबर उसे मिलती तो वह साँप मारने वालों में सबसे आगे होता। साँप को देखकर उसकी बाजुओं की मछलियाँ फड़कने लगती थीं। साँप कितना भी भयानक क्यों न होता, लक्खा सिंह लाठी लिए बेखौफ़ होकर उसे ढूँढ़ निकालता और जब तक उसे मार न लेता, उसे चैन न पड़ता। मरे हुए साँप की पूँछ पकड़कर हवा में लटकाए हुए जब वह गाँव की गलियों में से गुज़रता, बच्चों का एक हुजूम उसके पीछे-पीछे होता, शोर मचाता हुआ। घरों के खिड़की-दरवाज़ों, चौबारों, छतों पर देखने वालों की भीड़ जुट जाती।

कुछ समय बाद लक्खा सिंह की माँ भी चल बसी। अब लक्खा सिंह अकेला था।
इसी लक्खा सिंह को कोई अपनी लड़की ब्याह कर राजी नहीं था। जब तक माँ-बाप ज़िंदा थे, उन्होंने बहुत कोशिश की कि लक्खे का किसी से लड़ बँध जाए। इसका चूल्हा जलाने वाली भी कोई आ जाए। ऐसी बात नहीं कि रिश्ते नहीं आते थे। रिश्ते आए, लड़की वाले लक्खा सिंह और उसके घर-बार को देख-दाखकर चले गए, पर बात आगे न बढ़ी। माँ-बाप के न रहने पर कौन करता उसकी शादी की बात! न कोई बहन, न भाई, न चाचा, न ताऊ, न कोई मामा-मामी। बस, एक मौसी थी फगवाड़े वाली जो माँ-बाप के ज़िंदा रहते तो कभी-कभार आ जाया करती थी लेकिन, उनके परलोक सिधारने पर उसने भी कभी लक्खा सिंह की सुध नहीं ली थी।

जब लक्खा सिंह पैंतीस पार हुआ तो उसने शादी की उम्मीद ही छोड़ दी। गाँव की जवान और बूढ़ी स्त्रियाँ अक्सर आते-जाते राह में उससे मखौल किया करतीं, "वे लखिया! तू तो लगता है, कुँवारा ही बुड्ढ़ा हो जाएगा। नहीं कोई कुड़ी मिलती तो ले आ जाके यू.पी. बिहार से... मोल दे के। कोई रोटी तो पका के देऊ तैनूं...।"
मगर लक्खा सिंह के पास इतना रुपया-पैसा कहाँ कि मोल देकर बीवी ले आए। ऐसे में उसे गाँव का चरना कुम्हार याद हो आता जो अपनी बीवी के मरने पर बिहार से ले आया था दूसरी बीवी- रुपया देकर। दूसरी बीवी दो महीने भी नहीं टिकी थी उसके पास और एक दिन सारा सामान बाँधकर चलती बनी थी। रुपया-पैसा तो खू-खाते में गया ही, घर के सामान से भी हाथ धोना पड़ा। चरना फिर बिन औरत के- रंडवा का रंडवा!

चरना को याद कर लक्खा सिंह कानों को हाथ लगाते हुए मसखरी करती औरतों को उत्तर देता, "मोल देकर लाई बीवी कल अगर भांडा-टिंडा लेकर भाग गई, फिर?... न भई न। इससे तो कुँवारा ही ठीक हूँ।"
फिर, कभी-कभी लक्खा सिंह यह भी सोचता, जब उस अकेले की ही दाल-रोटी मुश्किल से चल रही है, तब एक और प्राणी को घर में लाकर बिठाना कहाँ की अकलमंदी है।
इसी लक्खा सिंह तरखान का सितारा एकाएक यों चमक उठेगा, किसी ने सपने में भी न सोचा था। खुद लक्खा सिंह ने भी नहीं। घर बैठे-बैठे पहले नौकरी मिली, फिर सुन्दर-सी बीवी।
सचमुच ही उसकी लॉटरी लग गई थी।

सन पैंसठ के दिन थे। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की जंग अभी ख़त्म ही हुई थी। एक रात उधर से गुज़र रही एक सेठ की कार ऐन उसके गाँव के सामने आकर खराब हो गई। आस-पास न कोई शहर, न कस्बा। ड्राइवर ने बहुत कोशिश की मगर कार ठीक न हुई। इंजन की कोई छोटी-सी गरारी टूट गई थी। सेठ और ड्राइवर ने लक्खा सिंह का दरवाज़ा जा थपथपाया और सारी बात बताई। पूछा, "आस-पास कोई मोटर-मैकेनिक मिलेगा क्या?"
लक्खा सिंह उनका प्रश्न सुनकर हँस पड़ा।
"बादशाहो, यहाँ से दस मील दूर है कस्बा। वहीं मिल सकता है कोई मकेनिक। पर इतनी रात को वहाँ भी कौन अपनी दुकान खोले बैठा होगा। आप लोग मेरी मानो, रात यहीं गाँव में गुज़ारो। तड़के कोई सवारी लेकर चले जाणा कस्बे और मकेनिक को संग ले आणा।"
सेठ और ड्राइवर परेशान-सा होकर एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।
"वैसे हुआ क्या है, गड्डी को?"
"यह गरारी टूट गई..." ड्राइवर ने हाथ में पकड़ी गरारी दिखाते हुए कहा।
"हूँ..." कुछ सोचते हुए लक्खा सिंह बोला, "बादशाहो, तुसी बैठो। देखता हूँ, क्या हो सकता है।"
लक्खा सिंह ने अपनी औज़ार-पेटी खोली, औज़ार निकाले और लकड़ी की एक गाँठ लेकर बैठ गया। लैम्प की रोशनी में आधे घंटे की मेहनत-मशक्कत के बाद उसने हू-ब-हू लकड़ी की गरारी तैयार कर दी और बोला, "चलो जी, इसे फिट करके देखते हैं।"
ड्राइवर और सेठ हैरान थे कि यह लकड़ी की गरारी क्या करेगी? लेकिन जब लक्खा सिंह ने सच्चे बादशाह को याद करते हुए गरारी को उसकी जगह पर फिट किया और गाड़ी स्टार्ट करने को कहा तो न केवल गाड़ी स्टार्ट हुई बल्कि गियर में डालते ही चल भी पड़ी।
"लो भई बादशाहो, ये मेरी गरारी आपको शहर तक तो पहुँचा ही दे शायद।"
सेठ और ड्राइवर बहुत खुश थे। सेठ ने लक्खा सिंह को रुपये देने चाहे जिन्हें लेने से लक्खा सिंह ने इन्कार कर दिया। बोला, "बादशाहो, आपकी गाड़ी हमारे गाँव के पास आकर खराब हुई। आप हमारे मेहमान हुए। मेहमानों से क्या कोई पैसे लेता है? आपकी हम जितनी सेवा कर सकते थे, कर दी। रुपये देकर हमें शरमिंदा न करो।"

और जब वाकई कार ने सेठ को उसके शहर तक पहुँचा दिया तो सेठ लक्खा सिंह से बहुत प्रभावित हुआ। उसका अपना लकड़ी का कारोबार था। देहरादून और पौढ़ी-गढ़वाल में आरा मशीनें और फर्नीचर के कारखाने थे उसके। उसने अगले दिन ही अपना आदमी भेजकर लक्खा सिंह को अपने पास बुला लिया।
सेठ ने पूछा, "मेरे यहाँ नौकरी करोगे? सौ रुपया महीना और रहने को मकान।"
लक्खा सिंह को और क्या चाहिए था। उसने 'हाँ` कर दी। शहर में सेठ का बड़ा गोदाम था। फिलहाल, सेठ ने उसे वहीं रख लिया।
इधर शहर में उसकी नौकरी लगी, उधर फगवाड़े वाले मौसी एक लड़की का रिश्ता लेकर आ गई। लक्खा सिंह की हाँ मिलते ही लड़की वाले अगले महीने ही शादी के लिए राजी हो गए। शादी में सेठ भी शरीक हुआ।
लक्खे की बीवी लक्खे की उम्र से छोटी ही नहीं, बेहद खूबसूरत भी थी।
गाँव वाले कहते, "लखिया, वोहटी तो तेरी इतनी सोहणी है कि हाथ लगाए मैली हो। रात को दीवा बालने की भी ज़रूरत नहीं तुझे।"
लक्खा सिंह की बीवी का नाम वैसे तो परमजीत था, पर गाँव की स्त्रियों ने आते-जाते उसे सोहणी कहकर बुलाना आरंभ कर दिया था। अब लक्खा भी उसे सोहणी कहकर ही बुलाने लगा। शादी के बाद जितने दिन वे गाँव में रहे या तो लक्खा सिंह की किस्मत के चर्चे थे या फिर उसकी बीवी की खूबसूरती के।
लक्खा सिंह खुद अपनी किस्मत पर हैरान और मुग्ध था।

छुट्टी बिताकर बीवी को संग लेकर जब वह काम पर लौटा तो सेठ बोला, "लक्खा सिंह, गोदाम वाला मकान और नौकरी तेरे लिए ठीक नहीं। अब तू अकेला नहीं है। साथ में तेरी बीवी है। तू ऐसा कर, गढ़वाल में मेरा एक कारखाना है। वहाँ एक आदमी की ज़रूरत भी है। तू वहाँ चला जा। रहने को मकान का भी प्रबंध हो जाएगा। कोई दिक्कत हो तो बताना।"
प्रत्युत्तर में लक्खा सिंह कुछ नहीं बोला, दाढ़ी खुजलाता रहा।
"मेरी राय में तू बीवी को लेकर वहाँ चला ही जा। तेरे जाने का प्रबंध भी मैं कर देता हूँ। पहाड़ों से घिरा खुला इलाका है, तुझे और तेरी बीवी को पसंद आएगा।"
सेठ की बात सुनकर लक्खा सिंह बोला, "घरवाली से पूछकर बताता हूँ।"
सेठ के पास उसका ड्राइवर भी बैठा था। लक्खा सिंह का उत्तर सुनकर बोला, "पूछना क्या? तू जहाँ ले जाएगा, वह चुपचाप चली जाएगी। तेरी बीवी है वो। लोग पहाड़ों पर हनीमून मनाने जाते हैं। समझ ले, तू भी हनीमून मनाने जा रहा है। हनीमून का हनीमून और नौकरी की नौकरी !" कहकर ड्राइवर हँस पड़ा।
लक्खा सिंह सेठ की बात मान गया।

पहाड़ों और जंगलों से घिरी कलाल घाटी। इसी घाटी की तराई में जंगल से सटा था सेठ का छोटा-सा लकड़ी का कारखाना। कस्बे और आबादी से दूर। शान्त वातावरण और समीप ही बहती थी- मालन नदी। लकड़ी के लिए जंगल के ठेके उठते। पेड़ काटे जाते और दिन-रात चलती आरा मशीनें रुकने का नाम न लेतीं। कटी हुई लकड़ी जब कारखाने के अंदर जाती, तो फिर खूबसूरत वस्तुओं में तब्दील होकर ही बाहर निकलती- विभिन्न प्रकार की कुर्सियों, मेज़ों, सोफों, पलंगों और अलमारियों के रूप में! ट्रकों पर लादकर यह सारा फर्नीचर शहर के गोदामों में पहुँचा दिया जाता। तैयार माल की देखरेख और उसे ट्रकों पर लदवाकर शहर के गोदामों में पहुँचाने का काम करता था- प्रताप, चौड़ी और मज़बूत कद-काठी वाला युवक।

सेठ के कहे अनुसार इसी प्रताप से मिला लक्खा सिंह इस कलाल घाटी में, सेठ के फर्नीचर कारखाने पर। प्रताप ने उसे मैनेजर से मिलवाया। मैनेजर ने प्रताप से कहा, "प्रताप, सरदार जी को पाँच नंबर वाले मकान पर ले जा। सरदार जी वहीं रहेंगे।" फिर, लक्खा सिंह की ओर मुखातिब होकर बोला, "सरदार जी, आज आप आराम करें। सफ़र में थक गए होंगे। कल से काम पर आ जाना।"
कारखाने से कोई एक कोस दूर पहाड़ी पत्थर से बने थे पाँच-छह मकान। खुले-खुले। प्रताप उन्हें जिस मकान में ले गया, वह सबसे पीछे की ओर था। उसके पीछे से जंगल शुरू होता था। जंगल के पीछे पहाड़ थे। मकान खुला और हवादार था। पहले छोटा-सा बरामदा, फिर एक बड़ा कमरा, उसके बाद रसोई और आखिर में पिछवाड़े की तरफ़ शौच-गुसलखाना। आगे और पीछे की खुली जगह को पाँचेक फीट ऊँची दीवार से घेरा हुआ था।

लक्खा सिंह सचमुच पहाड़ की खुली वादी को देखकर खुश था। मकान देखकर और भी खुश हो गया। लेकिन, लक्खा सिंह की घरवाली घबराई हुई थी।
"मैंने नहीं रहना यहाँ, इस जंगल-बियाबान में... देखो न, कोई भी चोर-लुटेरा आगे-पीछे की दीवार कूदकर अंदर घुस सकता है। आप तो चले जाया करोगे काम पर, पीछे मैं अकेली जान... न बाबा न!"
सोहणी के डरे हुए चेहरे को देखकर लक्खा सिंह मुस्करा दिया। बोला, "ओ सोहणियो, पंजाब की कुड़ी होकर डर रहे हो?"
प्रताप ने समझाने की कोशिश की, "नहीं भाभी जी, आप घबराओ नहीं। चोरी-डकैती का यहाँ कोई डर नहीं। बेशक खिड़की-दरवाज़े खुले छोड़कर चले जाओ। हाँ, कभी-कभी साँप ज़रूर घर में घुस आता है।"
"साँप!"
सोहणी इस तरह उछली जैसे सचमुच ही उसके पैरों तले साँप आ गया हो।
लक्खा सिंह भी साँप की बात सुनकर सोच में पड़ गया और मन-ही-मन बुदबुदाया - यहाँ भी साँप ने पीछा नहीं छोड़ा।
सोहणी बहुत घबरा गई थी। लक्खा सिंह की ओर देखते हुए बोली, "सुनो जी, वापस दिल्ली चलो... सेठ से कहो, वह वहीं गोदाम पर ही काम दे दे। हमें नहीं रहना यहाँ साँपों के बीच। साँपों से तो मुझे बड़ा डर लगता है जी।"
लक्खा सिंह ने प्रेमभरी झिड़की दी, "ओए, पागल न बन। कुछ दिन रहकर तो देख। कोई साँप-सूँप नहीं डसता तुझे।" फिर घबराई हुई बीवी के कंधे पर अपना हाथ रखकर बोला, "अगर आ ही गया तो देख लूँगा। बड़े साँप मारे हैं मैंने अपने पिंड में...।"
"अच्छा तो मैं चलता हूँ। कोई तकलीफ़ हो तो बुला लेना। मैं सामने वाले दो मकान छोड़कर तीसरे में रहता हूँ।" जाते-जाते प्रताप ने कहा, "वैसे मैं सारा दिन घर पर ही रहता हूँ। सुबह थोड़ी देर के लिए कारखाने जाता हूँ और लौट आता हूँ। फिर शाम को चार-पाँच बजे जाता हूँ। बस, दिनभर में यही दो-ढाई घंटों का काम होता है मेरा।"

सेठ के कारखाने में मैनेजर को मिलाकर कुल सात लोग काम करते थे। रघबीर, कांती और दिलाबर फर्नीचर तैयार करते थे जबकि बंसी और मुन्ना का काम वार्निश, रंग-रोगन आदि का था। प्रताप का काम था- तैयार माल की देखरेख करना और उसे शहर के गोदामों में भेजना। लक्खा सिंह को फर्नीचर तैयार करने के काम पर लगा दिया गया था।
लक्खा सिंह सुबह काम पर चला जाता और शाम को लौटता। दिनभर सोहणी घर पर अकेली रहती, डरी-डरी, सहमी-सहमी-सी। लक्खा सिंह लौटता तो उसका डर से कुम्हलाया चेहरा देखकर परेशान हो उठता। अंधेरा होने के बाद तो सोहणी रसोई की तरफ़ जाने से भी डरती थी। शौच-गुसल तो दूर की बात थी। लक्खा सिंह ने टार्च ख़रीद ली थी। बिजली न होने के कारण दिए की मद्धम रोशनी में सोहणी नीचे फर्श पर पैर रखते हुए भी भय खाती थी। हर समय उसे लगता मानो साँप उसके पैरों के आस-पास ही रेंग रहा हो। रस्सी का टुकड़ा भी उसे साँप प्रतीत होता।

कुछ ही दिन में लक्खा सिंह ने महसूस किया कि सोहणी के चेहरे का सोहणापन धीमे-धीमे पीलेपन में बदलता जा रहा है। लक्खा सिंह उसके भीतर के डर को निकालने की बहुत कोशिश करता, उसे समझाता मगर सोहणी थी कि उसका डर जैसे उससे चिपट गया था- जोंक की तरह। वह हर बार दिल्ली लौट चलने की बात करती। इतवार को लक्खा सिंह की छुट्टी हुआ करती थी। उस दिन वह सोहणी को शहर ले जाता। उसे घुमाता, गढ़वाल के प्राकृतिक दृश्य दिखलाता। मालन नदी पर भी ले जाता। सोहणी घर से बाहर जब लक्खा सिंह के संग घूम रही होती, उसके चेहरे पर से डर का साया उतर जाता। वह खुश-खुश नज़र आती। लेकिन, घर में घुसते ही सोहणी का सोहणा चेहरा कुम्हलाने लग पड़ता।
सोहणी के इसी डर के कारण लक्खा सिंह अब दिन में भी एक चक्कर घर का लगाने लगा था। साथ काम करते कारीगर उससे चुस्की लेते तो मैनेजर भी उनमें शामिल हो जाता।
एक दिन प्रताप भी मैनेजर के पास बैठा था जब लक्खा सिंह ने दोपहर को घर हो आने की इजाज़त माँगी।
"सरदार जी, माना आपकी नई-नई शादी हुई है, पर उस बेचारी को थोड़ा तो आराम कर लेने दिया करो।" मैनेजर मुस्कराकर बोला।

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