|  "ऐसी कोई बात नहीं है जी... वो 
                    तो बात कुछ और ही है। दरअसल..." कहते-कहते लक्खा सिंह रुक गया 
                    तो दिलाबर बोल उठा, "दरअसल क्या?... साफ-साफ क्यों नहीं कहता 
                    कि बीवी की याद सताने लगती है।" मुन्ना और कांती एक साथ हँस पड़े।
 "नहीं जी, दरअसल बात यह है कि मेरी घरवाली को हर समय साँप का 
                    डर सताता रहता है।"
 "साँप का डर?" रघबीर ने हैरानी प्रकट की।
 "बात यह है जी कि पहले दिन ही प्रताप ने कह दिया था कि घर में 
                    साँप घुस आते हैं कभी-कभी। मेरी बीवी को साँपों से बड़ा डर 
                    लगता है। बेचारी दिन भर डरी-डरी-सी रहती है।"
 "क्यों प्रताप? यह क्या बात हुई? तूने लक्खा सिंह की बीवी को 
                    डरा दिया।" मैनेजर ने पास बैठे प्रताप के चेहरे पर नज़रें 
                    गड़ाकर हँसते हुए पूछा।
 "मैंने झूठ कहाँ कहा? साँपों का घर में घुस आना तो यहाँ आम बात 
                    है।" प्रताप ने सफ़ाई दी। फिर उसने लक्खा सिंह के आगे एक 
                    प्रस्ताव रखा, "लक्खा सिंह जी, इतना घबराने की ज़रूरत नहीं। 
                    मैं पास ही रहता हूँ। अगर ऐसी ही बात है तो दिन में मैं देख 
                    आया करूँगा भाभी को।"
 लक्खा सिंह को प्रताप की बात जँच गई, बोला, "तुम्हारी बड़ी 
                    मेहरबानी होगी।"
 एक डेढ-माह बाद लक्खा सिंह ने महसूस किया कि सोहणी के चेहरे पर 
                    अब पहले जैसा डर नहीं रहा है। अब शाम को अंधेरा हो जाने के बाद 
                    पिछवाड़े की ओर वह अकेली चली जाती थी। यह देखकर लक्खा सिंह ने 
                    राहत की साँस ली थी।
 एक दिन दोपहर में काम नहीं था। लक्खा सिंह का मन घर पर हो आने 
                    को हुआ। काफी दिनों से वह दिन में घर पर गया भी नहीं था। 
                    मैनेजर से कहकर वह घर की ओर चल पड़ा।
 
                    घर पर प्रताप सोहणी से बातें कर 
                    रहा था। सोहणी खुश नज़र आ रही थी। सोहणी को खुश देखकर लक्खा 
                    सिंह भी खुश हो गया।"लक्खा सिंह जी, अब आप चिंता न करें। इनका डर अब खत्म होता जा 
                    रहा है। अगर मुझे मालूम होता कि ये साँप से इतना ही डरती हैं 
                    तो मैं साँप वाली बात करता ही नहीं।" प्रताप लक्खा सिंह को 
                    देखकर बोला।
 "नहीं जी, डर तो मुझे अभी भी लगता है। साँप का क्या भरोसा जी, 
                    कब आ जाए। जब से दिन में एक-दो बार प्रताप भाई आकर पता कर जाते 
                    हैं, थोड़ा हिम्मत-सी बँध गई है।" सोहणी ने कहा।
 कुछ देर बाद प्रताप चला गया तो लक्खा सिंह ने देखा, सोहणी के 
                    चेहरे पर रौनक थी। वह ऐसी ही रौनक उसके चेहरे पर हर समय देखना 
                    चाहता था।
 "सोहणियों! मलाई दे डोनियों!! आज तो बड़े ही सोहणे लग रहे 
                    हो..." कहकर लक्खा सिंह ने सोहणी को अपने आलिंगन में ले लिया।
 "हटो जी, आपको तो हर वक्त मसखरी सूझती रहती है।" सोहणी लजाते 
                    हुए अपने आपको छुड़ाते हुए बोली।
 पहले तो सोहणी दिन के उजाले में ही रात का खाना बना लिया करती 
                    थी ताकि रात को रसोई की तरफ़ न जाना पड़े। लक्खा सिंह से भी 
                    उजाले-उजाले में घर लौट आने की ज़िद्द करती थी। लेकिन, अब ऐसी 
                    बात न थी। शाम को अंधेरा होने पर जब लक्खा सिंह लौटता तो वह 
                    रसोई में अकेली खड़ी होकर खाना बना रही होती। दिन में धोकर 
                    पिछवाड़े की रस्सी पर डाले गए कपड़े रात को सोने से पहले खुद 
                    ही उतार लाती।
 जाड़े के सुहावने दिन शुरू हो 
                    गए थे। गुनगुनी धूप में बैठना अच्छा लगता था। ऐसी ही एक 
                    गुनगुनी धूप वाले दिन लक्खा सिंह दोपहर को काम पर से आ गया। 
                    सोहणी की खनखनाती हँसी घर के बाहर तक गूँज रही थी। बेहद 
                    प्यारी, मन को लुभा देने वाली हँसी! जैसे गुदगुदी करने पर 
                    बच्चे के मुख से निकलती है। वह हँसी लक्खा सिंह को बड़ी प्यारी 
                    लगी। लेकिन, वह अकेली क्यों और किस बात पर हँस रही है? वह 
                    सोचने लगा। तभी पुरुष हँसी भी उसे सुनाई दी। घर पर प्रताप था। 
                    लक्खा सिंह को यों अचानक आया देखकर दोनों की हँसी गायब हो गई।"वो जी... आज... मैंने साँप देखा... गुसलखाने में। मैं तो जी 
                    डर के मारे काँपने ही लगी..." सोहणी के स्वर में कंपन था, "कि 
                    तभी प्रताप भाई आ गए। इन्होंने ही उसे भगाया।"
 "भगाया? मारा क्यों नहीं?"
 "मैं तो मार ही देता, पर वह बचकर निकल गया।" प्रताप के मुख से 
                    निकला।
 सोहणी फिर पुरानी रट पकड़ने लगी, "जी, मैंने नहीं रहना यहाँ। 
                    आज तो देख ही लिया साँप... कभी आप आओगे तो मरी पड़ी मिलूँगी 
                    मैं...।"
 "पगली है तू, एक साँप देखकर ही डर गई।"
 उस दिन लक्खा सिंह दुबारा काम पर नहीं गया। प्रताप से मैनेजर 
                    को कहलवा दिया।
 रघबीर के बेटा हुआ तो उसने 
                    सभी को लड्डू खिलाए। पिछले बरस ही उसकी शादी हुई थी। "लो भई, रघबीर ने तो लड्डू खिला दिए। लक्खा सिंह जी, तुम कब 
                    मुँह मीठा करवा रहे हो?" मैनेजर ने आधा लड्डू मुँह में डाल, 
                    आधा हाथ में पकड़कर लक्खा सिंह से प्र न किया।
 "हम भी करवा देंगे जल्दी ही अगर रब्ब ने चाहा तो..." लक्खा 
                    सिंह लकड़ी पर रंदा फेरते हुए मुस्कराकर बोला।
 "सिर्फ़ मुँह मीठा करवाने से बात नहीं बनेगी। पार्टी होगी, 
                    पार्टी...।" बंसी अपने हाथ का काम रोककर कहने लगा।
 "अरे, इसके तो जब होगा तब देखी जाएगी, पहले रघबीर से तो ले लो 
                    पार्टी। लड्डू से ही टरका रहा है।" मुन्ना भी बोल उठा।
 "हाँ-हाँ, क्यों नहीं..." रघबीर ने कहा, "पर तुम सबको मेरे घर 
                    पर चलना होगा, बच्चे के नामकरण वाले दिन।"
 खूब अच्छी रौनक लगी नामकरण 
                    वाले दिन रघबीर के घर। लक्खा सिंह सोहणी को लेकर प्रताप के संग 
                    पहुँचा था। उधर कांती भी अपनी पत्नी को लेकर आया था। मैनेजर, 
                    दिलाबर, बंसी और मुन्ना पहले ही पहुँचे हुए थे। रघबीर ने दारू 
                    का भी इंतजाम किया हुआ था। बंसी को छोड़कर सभी ने पी। लक्खा 
                    सिंह की सोहणी और कांती की बीवी घर की स्त्रियों के संग घर के 
                    कामकाज में हाथ बँटाती रही थीं। खाने-पीने के बाद शाम को घर की 
                    स्त्रियाँ आँगन में दरी बिछाकर ढोलक लेकर बैठ गईं। रघबीर ने 
                    आँगन में एक ओर दो चारपाइयाँ बिछा दीं जिन पर मैनेजर, दिलाबर, 
                    मुन्ना, बंसी, लक्खा और प्रताप बैठ गए और स्त्रियों के गीतों 
                    का आनंद लेने लगे। तभी, प्रताप अपनी जगह से उठा और एक स्त्री 
                    के पास जाकर उसके कान में कुछ फुसफुसाया।अब सभी स्त्रियाँ सोहणी को घेर कर बैठ गईं। वह 'न-नुकर` करने 
                    लगी तो लक्खा सिंह बोल उठा, "सोहणियों, सुना भी दो अब...।"
 काफी देर तक लजाती-सकुचाती सोहणी ने आखिर ढोलक पकड़ ही ली।
 इसके बाद तो सब चकित ही रह गए। खुद लक्खा सिंह भी। सोहणी जितनी 
                    अच्छी ढोलक बजाती थी, उतना ही अच्छा गाती थी। उसने पंजाब के कई 
                    लोकगीत सुनाए। एक के बाद एक।
 आजा छड्ड के नौकरी माहिया
 कल्ली दा मेरा दिल न लग्गे...
 पिप्पल दिया पित्ताय केही 
                    खड़-खड़ लाई वे...पत्ता झड़े पुराणें, रुत नवियाँ दी आई वे...
 पिप्पल दिया पित्तायँ, तेरियाँ ठंडियाँ छाँवाँ...
 झिड़कदियाँ ससाँ, चेते आउंदियाँ ने माँवाँ...
 ऐधर कणकाँ, ओधर कणकाँविच्च कणकाँ दे टोया
 माही मेरा बुड्ढ़ा जिहा
 देख के दिल मेरा रोया...
 लै लो दाल फुल्लियाँ, लै लो दाल-छोले...
 इस गीत को सोहणी ने जिस 
                    अंदाज़ में गाया, उससे सभी खिलखिलाकर हँस पड़े। मैनेजर लक्खा 
                    सिंह की जाँघ पर हाथ मारकर बहुत देर तक हँसता रहा।अब ढोलक कांती की घरवाली को देकर सोहणी उठकर खड़ी हो गई और 
                    चुन्नी को कमर में बाँधकर गिद्धा डालने लग पड़ी।
 बारी बरसीं खटण गिया सी,खट के लियादाँ ताला
 तेरे जिहे लख छोकरे...
 मेरे नाम दी जपदे माला...
 सोहणी को नाचते देख लक्खा सिंह और प्रताप भी खड़े होकर नाचने 
                    लगे। महफ़िल में रंगत आ गई।
 गिद्धे विच नचदी दी गुत्त खुल जाँदी आ
 डिगिया परांदा देख सप्प वरगा
 तेरा लारा वे शराबियाँ दी गप्प वरगा
 इस बार सोहणी ने लक्खा सिंह 
                    की ओर इशारा किया तो मैनेजर, प्रताप और मुन्ना की हँसी छूट गई।मित्तरा पड़ोस दिया
 कंध टप्प के आ जा तू
 माही मेरा कम्म ते गिया...
 लक्खा सिंह झूम उठा, 
                    "बल्ले-बल्ले ओ सोहणियों... खुश कर दित्ता तुसी तां..."जब नाचते-नाचते सोहणी हाँफने लगी तो वह बैठ गई। लेकिन गाना 
                    उसने बन्द नहीं किया था। अब ढोलक फिर उसके हाथ में थी।
 आ जोगिया, फेरा पा जोगिया...
 साडा रोग बुरा हटा जोगिया...फेरा पा जोगिया
 आ गिया नी, फेरा पा गिया नी
 सानुं फनीअर नाग लड़ा गिया नी... जोगी आ गिया नी
 आ गिया नी, फेरा पा गिया नी
 सानुं रोग जुदाइयाँ दा पा गिया नी... जोगी आ गिया नी
 सोहणी का यह रूप तो लक्खा 
                    सिंह ने देखा ही नहीं था। वह इतना उन्मुक्त होकर नाच-गा रही थी 
                    जैसे वह पंजाब में अपने गाँव में नाच-गा रही हो। नीं सप्प लड़िया, मैंनूं सप्प 
                    लड़ियाजद माही गिया मेरा कम्म ते
 घर विच आ वड़िया... सप्प लड़िया
 मैंनूं सुत्ती जाण के अड़ियो
 मंजे उत्ते आ चढ़िया... सप्प लड़िया
 देर रात गए जब प्रताप, लक्खा 
                    सिंह और सोहणी घर की ओर लौट रहे थे तो सोहणी बेहद खुश और उमंग 
                    से भरी लग रही थी। रास्ते भर प्रताप उसकी तारीफ़ें करता रहा और 
                    वह खिलखिलाकर हँसती रही। लगता था, उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ 
                    रहे थे, वह हवा में उड़ रही थी। इधर लक्खा सिंह मन-ही-मन सोच 
                    रहा था- साँपों से डरने वाली सोहणी के गीतों में साँप कहाँ से 
                    आ गए?दिलाबर की माँ बीमार थी और कांती को अपनी घरवाली को छोड़ने 
                    जाना था। इसलिए दोनों एक हफ्ते की छुट्टी लेकर चले गए थे। काम 
                    पूरा करने और समय पर देने के लिए मैनेजर ने डबल-शिफ्ट लगा दी 
                    थी। अब रात में भी काम होने लगा था।
 शुरू में सोहणी ने इसका विरोध किया, बोली, "दिन तो जैसे-तैसे 
                    गुज़र जाता है, रात में अकेले... मेरी तो जान ही निकल जाएगी।"
 जब लक्खा सिंह ने मजबूरी बताई और कहा कि दो-चार दिन की ही बात 
                    है और चार पैसे बढ़कर ही मिलेंगे तो वह मान गई।
 उस रात काम कोई अधिक नहीं था। 
                    रात ग्यारह बजे तक सब निबट गया था। मैनेजर के कहने पर लक्खा 
                    सिंह घर की ओर चल दिया। ठंडी हवा चल रही थी और पूरी वादी 
                    अंधकार में डूबी थी।रात के समय सोहणी बाहर वाले दरवाज़े में अंदर से ताला लगा लिया 
                    करती थी।
 लक्खा सिंह ने दरवाज़े की ओर हाथ बढ़ाया अवश्य था लेकिन वह हवा 
                    में ही लटककर रह गया था। तेज साँसों की आवाज़ उसके कानों में 
                    पड़ी थी। जैसे कोई साँप फुँकार रहा हो। वह घबरा उठा। तो क्या 
                    साँप? सोहणी साँप के डर से काँप रही होगी। ऐसे में वह दरवाज़ा 
                    कैसे खोल सकती है? वह सोच में पड़ गया। तभी, वह दीवार पर चढ़ 
                    गया। वह दबे पाँव घर में घुसना चाहता था, पर दीवार से कूदते 
                    समय खटका हो ही गया।
 दीये का मद्धम प्रकाश कमरे में पसरा हुआ था। सोहणी बेहद घबराई 
                    हुई दिख रही थी। बिस्तर अस्त-व्यस्त-सा पड़ा था।
 "क्या बात है सोहणी? इतना घबराई हुई क्यों हो? क्या साँप?.."
 "हाँ-हाँ, साँप ही था... वहाँ... वहाँ बिस्तर पर..." घबराई हुई 
                    सोहणी के मुख से बमुश्किल शब्द निकल रहे थे, "मैं उधर जाती... 
                    वह भी उधर आ जाता। कभी इधर, कभी उधर... अभी आपके आने का खटका 
                    हुआ तो भाग गया।"
 लक्खा सिंह ने हाथ में लाठी और टॉर्च लेते हुए पूछा, "किधर?... 
                    किधर गया?"
 "उधर... उस तरफ़।" सोहणी ने घबराकर पिछवाड़े की ओर संकेत किया।
 लक्खा सिंह ने टॉर्च की रोशनी पिछवाड़े में फेंकी। सचमुच वहाँ 
                    साँप था। काला, लम्बा और मोटा साँप! दीवार पर चढ़ने की कोशिश 
                    करता हुआ।
 "ठहर!" लक्खा सिंह के डोले फड़क उठे। उसने हाथ में पकड़ी लाठी 
                    घुमाकर दे मारी। एक पल को साँप तड़पा, फिर दीवार के दूसरी ओर 
                    गिर गया।
 "जाएगा कहाँ बच के मेरे हाथों..." लक्खा सिंह टॉर्च और लाठी 
                    लिए दीवार पर चढ़ने लगा। तभी, सोहणी ने उसकी बाँह पकड़ ली।
 "क्या करते हो जी... छुप गया होगा वह जंगल की झाड़ियों में। 
                    ज़ख्मी साँप वैसे भी ख़तरनाक होता है।"
 जाने क्या सोचकर लक्खा सिंह ने अपना इरादा बदल दिया।
 "बच गया सा...ला, नहीं तो आज यहीं ढेर कर देता।"
 उस रात सोहणी जब उससे लिपटकर सोने का यत्न कर रही थी, लक्खा 
                    सिंह उसके दिल की धड़कन साफ़ सुन रहा था। कितना डरा रखा था इस 
                    साँप ने। अब हिम्मत नहीं करेगा। क्या सोहणी सचमुच ही साँप से 
                    डर रही थी?
 सुबह हल्की-हल्की बूँदाबाँदी 
                    होती रही। आकाश में बादल ही बादल थे। ठंड भी बढ़ गई थी। बारिश 
                    कुछ थमी तो लक्खा सिंह कारखाने पहुँचा।सेठ दिल्ली से आया हुआ था।
 सेठ के एक ओर उसका ड्राइवर खड़ा था और दूसरी ओर काला कंबल ओढ़े 
                    प्रताप।
 "क्या बात है प्रताप?" सेठ प्रताप से पूछ रहा था
 "कुछ नहीं सेठ जी, रात से तबीयत ठीक नहीं।"
 "तबीयत ठीक नहीं? दवा ली? जा, जाकर आराम कर।" सेठ प्रताप से कह 
                    ही रहा था कि उसकी नज़र आते हुए लक्खा सिंह पर पड़ी।
 "क्या हाल है लक्खा सिंह? कोई तकलीफ़ तो नहीं?"
 "सब ठीक है सेठ जी, कोई तकलीफ़ नहीं।" पास आकर लक्खा सिंह ने 
                    कहा।
 "कैसी है तेरी बीवी?... उसका दिल लगा कि नहीं?"
 "ठीक है वह भी, पर..."
 "पर क्या?"
 "कुछ नहीं सेठ जी, साँप ने उसे तंग कर रखा था। मेरे पीछे घर 
                    में घुस जाता था। कल रात मेरे हाथ पड़ गया। वो ज़ोरदार लाठी 
                    मारी है कि अगर बच गया तो दुबारा घर में घुसने की हिम्मत नहीं 
                    करेगा।"
 इधर लक्खा सिंह ने कहा, उधर कंबल लपेटे खड़े प्रताप के पूरे 
                    शरीर में कँपकँपी दौड़ गई और उसकी पीठ का दर्द अचानक तेज़ हो 
                    उठा।
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