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चाहे अपने छः महीने के बेबी की नॉन-स्टॉप चीख पुकार से रुआँसी हुई नीना आंटी-अंकल,  चाहे माधो चौकीदार, चाहे मनकू धोबी-जो भी परेशान, रुआँसा, खीझता-झल्लाता आता है, दादी उसे ऐसा समझातीं-बुझातीं, सहलातीं-दुलारतीं हैं कि वह हँसीं-खुशी से मालामाल होकर लौटता है।

यों भी उनके पास बातों का ख़ज़ाना तो है ही। चुटकुलों और हँसी-ठिठोली की भी।
हँसती हुई, मगन मन, गुनगुनाती हुई दादी... क्या गुनगुनाती हैं दादी? ...श्श...ज़रूर कोई कोड-वर्ड.. जानना चाहिए। इसी कोड-वर्ड से दादी पड़ोसियों की झड़पें और हंगामे भी हँसते-हँसते शांत कर दिया करती हैं।

एक बार तो मम्मी मना करती ही रह गईं और दादी अपनी वैजयंती बाई और बगल की गंगू बाई के बीच होती तेज़-तर्रार तकरार के बीच भी पहुँच गईं। दोनों पाँच के एक खोटे सिक्के को लेकर भिड़ी हुई थीं। एक कहती, तूने ही यह सिक्का मुझे दिया, उधारी की वापसी के साथ, दूसरी कहती, हर्गिज़ नहीं। दादी ने उनसे पाँच का खोटावाला सिक्का देखने के लिए माँगा। फिर उन्हें एक दूसरा चमचमाता हुआ सिक्का पकड़कर हँसती हुई घर के अंदर चली आईं।

ज़रूर वह चमचमाता सिक्का दादी के ख़ज़ाने का रहा होगा और ज़रूर उस खोटेवाले सिक्के को दादी अपने ख़ज़ाने में डाल. कोड-वर्ड से खरा कर देंगी। अच्छा तो ये हमारी दादी खोटे से खरा करने का जादू भी जानती हैं। यह भी चुन्नू ने मिट्ठू को बताया।
मिट्ठू ने फिर झपाझप पलकें झपकाकर हामी भरी। एक दोपहर दादी मिट्ठू को थपकी दे-दे कर सुलाते हुए कुछ गा रहीं थीं। चुन्नू थोड़ा बोर हो रहे थे, क्यों कि इस समय तेज़-तेज़ झम्मा-झम्मा, छैंय्या-छैंय्या और तारा-रा-रा का कैसेट भी नहीं बजाया जा सकता था। जम्हाई लेकर बोले, ''दादी! ज़रा ज़ोर से गाइए नं! मिट्ठू तो सो गई।''
''क्यों गाऊँ ज़ोर से, मैं कोई हजेला आँटी और शर्मा अंकल का रिकार्ड प्लेयर हूँ?''

दादी की आदत ही है चुन्नू को छेड़ने की... लेकिन चुन्नू भी कहाँ बाज़ आनेवाले, पापा की तरह शेखी बघारते हुए बोले,  ''इसलिए कि मुझे 'थोड़ा' चेंज चाहिए।''
लेकिन फिर दादी के गले में झूल गए, ''प्लीज दादी गाइए नं!''
''सचमुच सुनना है मेरा गाना?'' अचानक दादी सेंटीमेंटल हो आईं।
''और नहीं तो क्या... मैं झूठ बोलता हूँ- जबसे आपने पिछली बार, दो आइस्क्रीम खाने और एक बताने पर डाँटा, न मैंने एक बार भी चीटिंग की, न झूठ बोला।''
''अच्छा तो आ मेरे साथ!''

दादी ने चुन्नू की मदद से पलंग के नीचे रखा लकड़ी का एक बहुत पुराना बॉक्स निकलवाया। खुलने पर उसके अंदर से काली पॉलिश और सफ़ेद कत्थई पेंदीवाला एक खूबसूरत हारमोनियम निकला। झाड़-झूड़ कर उसकी साफ़-सफ़ाई की गई। फिर हल्के-हल्के उससे स्वर निकालती दादी गाने लगीं।

चुन्नू ने महसूस किया, यह 'चेंज' तो कुछ बुरा नहीं था। सचमुच हारमोनियम के साथ आती दादी की आवाज़, उनका गीत अच्छा लग रहा था। बस एक ही बात पर थोड़ी हँसी आई कि दादी के गाने में माँ-माँ जैसा शब्द कई बार आया। इसलिए गाना ख़त्म हुआ तो उसने हँसकर चिढ़ाया, ''आप तो खुद ही थोड़ी बूढ़ी यानी दादी-माँ हैं, फिर आप कौन-सी माँ का गाना गा रही हैं?''
दादी ने मज़े से हँसते हुए कहा, ''बताऊँ, मैं न माँ सरस्वती, माँ शारदे, माँ भारती और माँ दुर्गा, लक्ष्मी...''
''ओ गॉड! अकेली आपकी इतनी सारी माँएँ...''
''सिर्फ़ मेरी नहीं चुन्नू जी, ये तो सबकी माँएँ हैं। बच्चों की, मम्मी की, पापा की, दादी की... सुवर्णा आंटी की और वैजयंती बाई की भी...''
''धत्त- दादी, ऐसा कैसे हो सकता है?''
''क्यों नहीं हो सकता? तुम लोग स्कूल में प्रार्थना करते हो नं... 'आवर फादर इव हेवेन'... तो, वे तो नर्सरी से लेकर ऊँची कक्षाओं तक के सारे बच्चों, टीचरों, प्रिंसिपल सभी के फादर हुए नं... या नहीं?...''

चुन्नू चमत्कृत और निरुत्तर हो गए। तर्क अकाट्य था। ''तो इसका मतलब तो यह हुआ दादी कि हम सबके सब एक दूसरे के रिलेटिव हैं...।''
''रिलेटिव नहीं, एक घर, एक कुटुंब के। जानते हो, हमारे यहाँ एक श्लोक है संस्कृत का, जिसका मतलब है कि सारा देश ही नहीं, सारी दुनिया एक कुटुंब के समान है- एक फैमिली...''
''एक फैमिली? ... क्रेज़ी....फनी...'' चुन्नू इतनी ज़ोर से चिल्लाए कि मिट्ठू जाग गई। ''इतनी बड़ी फैमिली के लिए उतना बड़ा घर बनाएगा कौन जी!''
दादी कहाँ पीछे रहनेवाली, ''बनाना कहाँ है जी...घर तो बना बनाया है- यह एक पूरी दुनिया है ही बनी बनाई और इसमें इंग्लैंड, यूरोप, अमेरिका...''

चुन्नू अकड़े और उसको पता है, ये सारे देश कहीं ज़्यादा अच्छे हैं, इंडिया की तरह गंदे-संदे नहीं। एकदम सनाका खा गईं दादी।... फिर अपने को सँभाला, समेटा। और सहज विनोदी-भाव से बोलीं, ''लेकिन तू कब घूमा इन सारे देशों में चून्नू?''
''मैं नहीं घूमा तो क्या हुआ, मेरा दोस्त विक्रम गया था लंडन और नताशा भी। वे दोनों बता रहे थे कि इंडिया तो बिलकुल बंकस कंट्री है। यहाँ सब गरीब, गँवार लोग रहते हैं। पुअर और फुलिश...

दादी का चेहरा उतरता-सा गया। लेकिन उन्होंने ज़ाहिर नहीं किया। उल्टे नाटकीय मुद्रा में च-च्च करते हुए बोलीं, ''अरेरे रे सच्च! मुझे नहीं मालूम था कि तुम और मिट्ठू पुअर, फुलिश और गँवार हो।''
''नहीं, हमने अपने को थोड़ी न कहा...''
''तो फिर तुम्हारे मम्मी-पापा और दादी - पुअर, फुलिश और गँवार होंगे जी...''
चुन्नू चिढ़ गए, ''जाइए आप तो चिढ़ाती हैं।''
''क्यों नहीं चिढ़ाऊँगी- जो खुद ही अपने आपको दूसरों से पुअर, फुलिश और गंदा-संदा कहलाया जाना पसंद करेगा, उसका तो लोग मज़ाक बनाएँगे ही न!''
चुन्नू आप से बाहर होने लगे, ''अब आगे आपने हँसी उड़ाई न दादी तो मुझे सचमुच गुस्सा आ जाएगा...''
''वाह! गुस्सा तो तुम्हें तब आना चाहिए था न जब नताशा और विक्रम ने तुम्हारा मज़ाक बनाया।''
''लेकिन वे मुझे नहीं कर रहे थे न।''
''अच्छा कोई तुम्हें नहीं पर तुम्हारे घर को घरवालों को गंदा-संदा कहें तो तुम्हें अच्छा लगेगा?''
''न, नहीं।''

चुन्नू ने निरुत्तर होकर गर्दन झुका ली।
''तब तुम्हें नताशा और विक्रम को समझाना चाहिए था न कि अपने देश को पुअर, फुलिश कहने का मतलब है, खुद को फुलिश, असभ्य मानना।''
चुन्नू बुरी तरह फँस गए थे। कोई उत्तर न सूझा तो सिर खुजाते हुए बोले, ''असल में वे दो थे नं?''
''तो तुम मिट्ठू को बुला लेते...''

चुन्नू ने मन-ही-मन निश्चय किया कि सचमुच मिट्ठू को हमेशा ही 'लड़की' और 'बुद्धू' समझना ठीक नहीं। ज़रूरत पड़ने पर वह मददगार और फ़ायदेमंद दोनों साबित हो सकती है।
''पर एक बात तो तुम्हारी सही है कि ये सारे देश हमसे कहीं ज़्यादा साफ़-सुथरे हैं...''
चुन्नू हुमककर बोले, ''लीजिए, यही बात जब मैं आपसे कह रहा था तो आप...''
''अपनी कमियाँ और बुराइयाँ देखना बुरा नहीं चुन्नू, अपना आत्मसम्मान खोना बुरा है। कमियाँ देखकर हम उन्हें सुधार सकते हैं। लो तुम्हीं दोनों से पूछती हूँ, 'भला कौन रखता है उन देशों को उतना साफ़-सुथरा?''
''कॉमनसेंस की बात है- 'वहाँ के लोग।'' चुन्नू में दुबारा उनके पापा की आत्मा प्रवेश कर गई।
दादी चहक उठीं, ''तो फिर हम भी आज से ही अपने घर के आसपास को साफ़-सुथरा रखना शुरू कर देंगे। जिन्हें नहीं मालूम, उन्हें बताएँगे। जानते हो, अपने देश को मदर-लैंड कहते हैं, यानी माँ का घर...
मिट्ठू और चुन्नू मन-मन हँसे- येल्लो एक और माँ...
लेकिन दादी के कान तो बच्चों के मन में आई बात भी सुन लेते हैं-
''एक औऱ माँ नहीं, बहुत-बहुत सारी माँएँ हैं- नदियाँ भी माँ हैं, धरती भी माँ है, 'मदर अर्थ' सुना है न। हम नदी को सिर्फ़ गंगा नहीं, गंगा मइया कहते हैं?''
सहसा मिट्ठू चहकीं। ''और यशोदा मइया भी तो...न दादी?''

चुन्नू मन-ही-मन झुंझलाए- उफ् ये मिट्ठू की बच्ची भी इस बार बाज़ी मार ले गई-  लड़की कहीं की? फिर ज़रा रुआब से बोले, ''दादी! आप ज़्यादा हिंदी पढ़ती हैं न, इसीलिए इतनी सारी माँओं के नाम मालूम हैं आपको। लेकिन एक बात बताइए, हमें क्या करना है उतनी सारी माँएँ इकट्ठी करके... एक दादी, एक मम्मी, काफ़ी नहीं क्या?''
''इसलिए कि माँएँ जितनी ज़्यादा होती हैं, बच्चों को उतना ज़्यादा प्यार मिलता है, गिफ्ट और प्रेजेंट्स मिलते हैं... उतनी ज़्यादा लोरियाँ और कहानियाँ सुनने को मिलती हैं।''
''कहाँ? हमें तो मम्मी ने नहीं सुनाईं।''
''मम्मी को टाइम किधर मिलता है? ऑफिस, घर और तुम लोगों का ढेरमढेर होमवर्क...इसीलिए वे लोग दादियों, नानियों को बुला लेते हैं। अब मम्मी सुनाए या पापा की मम्मी...
लेकिन चुन्नू सीधे पॉइंट पर आए, ''तो क्या आपको इन सारी माँओं से गिफ्ट और प्रेजेंट मिले हैं?''
''हाँ मिले हैं।'' दादी एक क्षण को तो सकपकायीं, लेकिन फौरन वापस मोर्चे पर आ डटीं, ''लेकिन इन लोगों का देने का तरीका थोड़ा अलग होता है। जैसे टी.वी. पर बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर, दूकानें, अपने-अपने आइटम और फ़ोन नंबर नोट करा देते हैं न! और हम जिन्हें भेजना चाहते हैं, उनके नाम-पते दूसरों को भेज देते हैं, कुछ-कुछ उसी तरह। फूल भी तो हम लोगों के जन्म-दिनों पर ऐसे ही भिजवाते हैं। दीवाली और त्यौहारों के उपहार भी। वैसे भी... माँ-लक्ष्मी तो धन की देवी ही हैं। पैसे ही नहीं होंगे तो हम कपड़े, खिलौने, चॉकलेट्स सब खरीदेंगे कहाँ से? माँ शारदा, सरस्वती हमें बुद्धि, विवेक देती हैं- उन्हीं की वजह से हमें पढ़ाई-लिखाई समझ में आती है। नहीं तो एकदम बुद्धू, गँवार रह जाएँ हम। और यशोदा मइया के बालकृष्ण की नटखटी की तो इतनी कहानियाँ हैं कि हँसते-हँसते पेट दुख जाए- सिर्फ़ हँसी की नहीं, बड़े-बड़े राक्षसों को मारनेवाली बहादुरी की भी...और गंगा मइया तो इस देश में आईं कैसे, इसी की इतनी लंबी कहानी...
''आप सुनाएँगी हमें?''

फिर तो सिलसिला शुरू हो गया, हर रोज़ होमवर्क के बाद दादी की कहानियों वाले धारावाहिक का। कभी राजा भगीरथ द्वारा गंगा मइया को धरती पर लाने की कहानी तो कभी माँ सरस्वती और उनके म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट वीणा की, कभी सिंहवाहिनी दुर्गा की तो कभी उलूकवाहिनी लक्ष्मी की।

माँओं के साथ-साथ तमाम सारे बेटों की कहानियाँ भी भक्त प्रह्लाद, ध्रुव, नचिकेता, अभिमन्यु, सत्यवान, श्रवणकुमार, वारुणी और इन सबके साथ शेखचिल्ली के कारनामों की भी... जिससे बीच-बीच में हँसी-ठिठोली भी चलती रहे। सुननेवालों में जितना उत्साह था, सुनानेवाली में उससे रत्तीभर भी कम नहीं। यहाँ तक कि दादी अपनी पुरानी संदूकची के नीचे से बचपन की पढ़ी 'सिंहासन-बत्तीसी', 'बेताल पचीसी' और 'जातक कथाएँ' भी निकाल लाई थीं।

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