ओहो 'जातका टेल्स' हमारे पास
इंग्लिश में भी है। दादी आपकी कहानियाँ तो अच्छी हैं, पर आपकी
किताबें कैसी उघड़ी-पघड़ी, फटी-चटी, बदरंग.. हमारी स्लीपिंग
ब्यूटी, गोल्डी लॉक, रेड राइडिंग हुड जैसी रंगबिरंगी, चमकीली,
चिकनी नहीं हैं।''
''कैसे होंगी- कहाँ यह इंडिया, कहाँ वह लंदन...'' कहकर दादी
फिर से हँस दीं। लेकिन चुन्नू नहीं हँसे। उन्होंने बहुत धीरे
से मन-ही-मन में कहा ..सॉरी दादी।''
शायद दादी समझ भी गईं। इसीलिए
उन्होंने शेखचिल्ली के नए कारनामेवाली कहानी सुनाकर विषयांतर
के साथ बच्चों को लहालोट कर दिया। लेकिन सबसे अलग कहानी होती
माँ पार्वती की...जो जब भी किसी दुःखी, गरीब को देखतीं, शंकर
जी से ज़िद करके उसकी मदद करतीं ही करतीं।
''अभी भी?'' चुन्नू ने टटोला, ''हमें तो दीखी नहीं कभी...''
''कैसे दीखेंगी? कोई दिखा के, ढिंढोरा पीट के थोड़ी करती हैं?
तुम्हें कहानियाँ में बताया नहीं कि अपना वेष बदल कर, नाम छुपा
के करती हैं। लेकिन अब पापुलेशन इतनी बढ़ गई है, तो हमें भी
तो थोड़ी बहुत लोगों की मदद करनी चाहिए, अकेली पार्वती जी ही
बेचारी कितना दौडें।
बच्चों ने मुंडी हिलायी।
जिसका मतलब था, हाँ यह तो है। अब दादी ज़्यादा शामिल थीं
चुन्नू मिट्ठू के खेलों में। यहाँ तक कि कंप्यूटर के साथ चलती
कारगुज़ारियाँ भी अब चुन्नू दादी को बताने लगे थे- वरना पहले
तो साफ कहते- इंग्लिश की बातें हैं, आपकी समझ में नहीं आएँगी।''
शायद इसीलिए एक दिन
'श्रद्धालु' का मतलब 'सतालू' समझ लेने पर दादी ने खिलखिला कर
चिढ़ाया था, ''ये हिंदी की बातें हैं चुन्नू जी, आपकी समझ में
नहीं आनेवाली...''
एक बार मिट्ठू ने पूछा, ''अच्छा दादी, आपकी ये सारी कहानियाँ
गाने किसने बताए?''
''माँ ने, दादा-दादी, ताया, चाचा, बुआ और मौसियों ने- हाँ,
सिर्फ़ गाने हमारे संगीत के गुरुजी मिताई बाबू ने। तुम लोगों
को उनका बहुत मनपसंद गाना सुनाऊँ? उत्साह से छलकती दादी ने
छोटी बच्ची की तरह हारमोनियम अपने पास खींच लिया और जी-जान से
बाजे के सुरों के सहारे- सहारे गाने लगीं...
हिमाद्रि तुंगशृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती...गाती हुई दादी
ऐसी विभोर थीं, जैसे ये शब्द नहीं, झरोखे हैं, जिनसे झाँकती
हुई वे अपने अंदर जगर-मगर करते खज़ाने को देख रही हैं।
गीत समाप्त हुआ। फूलती साँसों
को सहज करते हुए दादी ने बच्चों की ओर देखा, जैसे वे बच्चे
नहीं, परीक्षक हों-
''अच्छा लगा?''
''ट्यून तो अच्छी थी। और थोड़ी बूढ़ी होने पर भी, आप गा तो
अच्छा लेती हैं लेकिन गाने का मतलब कुछ ज़्यादा समझ में नहीं
आया।''
''वह तुम लोगों की ग़लती नहीं। इसका मतलब थोड़ा मुश्किल है भी।
लेकिन मतलब तो तुम लोगों को तारा-रा-रा और छैंय्या-छैंय्या का
भी समझ में नहीं आता न! न उस मलाई-मलाई का वाले का-''
बच्चे हँसते-हँसते एक दूसरे
पर लोटने-पलोटने लगे, ''ओहो दादी आप इस तरह मलाई-मलाई करेंगी
तो हमारे फ्रेंडस कितना हँसेंगे...''
मिट्ठू ने कहा, ''आप हमें कोई 'आसान' सा हिंदी गाना सुनाइए न,
जो हम भी आपके साथ गा सकें।''
दादी ने गाया। बच्चों ने साथ दिया। ख़त्म हुआ तो मिट्ठू चुन्नू
के कानों में फुसफुसायी, ''भइया! पता चल गया, दादी के पास
गानों का ख़ज़ाना है।'' ठीक उसी स्टाइल में दादी उन दोनों की
मुंडी आपके गालों के पास लाकर फुसफुसायीं, ''तुम लोग चाहो तो
ख़ज़ाना लूट सकते हो।''
''वाह! हम आपका ख़ज़ाना क्यों लूटें?''
''इसलिए कि यह जादू का ख़ज़ाना है। तुम लुटते जाओगे, यह ख़त्म
नहीं होगा। लूटनेवाले भी मालामाल लुटानेवाले भी-''
बच्चों की समझ में नहीं आया, ''कैसे?''
''ऐसे कि जब तुम ये गाने सीख कर स्कूल के डिबेट, प्रतियोगिताओं
में गाओगे, सुनाओगे तो लोग तालियाँ बजाएँगे, तुम्हें इनाम
मिलेंगे- लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के स्पॉन्सर किए हुए।''
तीनों एक साथ खिलखिलाकर हँस दिए।
''आपको मिलते थे न!'' चुन्नू ने दादी की आँखों में झाँका।
अंतर्यामी।
''हाँऽऽ, जब मैं बच्ची-''
''आप-बच्ची-दादी-बच्ची- ही-ही-ही-ही...''
''जब आप दादी बनेंगी तब आप भी ऐसे ही कहेंगी...''
''मिट्ठू दादी मिट्ठू दादी-'' चुन्नू और दादी दोनों ने मिट्ठू
को चिढ़ाया।
बाद में दादी थोड़ी सकुचाती
हुई बताने लगीं, ''जब हमारे स्कूलों में गांधी जयंती,
तुलसी-जयंती, रवींद्र जयंती, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी,
जन्माष्टमी, वसंत पंचमी आदि त्यौहार मनाए जाते थे तो हम बच्चे
कविताएँ, गाने गा-गाकर सुनाते थे।
''आप कितनी छोटी थीं?''
''क्या पहनती थीं?''
दादी ने बताया, जब वे छोटी थीं, स्कूल के समारोह में, पंद्रह
अगस्त को सफ़ेद सलवार, कमीज़ और केसरिया चुन्नी। दो कसी
चोटियों में सफ़ेद रिबन बाँधकर, जलती धूप में, सीधी आँखों,
तिरंगे को सेल्यूट करती हुई सारी लड़कियाँ एक साथ गाती थीं-
सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा...
हारमोनियम के पर्दों पर थोड़ा
आहिस्ते उँगलियाँ चलाते हुए दादी कुछ इस तरह डूबकर गा रही थीं
कि चुन्नू और मिट्ठू की आँखों में, देखते-देखते वे एक छोटी
बच्ची में तब्दील हो गईं। उस बच्ची की काली कसी चोटियों में
सफ़ेद रिबन के फूल खिल गए। उसकी आँखें एकटक, अपलक अभी-अभी
फूलों की पंखुड़ियाँ बिखेरकर लहरानेवाले तिरंगे झंडे पर टिकी
थीं और वह सफ़ेद रिबन, काली चोटियों वाली हज़ारों छोटी
बच्चियों के साथ गा रही थी-
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जमाँ हमारा...
बावली उन्मादिनी-सी दादी एक-एक शब्द दुहरा तिहरा कर गाती जा
रही थीं- चुन्नू और मिट्ठू अभिभूत, अचंभित सुन रहे थे-
''कुछ बातें हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी'' शब्द आसान थे। ये
वाला गाना तो कई बार का सुना हुआ भी था। आता भी था। बच्चों का
मन गाने के लिए अकुला आया, एक नशा-सा छाने लगा। वे साथ-साथ
गाने लगे।
चुन्नू ने देखा, अचानक दादी
की आँखों से दो बड़े आँसू ढुलक पड़े। दादी ने उन्हें छुपाने की
बिलकुल भी कोशिश नहीं की।
चुन्नू ने अकल दौड़ायी- ज़रूर दादी को उन्हीं दुश्मनों की याद
आ गई होगी, जिनका ज़िक्र गाने की लाइनों में था। रामलीला के
लक्ष्मण जी की तरह उसकी भुजाएँ फड़कने लगीं। उसने ओजस्वी स्वर
में पूछा, ''दादी, ये दुश्मन कौन है? वही न, जो हम अपनी
हिस्ट्री बुक्स में पढ़ते हैं।''
''नहीं चुन्नू! आज तो हम ही अपने सबसे बड़े दुश्मन हो गए हैं।
जो कहते हैं कि हम पुअर, फुलिश और गँवार हैं।''
''ओह दादी! सॉरी। सॉरी दादी।''
दोनों लपक के दादी की गोदी
में बैठ गए।
हारमोनियम और दादी वापस चालू हो गए। बच्चे भी हुमक-हुमक कर
पूरे जोश से साथ देने लगे- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं
हमारी।
आश्चर्य! उस दिन, अगले दिन और
उसके अगले दिन भी, बच्चों ने पाया कि अनजाने उनके दिमाग़ में
हिंदोस्ताँ हमारा...वाली ट्यून ही गूँज रही है वरना तो अब तक
हमेशा साबुन, तेल, शैंपू, टूथपेस्ट के विज्ञापनों वाले जिंगल्स
ही बजते रहते थे- कभी सनसनाती ताज़गी तो कभी सफ़ेदी की चमकार...
अब तो चुन्नू और मिट्ठू को
कविताएँ सीखने का जुनून-सा सँवार हो गया। हौसला बढ़ा, तो एकाध
बार स्कूल के फंक्शनों में भी गाकर तालियाँ, इनाम बटोर लाए।
समझ में आने लगा कि दादी और हिंदी उतनी कुछ खास बोरिंग नहीं।
उल्टे खुली आवाज़ में हारमोनियम के सुरों के साथ जोश-खरोश से
गाने में मज़ा भी खूब आता है। दादी गाने भी तो क्या ए-वन
निकालती हैं। बहुत सारे तो पुरानी फिल्मों के भी। अब जैसे यही
कि ''आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की...'' वाले
गाने में एक साथ वंदमातरम...गाने में कितना अच्छा लगता है।
गाने का गाना, खेल का खेल।
पता नहीं मम्मी-पापा ने क्यों
नहीं ये सारी मज़ेदार चीज़ें बताईं कभी। असल में मम्मी-पापा
हमेशा ही तो परेशान रहते हैं, अपने-अपने ऑफ़िस से। पापा देर से
आए तो चलता है, लेकिन मम्मी देर से आईं और पापा कुछ भी बोले
तो...वो क्या कहते हैं महाभारत। फिर तो यही लगता है कि चाहे
खाना-वाना मत बनाओ, दूध, सैंडविच खाकर सो रहेंगे, पर
लड़ाई-झगड़ा मत करो। हमसे तो कहते हैं, ''स्टॉप नॉनसेंस! और वे
खुद कितनी नॉनसेंस कर गुज़रते हैं, उन्हें कौन बताए। हँसी-हँसी
में शुरू किए झगड़ों पर भी इतने खूँखार हो उठते हैं, जैसे
पिक्चरों के विलेन।
आज ही तो टीवी पर इतनी अच्छी
परेड आ रही थी, तभी पापा आए और टेलीफोन के बिल को लेकर भभक
पड़े। खूब ज़बरदस्त बहसाबहसी, गरमागरमी। उन्हें पता भी नहीं
चला कि कब परेड खत्म हो गई।
चुन्नू मिट्ठू रुआँसे से दादी
के कमरे की ओर भागे। दरवाज़े से ही देखा, परेड ख़त्म होने के
बाद टीवी पर राष्ट्रगीत की धुन बज रही थी और दादी अचल, अविचल,
शांत भाव से आँखें मूँदे खड़ी थी।
धुन समाप्त हुई। दादी पलटीं...देखा,
बच्चे भी ठीक उन्हीं की तरह उन्नत सिर, झुकी आँखों श्रद्धाभाव
से अविचल खड़े हैं।
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