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कितनी बार कहा कि भाई दफ़तर से एक बार घर आ जाया करो। फिर भले चले जाओ। आजकल का ज़माने देखो। खुलेआम, दिनदहाड़े लूटमार के केस होते रहते हैं। एक्सीडेंट का यह हाल है कि कोई दिन ऐसा नहीं होता कि दो-चार मौतें न होती हों। दिमाग़ में तरह-तरह के डर बने रहते हैं। और फिर, मेरी बात एक बार छोड़ भी दो। कम से कम अपनी बीवी और बच्चे का ख़याल तो करो। ढ़ाई साल का है और बाप की शक्ल देखने को तरसता रहता है। जब पूछो, 'पापा कहाँ हैं?' कहेगा, 'ऑफ़िस गए हैं।' ऑफ़िस न हो गया साला जेल हो गया कि बिना ज़मानत पर छूटे बेचारे आएँ कैसे।

मेरी तो सारी उम्र किराये के मकान में कट गई। बीवी-बच्चों को मेरे बाद परेशानी न उठानी पड़े, इसलिए रिटायर होने से पहले ज़िंदगी भर की जमा-पूंजी लगाकर मकान बनाया। दिन-दिन भर ऊँट की तरह गरदन उठाए धूप में खड़े हैं। चेहरा काला पड़ गया था। बालू, मौरंग, गिट्टी, ईंटा, चूना, लोहा, लकड़ी, कभी कुछ तो कभी कुछ। चले जा रहे हैं भागे। क्या भूख और क्या प्यास। शरीर आधा रह गया था। क्या मजाल कि साहब कहीं चले जाएँ। क्रीज़ न बिगड़ जाएगी पतलून की। कभी मैंने कहा भी तो पढ़ाई का बहाना कर दिया। ठीक है भाई, मैं हूँ न भाग-दौड़ करने के लिए। तुमको क्या ज़रूरत। तुमको अलग कमरा चाहिए रहने के लिए? लो अलग कमरा। मकान बना ही इसीलिए हैं। तुम्हीं लोगों का है। लेकिन भाई, मकान भी देखरेख माँगता है। अब दस साल बने हो गए। और फिर आजकल सब सामान तो साला दो नंबर का मिलता है। सीमेंट तक दो नंबर की। मौरंग में मिट्टी। बालू में कचरा। सो भाई टूट-फूट तो लगेगी ही। अब यह जीने के नीचे जो प्लास्टर निकल रहा है, अभी एक महीने तक वित्ता भर उखड़ा था। अब एक हाथ हो गया। अब मुझसे तो बुढ़ापे में होता नहीं। कितनी बार कहा कि किसी दिन चले जाओ, बाज़ार से एक राज और मज़ूर पकड़ लाओ। बोरी, दो बोरी सीमेंट, बालू, जो लगे, वह ले आओ। जहाँ-जहाँ टूट-फूट है, ठीक करा लो। लेकिन नहीं। साहब बहादुर ने इस कान से सुना और उस कान से बाहर।

चलों भाई, माना इसमें कुछ मेहनत पड़ेगी कि एक आध दिन का वक्त लगेगा। फाटक में ताला मारने में कौन मेहनत लगती है? लेकिन नहीं। यह भी साहब बहादुर की शान के खिलाफ़ है। आएँगे तो बाहर से ही 'पीं-पीं' करेंगे। कोई जाकर फाटक खोले तो साहब बहादुर 'फट-फट' करते मोटर साइकिल पर बैठे-बैठे अंदर घुसें। गैलरी से सीधे पोर्टिका में जाकर रुकेंगे। जिसकी गरज हो, वह फाटक बंद करे। दो-एक बार तो रात भर खुला पड़ा रहा। गनीमत है कि कोई कुछ उठा नहीं ले गया। और फाटक तो फाटक, एक बार तो कमरे का दरवाज़ा तक रात भर खुला पड़ा रहा। मैं सुबह चिड़ियों को दाना देने उठा तो देखता क्या हूँ कि कबूतर के डैनों की तरह दोनों पल्ले खुले पड़े हैं। मैं तो समझा कि आज लंबी चोरी हो गई। लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी कि कुछ गया नहीं।

पानी की मोटर तो कितनी बार रात-रात भर चलती रही। पूरे आँगन में पानी ही पानी हो गया। यही हाल पंखा-बिजली का है। चल रहा है पंखा तो चल रहा है। जल रही है बत्ती तो जल रही है। कोई वहाँ बैठा है या नहीं, इससे क्या मतलब। कूलर तो गर्मियों में चौबीसों घंटा चलता है। एक बार तो यहाँ तक हुआ कि साहब बहादुर बीवी-बच्चे समेत सिनेमा गए। कूलर चलता छोड़ गए। बाहर से कमरे में ताला। सो यह भी नहीं कि कोई और बंद कर दे। 'क्यों भाई, यह कूलर क्यों चलता छोड़ गए थे?' मैंने पूछा, तो बोले, 'बंद कमरा गरम हो जाता है। फिर कौन घंटा भर इंतज़ार करे कि ठंडा हो।' ठीक है भाई। जो तुम कहो, सो ठीक। कौन बहस करे तुमसे। मैं तो यह जानता हूँ कि आधी ज़िंदगी बिना कूलर के काटी है। बिजली ही नहीं थी घर में तो कूलर कहाँ से होता? और अब भी इस कूलर-फूलर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मज़े से खरहरी चारपाई पर पानी छिड़क कर सोता हूँ। बस, कलक यह होती है कि बिला-वजह बिजली का तिगुना-चौगुना बिल भरा जाता है। वह भी टाइम से आता कहाँ है। अब पिछली बार क्या हुआ? पूरे साल का बिल, बारह हज़ार का, बनाकर भेज दिया। मैंने कहा कि ठीक करा लो नहीं तो बत्ती कट जाएगी। बोले, 'इसमें 'एन.आर.' लिखा है यानी रीडिंग के बिना ही बिल आ गया है। इसलिए बिजली नहीं कटेगी। एक आदमी से कह दिया है। अगली बार ठीक होकर आ जाएगा'। लेकिन

अगली बार आया सत्रह हज़ार का। मैंने सोचा, इस तरह तो घर की कुड़की ही हो जाएगी। गया इस बुढ़ापे में बिजली कंपनी। घंटों लाईन में खड़ा रहा। धक्के खाए। इस बाबू के पास नहीं उस बाबू के पास जाइए। जे.ई. साहब से मिलिए। जे.ई.साहब हैं कि गूलर का फूल हो गए। सुबह गए तो शाम को आइए। शाम को गए तो कल आइए। किस्सा कोताह दस-पंद्रह दिन की भाग-दौड़ के बाद साढ़े नौ हज़ार का बिल बना। वह तो दस हज़ार का एक फिक्स्ड पड़ा था। उसे तुड़वा कर भरा, नहीं तो बिजली ही कट जाती।

बिजली तो बिजली, नल तक खुला पड़ा रहता है। बेसिन में हाथ धोया और नल खुला छोड़ दिया। बह रहा है साहब। जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती, बहेगा। किचेन का नल तो एक महीने से बह रहा है। टोंटी की चूड़ियाँ मर गई हैं। सो, इस्तेमाल के बाद उसमें कपड़ा बाँध दिया जाता है। अब लाख कपड़ा बाँधो। पानी की धार भला रुकेगी उससे? यह नहीं होता कि एक नई टोंटी ख़रीद लाएँ और रिंच ले के बदल दें। बेंत की कुर्सियों में कीलें निकल आईं हैं। जो बैठता है उसी के कपड़े फट जाते हैं। सो कपड़े फटना मंजूर, यह नहीं होगा कि प्लास लेकर सारी कीलें निकाल कर फेंक दें। उसकी जगह तार से कसकर बाँध दें।

छेनी, हथौड़ी, रिंच, प्लास, पेंचकस, सब लाकर मैंने रखे थे। लेकिन सब पता नहीं कहाँ चले गए। वक्त पर कोई चीज़ माँगो तो मिलेगी ही नहीं। आख़िर ढूँढ-ढाँढ कर सब औज़ार बक्से में बंद करके रखे, तब बचे। कम से कम डेढ़ दर्जन ताले रहे होंगे घर में, लेकिन एक फाटक का ताला छोड़कर, वह भी इसलिए कि रोज़ बंद होता है और ताले पता नहीं कहाँ गुम हो गए। दो-चार तो मुझे कबाड़ में पड़े मिले। मैंने पूछा, ''कुंजी कहाँ है इनकी? तो जवाब मिला, ''यह तो ऐसे ही कितने दिनों से बिना कुंजी के पड़े हैं।'' बहुत हल्ला किया मैंने, लेकिन कुंजी ढूँढ़े नहीं मिली। आख़िर ताले वाले के पास ले जाकर नई कुंजियाँ बनवाई मैंने। मुश्किल से पाँच रुपयों में सब ताले ठीक हो गए। नया ताला लेने जाओ तो तीस रुपयों से कम में न आएगा, मगर यहाँ एक बार कह दिया गया, ताले ख़राब हो गए तो हो गए। फेंको सबको। ज़रूरत पड़ेगी तो फिर नए आ जाएँगे। पैसा बरबाद हो तो हो। ताले तो ताले, सिलाई मशीन पड़ी जंग खा रही है। दस-पंद्रह साल से ज़्यादा नहीं हुए होंगे ख़रीदे। किश्तों पर ली थी मैंने गुड़िया के सीखने के लिए। उसकी शादी हुई तो मैंने कहा, 'दे दो उसको। ले जाए अपने साथ, लेकिन सब ने मना कर दिया, 'काहे को दे दो? इतना दहेज तो दिया है। मशीन की बात तय थी क्या पहले से, जो दे दें? घर में रहेगी तो काम आएगी।' सो यह काम आ रही है। पच्चीस बार मैंने कहा, 'ले जाकर दुकान पर दे दो, ठीक हो जाएगी.' लेकिन किसे फ़ुरसत है। ज़रा-सा लिहाफ का खोल सिलवाना है, खिड़की-दरवाज़े के परदे बनने हैं, सोफे के कि तकिये के खोल सिले जाने हैं, चला जा रहा है सब दरजी के यहाँ। दुगने-तिगुने दाम वसूल रहा है वह। लेकिन यहाँ किसको कलक है। यह तो बरतने-व्योपरने वाली चीज़ों का हाल है। अब सुनिए खाने-पीने की चीज़ों के बारे में। महीने भर के राशन की लिस्ट बनिये के यहाँ चली जाती है। वह, जैसा उसकी समझ में आता है, घर पर दे जाता है। तौल में तो पूरा होता ही नहीं होगा। क्वालिटी भी जो उसके पास है, वही मिलेगी। चावल पुराने की जगह नया दे जाएगा। दस मर्तबा टोको कि भाई इसे वापस भिजवा कर बदलवा लो, तब कहीं बदलेगा, लेकिन इस बीच आधे से ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका होगा। मंजन मंगाओ कॉलगेट, दे जाएगा कोई लोकल मेड। साथ में प्लास्टिक का एक सड़ियल मग पकड़ा जाएगा कि इसके साथ यह फ्री गिफ्ट भी है। अब एक तो गिफ्ट किसी मसरफ का नहीं और मसरफ का हो भी तो क्या गिफ्ट के लिए सामान घटिया ले लिया जाएगा?

मेरे हाथों जब तक राशन आया, बाज़ार कि मिल का आटा कभी नहीं आया। देख-पसंद करके बढ़िया गेहूँ 'के अरसठ' कि किसी और अच्छी क्वालिटी का लाता था मैं। माँ के ज़माने में तो ख़ैर गेहूँ बाकायदा धोया जाता था, लेकिन बीनने-पछोरने का काम उसके बाद तक चला है। इंटर में पढ़ता था, तब तक कंधे पर बोरी रखकर पिसाने ले जाता था। उसके बाद साइकिल पर। पिता की सख़्त ताकीद रहती थी कि गेहूँ आँख के सामने पिसे। सो, खड़ा रहता था मैं चक्की के पास। लेकिन जब से साहबज़ादे राशन लाने लगे हैं, तब से गेहूँ देखने को आँखें तरस गईं। पिसा आटा आता है, बोरी में बंद। पता नहीं साला कितने दिनों पुराना हो। पीसने से पहले मशीनों से सब सत खींच लिया जाता है गेहूँ का। तभी तो चमड़े जैसी रोटी बनती है। लेकिन भाई, कौन कहे? एक बार कहो तो बोले, ''आप खाली ही तो बैठे रहते हैं। रिक्शे पर लदवाकर ले आया कीजिए गेहूँ। माँ साफ़ कर दिया करेंगी। पिसा लाया कीजिएगा।'' मैं चुप रह गया।

सब्ज़ी का यह हाल है कि जो दरवाज़े पर बिकने आ गई, ले ली गई। सड़ी हो या गली। दाम ज़्यादा सो अलग। लेकिन साहब बहादुर इतनी तकलीफ़ गवारा नहीं कर सकते कि बाज़ार से जाकर ले आएँ। अरे भाई, कौन रोज़-रोज़ जाना है। घर में फ्रिज है ही। चलता भी बारहों महीने है। सो एक बार जाकर तीन-चार दिनों के लिए लाकर रख दो। ताज़ा सब्ज़ी, दाल और गरम-गरम फुल्के, घर के पिसे आटे के, उनकी बात ही और होती है। लेकिन नहीं साहब, किसी को फ़ुरसत हो तब तो। बला से किसी के पेट में दर्द हो, अपच हो कि अफरन, पेचिश हो कि डायरिया, खाने-पीने का जो ढंग है, वही रहेगा। बीमार जिसको पड़ना हो पड़े। इलाज कराए, भुगते। एक यह मरा टीवी क्या आ गया है, जिसको देखो. वही उससे चिपका है। दाल चूल्हे पर चढ़ी है। कुकर की सीटी की आवाज़ कान में पड़ गई तो उठकर गैस धीमी कर दी, नहीं तो दाल जल रही है तो जले। दूध उबल रहा है तो उबले।

घर की सफ़ाई का आलम यह है कि पूरे घर में मकड़ी के जाले लगे हैं। छिपकलियाँ अंडे, बच्चे दे रही हैं। जहाँ देखो, काकरोच टहल रहे हैं। झींगुर फुदक रहे हैं। मक्खी-मच्छर तो ख़ैर घर का हिस्सा बन ही गए हैं। महरी आती है, फ़र्श पर झाडू लगाकर चली जाती है। गंदे-संदे पानी से पोंछा मार देती है, लेकिन भाई फ़र्श ही तो घर नहीं है। दीवारें और छतें भी तो हैं। वे भी सफ़ाई माँगती हैं। न सही रोज़, हफ़्ते में एक दिन सही। बांस में ब्रुश बाँधकर सारे घर के जाले साफ़ कर डालो। फिनाइल डालकर सारा घर धो-पोंछ डालो। वह क्या होता है डी.डी.टी कि फिनिट छिड़क दो। घर-घर की तरह लगने लगे।

अभी उस दिन टीवी पर दिखा रहा था, धूल में बड़े-बड़े कीड़े होते हैं। 'डस्ट माइट' कि क्या नाम बता रहा था। नंगी आँखों से दिखाई नहीं देते। दूरबीन से देखो तो दिखेंगे। मज़े से सोफ़े की गद्दी के कवर को कुतर-कुतर कर खा रहा था। मुझे तो बड़ा ताज्जुब हुआ देख के। इसीलिए पहले तीज-त्योहार, होली-दीवाली पर पूरे घर की लिपाई-पुताई होती थी। लेकिन अब तो त्योहार के माने और गंदगी जमा होगी घर में। होली हुई तो फ़र्श और दीवारें सब रंग में पुती पड़ी हैं। दीवाली हुई तो जगह-जगह दीवारों पर मोम चिपका है। दो-चार किलो पटाखों का कचरा फैला पड़ा है। महीनों गंदगी जमा है।

अब देखो, बाथरुम के फ्लश की टंकी तीन महीने से चू रही है। जितनी देर सीट पर बैठो बगल में पानी टपका करता है। दस मर्तबा टोक चुका हूँ कि किसी प्लंबर को बुलाकर दिखा दो। न हो तो नई टंकी लगवा लो। सीट पर बैठो तो सिर पर पानी टपकता ही है, दीवार में पानी भरता है सो अलग। लेकिन किसे फुरसत है?

ठीक है भाई, जो हो रहा है होने दो। कौन मुझे अपने साथ ले जाना है। बरस दो बरस की ज़िंदगी और रह गई है। किसी न किसी तरह कट ही जाएगी।

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