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बाबू के मरने के बाद माँ दस साल तक और जीं। कभी साल दो साल में दस-पाँच दिनों के लिए बड़े भाई के यहाँ गई हों तो गई हों, प्रायः मेरे पास ही रहीं। क्या मजाल कि कभी खाने-पहनने की कोई तकलीफ़ हुई हो। जब तक जीं, साल में एक जोड़ा धोती और घर के खाने के अलावा एक पाव दूध ऊपर से बँधा था। जब-जब बीमार पड़ीं, हमेशा डॉक्टरी इलाज कराया। वह भी एलोपैथी। यह नहीं कि चार आने की होम्योपैथी की या वैद्य जी की पुड़िया मँगाकर खिला दी हो। मरने से पहले तो पूरे एक महीने अस्पताल में भरती रहीं। बीवी के ज़ेवर तक गिरवी हो गए थे। डेढ़ हज़ार लिए डॉक्टर ने ऑपरेशन के। बोतलों खून और ग्लूकोज़ चढ़ा, सो अलग, मगर कैंसर का इलाज तो आज तक नहीं निकला, उस ज़माने में भला क्या होता। चाहता तो यहीं रफ़ा-दफ़ा कर देता, लेकिन नहीं। कानपुर ले गया, गंगाजी। पूरी मोटर गाड़ी किराये पर की। पचास कि पचपन आदमी साथ गए थे। दाह संस्कार के बाद सबको चाय-पानी कराया। लौटकर दसवाँ, तेरहवीं की। ब्राह्मणों को भोज दिया। दान-दक्षिणा दी। एक साल बाद बरसी की, जिसमें सौ आदमियों से कम ने क्या खाया होगा।

कहने को तो बड़े भाई भी थे। रस्म अदायगी के लिए आए भी। लेकिन क्या मजाल कि एक धेला खर्च किया हो, जबकि तनख़्वाह मुझसे दूनी नहीं तो ड्योढ़ी तो होगी ही। घर का ख़याल उन्होंने बाबू के ज़िंदा रहते नहीं किया तो माँ के मरने पर क्या करते!

शादी के छः महीने के भीतर ही घर छोड़कर चले गए थे। बाबू तब तक रिटायर हो चुके थे। कुँवारी बहन थी, जवान। लेकिन बाबू की भी तारीफ़ करनी होगी। उन्होंने एक ज़बान नहीं कहा कि घर छोड़कर क्यों जा रहे हो। बल्कि भाभी के दहेज का सारा सामान, जेवर-गहना, कपड़ा-लत्ता, बरतन-भांडा, एक-एक चीज़ गिनाकर सहेजवा दी। माँ ज़रूर कुछ रोईं-धोईं, लेकिन बाबू ने उन्हें डपट दिया, ''जिस आदमी को अपनी तरफ़ से माँ-बाप का ख़याल नहीं. उस पर किसी के रोने-धोने का क्या असर पड़ेगा। मैं भी ज़िंदा हूँ, एक लड़का भी अभी और है। सो तुम न रांड हुई हो, न निपूती, काहे की चिंता है तुमको? माँ चुप हो गईं। बड़े भाई ने झुककर माँ और बाबू के पैर छुए और सामान से लदे ट्रक पर बैठकर चले गए। क्या मजाल कि बाबू ने कभी उनका नाम भी लिया हो पलटकर।

मैं तो उस वक्त बी.ए. में पढ़ रहा था। बाबू की पेंशन से घर चलता था, लेकिन धीरे-धीरे दिक्कत पड़ने लगी तो वह एक दुकान पर मुनीमगिरी करने लगे। मैंने भी ट्यूशनें शुरू कर दीं। तब कहीं घर का खर्च चल पाया। मैं एम.ए. में था कि बाबू अचानक चल बसे। शाम को दिल का दौरा पड़ा। रात होते-होते प्राण त्याग दिए। पेंशन भी आधी रह गई, लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। और ट्यूशनें करने लगा। सुबह निकलता तो रात दस बजे लौटता। छः-छः सात-सात ट्यूशनें एक वक्त में पढ़ाता था।

जवानी इसी तरह कट गई। जवानी क्या, बचपन में भी कभी कोई सुख नहीं भोगा। बाबू रेलवे में मामूली नौकर थे। तनख़्वाह ही इतनी नहीं थी कि अलल्ले-तलल्ले होता। स्कूल जाते समय माँ बासी रोटी में घी-नमक लगाकर दे देतीं। वही खाकर चला जाता। जेबखर्च किस चिड़िया का नाम है, कभी जाना ही नहीं। बस, कभी चौथे-छठे पैसा कि अधन्ना मिल गया, उसी को गनीमत समझा। नहीं तो वही खाली हाथ हिलाते, कंधे पर बस्ता लादे चले जा रहे हैं। शुरू में पाठशाला में पढ़ा। नंगे पाँव, बगल में तख़्ती और हाथ में बुदक्का। उसके बाद स्कूल जाने लगा। दो मील से क्या कम रहा होगा, मगर किसी सवारी की बात मन में भी नहीं आई। हाँ, इंटर में पहुँचा, तब ज़रूर डरते-डरते माँ से कहा कि पिता से कहें कि साइकिल दिला दें। कॉलेज जाने में थक जाता हूँ। कॉलेज था भी ख़ासा दूर। शुरू में पिता ने टाल दिया, लेकिन जब खुद देखा कि कॉलेज से आकर निढाल होकर बिस्तर पर पड़ा रहता हूँ तो माँ के बार-बार टोकने पर, साइकिल ख़रीद कर दी। वह भी सेकंड हैंड, नीलामी वाली। तभी से, इकन्नी कहीं दुअन्नी मिलने लगी। लेकिन जेबखर्च के नाम पर नहीं, बल्कि इसलिए कि रास्ते में कहीं साइकिल पंचर न हो जाए।

अब क्या-क्या बताऊँ! कपड़ों का यह हाल था कि हाईस्कूल तक घर के धुले, बिना इस्तरी किए कपड़े पहन कर जाता था। ऊनी पैंट पहली बार बी.ए. में पहुँचने पर पहनी। कोट तब भी नहीं। कोट पहली बार तब बना, जब एम.ए. में था और कान्वोकेशन में बी.ए. की डिग्री लेने जाना था। तभी डेढ़ रुपए, कि बीस आने की एक सड़ियल टाई ख़रीदी। पहली बार। बाँधना फिर भी नहीं आता था। एक लड़के से बँधवाकर गले में अटका ली।

सो, इस तरह जवानी कटी लेकिन बच्चों का शुरू से ख़याल रखा कि किसी तरह का कष्ट न होने पाए उन्हें। साहबजादे की तो हर ज़िद पूरी की। दो-ढ़ाई साल के रहे होंगे तब से सूट पहन रहे हैं। बाटा के जूते, टाई और हैट। एक बार, मुश्किल से चार पाँच साल के रहे होंगे, एक दुकान पर ज़िद पकड़ ली कि फौजी सूट पहनेंगे जिसमें सीटी और कंधे पर सितारे लगे होते हैं। बेल्ट और नकली पिस्तौल होती है। सौ कि डेढ़ सौ का था। दिया ख़रीद कर। तीसरे दिन ही खोंच लगा लाए। पत्नी डाँटने-डपटने लगी। मैंने कहा, ''जाने दो, बच्चा ही तो है। क्या समझेगा अभी।''

शुरू से अंग्रेज़ी स्कूल में भर्ती कराया। घर पर मास्टर लगाया सो अलग। क्या मजाल खाने-पीने में कोई कोताही रही हो। घी, दूध, मक्खन, अंडा, जैम, जेली, सब, कि भइया इससे ब्रेड खा लो, बेटे उससे खा लो। बेटे ने कहा, गाना गाकर खिलाओ तो गाना गा के खिलाया। बेटे ने कहा कि मुर्गा बनकर खिलाओ तो मुर्गा बन के खिलाया। जैसे बेटा खाए, जैसे खुश रहे। के.जी. में भर्ती कराया, तभी से सवारी। पहले रिक्शा, फिर स्कूल की बस, उसके बाद साइकिल। मुश्किल से दो-चार साल चली होगी कि स्कूटर की डिमांड आ गई। नवें कि दसवें में पढ़ रहे थे उस वक्त। बहुत समझाया कि एक-दो साल साइकिल और चला लो। तब ले देंगे मगर नहीं, साइकिल नहीं चलाएँगे, स्कूटर चलाएँगे, वह भी बजाज। चलाओ भाई, काहे को कोई साध रह जाए। दी लाकर। तीन हज़ार कि कितना ब्लैक भरा। मुश्किल से दो साल चलाया होगा कि बोले, मोटर साइकिल लेंगे। 'क्यों भाई, स्कूटर में क्या हो गया?' 'कुछ नहीं, मुझे नहीं पसंद।' तबीयत तो आई, कि एक कंटाप दें खींचकर, लेकिन चुप रह गए। जवान लड़के पर हाथ भी तो नहीं चला सकते। ठीक है। लो, मोटर साइकिल लो।

जेब खर्च तो जब से रुपया पहचानना शुरू किया, तभी से ले जाने लगे। शुरू में तीसरे-चौथे दर्जे तक चवन्नी-अठन्नी, तब रुपया। और आठवें कि नवें से तो जो चाहा, माँ से झटक लिया। कभी पाँच, तो कभी दस। बी.ए. में तो बाकायदा बैंक एकाउंट खुलवा दिया कि साहबज़ादे बड़े हो गए हैं, हिसाब-किताब रखना, रुपया निकालना, जमा करना, सब सीख लें। कपड़ों का यह हाल कि आठवें दर्जे तक तो स्कूल की ड्रेस चली। दो-दो जोड़ी जूते। एक रेगुलर, काले, रोज़ के लिए। दूसरे सफ़ेद, पीटी शू। उसके बाद तो फिर नवें में पहुँचे हैं कि आज जींस चाहिए, कल जैकेट चाहिए, परसों जूते ख़रीदने हैं। वह भी मामूला नहीं, बाटा कि लिबर्टी के। यह भी नहीं कि एक जोड़ी। दो-दो, तीन-तीन। गरज यह कि हर तरह के नखरे उठाए कि साहबज़ादे को किसी तरह की कमी का एहसास न हो।

अब तो ख़ैर अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। नौकरी करते हैं। शादी होनी थी, सो मैंने कर दी। भगवान की दया से एक बच्चा भी है, लेकिन चाल-ढाल अभी भी वही हैं। कभी मर्ज़ी आई तो हज़ार-बारह सौ रुपए घर में दे दिए। नहीं तो उनकी बला से। उनको तो दो वक्त का खाना चाहिए, बस। घर क्या हुआ, होटल ठहरा। नौ बजे से पहले कभी सोकर नहीं उठे। उठते ही बेड टी और अख़बार। उसके बाद साहब बाथरूम में। कंघा, शीशा, क्रीम, पाउडर, सब अंदर निबटाकर निकलेंगे। निकलते ही, 'कपड़े कहाँ हैं? 'जूते किधर हैं।' और साहब तैयार। लाइए, खाना दीजिए। घोड़ा तक रातिब खाता है तो आराम से जुगाली करके खाता है। लेकिन यहाँ? एक निगाह थाली पर, दूसरी घड़ी पर। जो ठूँसते बना, पेट में ठूँसा और जूता चरमराते बाहर गैलरी में। मोटर साइकिल की गद्दी के नीचे से कपड़ा निकालकर एक हाथ इधर मारा, एक उधर और उसके बाद साहब घोड़े पर सवार, 'भट', 'भट' और साहब एक, दो, तीन। अब रात में लौटेंगे, दस कि ग्यारह बजे।

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