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इधर पिछले कुछ दिनों से चिड़िया चुगाने की आदत डाल ली है। सुबह उठते ही रसोई में घुस जाएँगे। रोटी वाला डिब्बा खोलकर उससे रोटी निकालकर मीस-मीस कर पूरे लॉन और गैलरी में फैला देंगे कि चिड़िया आकर खाएँगी। चलिए भाई, खिलाइए रोटी। इसमें किसी को क्या एतराज़ हो सकता है। लेकिन इसमें भी फजीहत खड़ी होने लगी। रोटी अगर एक से ज़्यादा बची तो यह कि इतनी सारी रोटियाँ क्यों बरबाद की जा रही हैं। और अगर एक भी नहीं बची तो यह कि चिड़ियों को खिलाने तक के लिए रोटी नहीं बचती। अब बताइए साहब, इसका कोई इलाज है? इसी को कहते हैं चित भी मेरी, पट भी मेरी। यानी मुझको तो मीन-मेख निकालनी ही है, तुम जो भी करो। आख़िर हारकर इनकी झांय-झांय बंद करने की गरज से मैंने पत्नी से कहा कि एक रोटी कटोरदान में छोड़कर बाकी किसी बरतन में छिपाकर फ्रिज में रख दिया करो। मगर साहब, इनकी निगाह से कहाँ चीज़ें बचनेवाली। यह तो सुबह उठते ही जैसे सारे घर की तलाशी लेने लगते हैं। आख़िर एक दिन फ्रिज में छिपाकर रखी गई रोटियाँ इन्हें दिख ही गईं। अब यह शिकायत तो पीछे पड़ गई कि इतनी रोटियाँ क्यों बचीं? नई शिकायत यह पैदा हो गई कि मुझसे बात छिपाई जाती है, ताकि में कुछ कहूँ नहीं। करो बरबाद, जितना करना है। पेट काट-काटकर मैंने यह गृहस्थी जोड़ी है। उड़ाओ सब मिलकर। लुटाओ दोनों हाथों से। फूँक डालो सब कुछ।

अजब-अजब आदतें बना ली हैं। कपड़े-लत्ते की कोई कमी नहीं हैं। लेकिन इसके बावजूद, फटी तहमद पहने नंगे बदन, बाहर बरामदे में बैठे रहते हैं। इसी तरह सौदा लेने चले जाएँगे। कुछ कहो तो कहेंगे गाँधीजी भी तो लंगोटी पहनते थे, उन पर किसी ने उँगली नहीं उठाई, वही पहने-पहने विलायत गए थे। वहाँ के राजा के साथ बैठकर खाना खाया था। अब कीजिए बहस! कर सकते हैं?

गरमी भर दो-दो कूलर चलते हैं। लेकिन अंदर नहीं सोएँगे। बाहर खुले में लेटेंगे। वह भी बान की चारपाई पर! तीन-तीन फोल्डिंग हैं घर में। लेकिन उस पर नहीं लेटेंगे। बान की चारपाई पर ही लेटेंगे, वह भी बिना कुछ बिछाए। पानी में भिगोकर, नंगे बदन पड़े रहेंगे। कोई देखे तो यही कहेगा कि घर का नौकर होगा, तभी तो बेचारा बिना बिस्तर के पड़ा है।

एक और खब्त सवार रहती है। बिजली बेकार न हो। न हो भाई। इससे कौन असहमत हो सकता है। यह तो सरकार भी कहती है। रेडियो-दूरदर्शन पर विज्ञापन आते हैं, लेकिन अब ऐसा भी नहीं हो सकता कि आदमी बेडरूम से टॉयलेट जाए तो बत्ती-पंखा बंद करके जाए, कि घंटी बजने पर बाहर निकल कर देखने जाए तो कमरे की बत्ती गुल करके जाए। लेकिन इनका यही मतलब है कि एक सेकंड भी बत्ती बेकार न जले। किचन में दाल चढ़ाकर पकाने वाला कि पकाने वाली बाहर कमरे में सब्ज़ी काटने बैठे तो वहाँ की बत्ती गुल कर दे। फिर चाहे वहाँ बिल्ली टहले या छछूंदर। बाथरूम की बत्ती खुली देखेंगे तो दरवाज़ा खोलकर झाँकने लगेंगे कि कोई अंदर है या ऐसे ही बत्ती जल रही है। जहाँ भी कोई बत्ती जलती देखी और किसी को वहाँ नहीं पाया, फ़ौरन बत्ती ऑफ कर देंगे। पंखा चलता देख लिया कहीं और किसी को आसपास नहीं पाया, फौरन बंद कर देंगे। एक बार पानी की मोटर खुली रह गई। अब पता नहीं किसने खोली थी। बहरहाल, रह गई तो रह गई। मगर नहीं साहब, क्यों रह गई? हफ़्तों इन्क्वायरी करते रहे। बस चलता तो जाँच कमीशन बिठा देते।

बैठे-बैठे बेमतलब की चीज़ों से उलझते रहते हैं। उस दिन ख़ामख़्वाह का बखेड़ा खड़ा कर दिया। बाथरूम के फ्लश की टंकी कुछ दिनों से लीक कर रही थी। कास्ट आयरन की पुराने ज़माने की टंकी, कहीं हो गई होगी क्रैक। ऐसा नहीं कि मैंने नहीं देखा। आख़िर मैं भी इसी घर में रहता हूँ, लेकिन अलादीन का चिराग तो किसी के पास है नहीं कि घिसा नहीं कि जिन्न हाज़िर, ''बोलिए मेरे आका, क्या हुक्म है?'' ''टंकी ठीक करनी है भाई'' ''लीजिए, हो गई।'' प्लंबर को पकड़कर लाना पड़ेगा। वह देखेगा तब बताएगा कि क्या गड़बड़ी है। इसी में मरम्मत हो जाएगी कि बदलनी पड़ेगी। सो दो बार मैं जा चुका था, लेकिन यह प्लंबर आप जानते हैं, छोटे-मोटे कामों के लिए तो आसानी से राजी होते नहीं। सौ बार दाढ़ी में हाथ लगाओ, तब कहीं सत्तर नखरे करके आएँगे। वैसे, ऐसी कोई आफ़त भी नहीं थी। टायलेट इस्तेमाल करने से पहले फ्लश कर दो या फिर टंकी का नल नीचे से बंद कर दो। और इस सबकी भी क्या ज़रूरत है। दूसरा टायलेट भी तो है घर में। उसको इस्तेमाल करो तब तक। मगर नहीं। हो गई खब्त सवार इनको कि टंकी ठीक होनी ही है। सो, इस बीच किसी दिन टीवी पर एम.सील का कोई विज्ञापन देख लिया। बस, फिर क्या था। बाँधी तहमद और बाज़ार जाकर ख़रीद लाए एक पैकेट। घुस गए बाथरूम में स्टूल लेकर। तभी जाने क्या हुआ, स्टूल पर से पैर फिसला कि भगवान जाने क्या हुआ, नीचे आ रहे। तीन दिन से अस्पताल में पड़े हैं। एक्सरे हुआ तो पता चला, कूल्हे की हड्डी टूट गई है। ऑपरेशन करना पड़ेगा। लोहे की रॉड डाली जाएगी तब चलने-फिरने लायक होंगे। कम से कम पंद्रह हज़ार का लटका है। ऑफ़िस की क्रेडिट सोसाइटी और पी.एफ. दोनों से लोन अप्लाई कर दिया है। मिल जाएगा तो ठीक, नहीं तो बीवी के ज़ेवर बेचने पड़ेंगे। बेचूँगा। और रास्ता भी क्या है?

तीनः बयान माँ

आज इनको मरे पूरे छः महीने हो गए। आज ही के दिन, लगभग इसी समय इन्होंने प्राण तजे होंगे। अच्छे-भले स्ट्रेचर पर लिटाकर ऑपरेशन थेटर में ले जाए गए, और लाश बाहर निकाली। डॉक्टरों का कहना था कि हार्ट फेल हो गया। पहले से खराबी थी, इसलिए ऐसा हुआ। अब भगवान जाने हार्ट-फेल हुआ कि कोई कह रहा था बेहोशी की दवा ज़्यादा दे दी, जिससे होश ही नहीं आया।

पिंटू तो डॉक्टरों को मारने पर उतारू था। किसी तरह मान ही नहीं रहा था। उसका कहना भी ठीक ही था कि हार्ट पहले से चेक क्यों नहीं कर लिया। हार्ट कमज़ोर था तो ऑपरेशन के लिए थेटर में ले क्यों गए। पहले हार्ट का इलाज हो जाता। नहीं तो न होता ऑपरेशन। उठ-बैठ न पाते, यही तो होता। ज़िंदा तो रहते। सबने उसको पकड़ लिया नहीं तो मारे बिना न छोड़ता वह डॉक्टर को। फंड से कि कहाँ-कहाँ से पैसा निकालकर फीस भरी बेचारे ने। पूरे दस हज़ार गिनाकर रखा लिए, तब ऑपरेशन थेटर में ले गए उन्हें। डॉक्टर क्या, जल्लाद हैं सब।

मुझे तो लाश देखते ही बेहोशी का दौरा पड़ गया था। पता नहीं कितने छींटें पानी के मारे लोगों ने। कोई इंजेक्शन भी दिया गया शायद। तब कहीं जाकर होश आया। देखा, सब लोग पिंटू को पकड़े खड़े समझा रहे हैं कि जिसको जाना था, वह तो चला गया, अब फौजदारी से क्या फ़ायदा। मौत पर किसी का बस आज तक चला है कि आज ही चलेगा। जिसकी मिट्टी जहाँ लिखी होती है, मौत उसको वहीं घसीट ले जाती है। इनकी मिट्टी ऑपरेशन थेटर में ही लिखी थी। कहावत कही गई है, हिल्ले रोज़ी, बहाने मौत। नहीं तो न वह मरा विज्ञापन देखते टीवी पर और न स्टूल लेकर बाथरूम में टंकी ठीक करने जाते। जहाँ इतने दिनों से बह रही थी, कुछ दिन और बहती रहती। लेकिन मेरे भाग्य में तो रंडापा भोगना लिखा था। ज़िंदा थे तो अक्सर कहते रहते थे कि तुमसे पहले ही मर जाऊँगा मैं। मैं कहती, ''मरे तुम्हारे दुश्मन। तुम क्या मुझे रांड बनाना चाहते हो? ऐसे बुरे करम किए होंगे तभी तुम्हारी मिट्टी देखूँगी, नहीं तो औरत की मरजाद इसी में है कि सधवा मरे। माँग में सिंदूर और पाँव में बिछुए पहनकर चिता पर चढ़े। नहीं तो औरत की ज़िंदगी अकारथ है।'' वह कहते, ''यह सब पुराने ज़माने की बातें हैं।'' आजकल औरतों के मरने से आदमी को ज़्यादा कष्ट होता है, आदमी के मरने से औरत को उतना नहीं होता। और फिर तुमको क्या चिंता? तुम्हारा जवान, कमाऊ बेटा है। बहू है, पोता है। तुमको हमारी कमी नहीं खलेगी। तुम मर जाओगी, तो मुझे कौन पूछेगा? पिंटू को ही देख लो। एको बात नहीं मानता है मेरी। इतनी बार कहा, ''वक्त से घर आ जाया करो। घर की ज़िम्मेदारी समझो। सुनता है भला मेरी?'' मैं समझाती, ''तुमको क्या करना। तुम अपनी दो जून की रोटी खाओ। चींटीं, चिड़िया चुगाओ। सुबह-शाम बाहर टहलने निकल जाया करो। पोता बड़ा हो रहा है। उसे बिठाकर 'क' 'ख' 'ग' कि 'ए' 'बी' 'सी' 'डी' पढ़ाओ।''

बस, एक ही चिंता उनको खाए जा रही थी कि घर बरबाद हो रहा है। पिंटू उनकी बात पर ध्यान नहीं देता। इस कान से सुनता है, उस कान से निकाल देता है। कितनी साध से उन्होंने मकान बनवाया था। ज़रा-सा प्लास्टर उखड़ता था तो उनके कलेजे में हूक उठती थी। मैं समझाती रहती कि मकान में टूट-फूट तो लगी ही रहती है। वह कहते, ''टूट-फूट लगी रहती है, वह तो सही है लेकिन टूट-फूट ठीक भी तो होनी चाहिए। पिंटू को नहीं चाहिए कि इस तरफ़ ध्यान दे? चलो, खुद से न ध्यान दे, मेरे कहने से तो दे। मेरी उमर हो गई। अब इतना काम होता नहीं मुझसे। जल्दी थक जाता हूँ मैं।'' मैं कहती, ''नहीं होता तो चुपा के बैठो, जैसा हो रहा है वैसा होने दो। पिंटू अभी जवान है। क्या समझे दुनियादारी? जवानी में कोई किसी चीज़ की परवाह करता है? तुम करते थे कि तुम्हारा बेटा ही करेगा? उसके खेलने-खाने के दिन है। दोस्तों के बीच बैठकर गपशप लड़ाता होगा, जैसे तुम लड़ाते थे। रात-रात भर ताश-पत्ता खेलते थे कि नहीं? लेकिन उनको यही चिंता खाए जा रही थी कि अभी से पिंटू का यह हाल है तो आगे तो भगवान ही मालिक है।

पता नहीं क्यों, जैसे-जैसे उनकी उमर बढ़ रही थी, वैसे-वैसे मोह-माया भी बढ़ रही थी। स्वभाव भी चिड़चिड़ा होता जा रहा था। कोई कह रहा था कि शक्कर की बीमारी के मारे ऐसा था। उस बीमारी में आदमी को गुस्सा ज़्यादा आता है। जो भी हो, ऊपर से तो कभी कुछ पता चला नहीं कि शक्कर की बीमारी है, नहीं तो इलाज हो जाता। पिंटू को भी अफ़सोस है कि न शक्कर की बीमारी का पता चला पहले से, न दिल की कमज़ोरी के बारे में ही किसी डॉक्टर ने कभी कुछ बताया। आख़िर छोटी-मोटी बीमारी में डॉक्टर को दिखाने जाते ही थे। उसको बताना चाहिए था कि नहीं? पहले से पता चलता तो जमकर इलाज हो जाता।

मुझको तो लगता है कि महँगाई खा गई उनको। हड्डी टूटना तो बहाना था। नहीं तो पैंसठ-छियासठ की कोई उमर होती है आजकल। रिटायर हुए थे तो कितने खुश थे। दफ़्तर की विदाई पार्टी में यारों-दोस्तों ने ढेर सारे प्रेज़ेंट दिए थे। रिक्शे पर लदे-फंदे घर लौटे तो बोले, ''चलो, हो गई नौकरी। अब कुछ आराम करूँगा ज़िंदगी में। कितने लोग तो घर तक पहुँचाने आए थे। सभी कह रहे थे कि आजकल किसी को रिटायरमेंट पर इतने प्रेज़ेंट नहीं मिले, जितने इनको मिले थे। दूसरे ही दिन बाज़ार जाकर एक किलो बादाम लाए और गांधी आश्रम वाली शहद की शीशी। मुझसे बोले, ''लो, रोज़ शाम को चार-छः बादाम भिगो दिया करना। सुबह घिसकर शहद के साथ खाऊँगा।'' मौसमी फल तो हर वक्त घर में बने रहते। हफ़्ते में दो बार खुद जाकर गोश्त लाते। मुझसे कहते, ''खूब गलाकर पकाना। मसाला कम डालना। मसाला नुकसान करता है।'' मैं बनाकर देती तो शोक से बैठकर खाते। कहते, ''जवानी तो झींकते बीती। बुढ़ापे में आराम करूँगा अब। भगवान की दुआ से इतनी पेंशन मिल जाती है कि किसी बात की कमी नहीं पड़ेगी। पिंटू एक बार न भी दे एको पैसा घर में, तो भी राम जी की किरपा से कभी न होगी।'' लेकिन कमी होने लगी। धीरे-धीरे चीज़ों के दाम ड्योढ़े, दूने, तिगुने हो गए। घर का खर्च जो ढ़ाई-तीन हज़ार में चल जाता था, पाँच हज़ार भी कम पड़ने लगे उसके लिए। सो, एक-एक कर खर्चे कम किए जाने लगे। पहले बादाम बंद हुए, फिर गोश्त, तब फल। सुबह जहाँ दही-जलेबी, ब्रेड-मक्खन और अंडे का नाश्ता होता था, वहाँ नमकीन-पूरी बनने लगीं। बात में तो नाश्ता करना ही छोड़ दिया उन्होंने। मैंने कहा भी कि पूरी-परांठा अच्छा न लगता हो तो तुम्हारे लिए अलग से अंडा कि मक्खन मँगा दिया करें। बस, बिगड़ उठे। बोले, ''बच्चा हूँ क्या मैं? और तुम क्या समझती हो कि इस मारे नाश्ता नहीं करता मैं। इस बूढ़े शरीर को अब और चाहिए क्या? कुछ भी खा लूँ मैं, इस शरीर में अब कुछ लगने वाला नहीं, बल्कि नुकसान ही करेगा। इसीलिए कहते हैं कि बुढ़ापे में जितना कम खाए, उतना ही ठीक।'' कपड़ों के बारे में भी मैंने कहा कि न हो तो खद्दर भंडार से ही दो-चार कुर्ते-पाजामे ले आओ अपने लिए। अच्छा लगता है कि तहमद पहने बाहर बैठे रहते हो? अब इतना टोटा भी नहीं है पैसों का कि नंगे-उधारे बैठे रहो। मेरी बात सुनकर एक क्षण चुप रहे। तब बोले, ''अब इस तन को और क्या चाहिए? कफ़न चाहिए, सो कोई न कोई डाल ही देगा।'' ''क्यों ऐसी अशुभ बात मुँह से निकलते हो?'' मैंने कहा तो बोले, ''मैं अब और ज़्यादा जिऊँगा नहीं। ज़्यादा से ज़्यादा चार-छः महीने या एक साल!''

सो, वह तो चले गए, मगर इधर पिंटू को पता नहीं क्या होता जा रहा है। उनके मरते ही जैसे उसके चेहरे की रौनक ही ख़त्म हो गई हो। जब देखो, तब गुमसुम बना बैठा रहता है। दफ़्तर से सीधे घर आ जाएगा। कमरे में कुर्सी पर बैठा अख़बार कि कोई किताब लिए पढ़ता रहेगा। कितनी बार मैंने कहा कि शाम को घूम-फिर आया करो कहीं, दोस्तों के यहाँ चले जाया करो, लेकिन क्या मजाल कि दफ़्तर के अलावा कहीं चला जाए। हाँ, दूसरे-तीसरे दिन थैला लटकाकर सब्ज़ी लेने ज़रूर चला जाता है। या फिर सुबह-सुबह दूध लेने चला जाता है। पहले घोसी घर पर दे जाता था। उसे मना कर दिया। कहने लगा, इसमें पानी मिला होता है। बात सही भी थी। अब दूध दूध लगता है। एक अंगुल मोटी मलाई पड़ती है। नहीं तो पहले मलाई के नाम पर झाग भले निकाल लो चम्मच, दो चम्मच, मलाई आँख आँजने भर को भी नहीं निकलती थी। मिल का पिसा आटा लेना भी बंद कर दिया है। महीने, दो महीने पर बाज़ार से गेहूँ ले आता है। मैं बीन-पछोर देती हूँ। पहली बार उसने देखा तो बहू पर बिगड़ने लगा कि चौधराइन बनी बैठी हो और मम्मी गेहूँ बना रही हैं। बहू तुरंत भाग कर आई,  लेकिन मैंने ही मना कर दिया कि इसी बहाने थोड़ा हाथ-पाँव चला लिया करूँगी, नहीं तो गठिया ने तो पकड़ ही रखा है।

पिछले कुछ दिनों से एक और बात देख रही हूँ। रात में सोने से पहले नलों की टोटियाँ देखता है कि बंद हैं कि नहीं। बाथरूम की वह मरी टंकी तो बदल ही गई है। रसोई के नल में भी नई टोंटी लगा दी है। कहीं कोई फालतू बत्ती जल रही होगी कि पंखा चल रहा होगा तो बहू पर बिगड़ने लगेगा कि पैसा क्या पेड़ में लगता है, जो यह बेकार की बिजली फूँकी जा रही है। सब उन्हीं के लक्षण आते जा रहे हैं। अभी कल कि परसों की बात है, रात में कुछ खटपट हुई तो मेरी आँख खुल गई। देखती क्या हूँ कि दरवाज़ों के कुंडे-सिटकनी टटोल रहा है कि ठीक से बंद हैं कि नहीं। मैंने देखा तो मेरा मन अंदर से काँप उठा। वह तो बुढ़ापे में यह सब करते थे। इसको क्या होता जा रहा है?
हे भगवान! दया करना।

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24 अप्रैल 2007

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