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सित्तो ने दुहाई दी, ''हाय बीबी जी, हम तो बीच के गुसलखाने में गई ही नहीं। हम तो सुबह से महाराज के साथ बर्तन-भांडे में लगी रहीं और तब से नीचे कपड़े धो रही थीं।''
''ख़ामख़्वाह क्यों बकती हो!'' मालकिन ने दोनों को डाँट दिया, ''मैं किसी को कुछ कह रही हूँ? कड़ा गुस्लख़ाने में रखा था, पाँच तोले का है, कोई मज़ाक तो है नहीं! किसकी हिम्मत है जो पचा लेगा!''

घर भर में चिंता फैल गई। सब ओर खुसुर-फुसुर होने लगी। बात मर्दों में भी पहुँच गई। जमाई ज्ञान बाबू ने पुकारा, ''क्यों मंटा बहन जी, क्या बात है? माँ जी, मंटा ने छिपा लिया है। कहती है पाँच चाकलेट दोगी तो ढूंढ देगी।''
मंटा ने विरोध किया, ''हाय जीजा जी, कितना झूठ! मैंने कब कहा? मैं तो खुद सब जगह ढूँढ़ती फिर रही हूँ।''
बड़ा लड़का आनंद भी बोल उठा, ''अम्मा जी, याद भी है कि कड़ा पहना था। कहीं स्टील वाली अलमारी में ही तो नहीं पड़ा है। तुम घर भर ढूँढ़वा रही हो। तुम भूल भी तो जाती हो। चाभियाँ रखती हो ड्रेसिंग टेबल की दराज में छिपाकर और ढूँढ़ती हो रसोई में।''

मालकिन ने जीना उतरते हुए बेटे को उत्तर दिया, ''तुम भी क्या कह रहे हो? कल शाम लीला के साथ दाल धो रही तो बायें हाथ से घड़ी खोल कर रख दी थी। मंटू ने शोर मचाया, खाली कलाई अच्छी नहीं लगती। वही घड़ी नीचे रखकर कड़ा ले आई थी।''
बड़ी लड़की ने माँ का समर्थन किया, ''क्या कह रहे हो भैया, सुबह भी कड़ा अम्मा जी के हाथ में था। हमने खुद देखा है।''
कैलाश ने भी वीणा का समर्थन किया, ''सुबह मिश्रानी जी के यहाँ गई थीं, तब भी कड़ा हाथ में था। मिश्रानी जी ने नहीं कहा था कि बहुत दिनों बाद पहना है!''

सित्तो ने दोनों गुसलखाने अच्छी तरह देखे। फिर महाराज के साथ रसोई में सब जगह देख रही थी। किलसिया सब कमरों में जा-जाकर ढूंढ़ रही थी। न देखने लायक जगह में भी देख रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी, ''बीबी जी चीज़-बस्त खुद रख कर भूल जाती हैं और हम पर बिगड़ा करती हैं।''

बात घर में फैल गई थी। बड़े साहब और छोटे साहब ने भी सुन लिया था। दोनों ही इस विषय में जिज्ञासा कर चुके थे। छोटे साहब भाभी से अंग्रेज़ी में पूछ रहे थे, ''आपके नहाने के बाद नौकरों में से कोई घर के बाहर गया था या नहीं?'' सभी सहमे हुए थे। स्त्रियाँ, लड़कियाँ सब आँगन में इकट्ठी हो गई थीं। दबे-दबे स्वर में नौकरों के चोरी लगने के उदाहरण बता रही थीं। अब मालकिन भी घबरा गईं थीं। देवरानी ने उनके समीप आकर फिर कहा, ''देखा नहीं भाभी, किलसिया क़समें तो बहुत खा रही थी पर चेहरा उतर गया है।''
''यहाँ आकर तो देखिए!'' किलसिया ने बड़े साहब के कमरे से चिक उठाकर पुकारा।
''क्यों, क्या है?'' मंटा और वीणा ने एक साथ पूछ लिया।
''हम कह रहे हैं, यहाँ तो आइए!'' किलसिया ने कुछ झुँझलाहट दिखाई। वीणा और मंटा उधर चली गईं।

दोनों बहनें कमरे से बाहर निकलीं तो मुँह छिपाए दोहरी हुई जा रही थीं। हँसी रोकने के लिए दोनों ने मुँह पर आँचल दबा लिए थे।
किलसिया कमरे से निकली तो भवें चढ़ाकर ऊँचे स्वर में बोल उठीं, ''रात साहब के तकिये के नीचे छोड़ आईं। घर भर में ढुँढ़ाई करा रही हैं।''
''पापा के तकिये के नीचे।'' मंटा ने हँसी से बल खाते हुए कह ही दिया।

लीला, कुसुम, कैलाश, नीता सबके चेहरे लाज से लाल हो गए। सब मुँह छिपा कर फिस-फिस करती इधर से उधर भाग गईं।
मालकिन का चेहरा खिसियाहट से गंभीर हो गया। अवाक निश्चल रह गईं। वीणा से ज्ञान बाबू ने अर्थपूर्ण ढंग से खाँस कर कहा, ''कड़ा मिलने की तो डबल मिठाई मिलनी चाहिए।''
छोटे बाबू से भी रहा नहीं गया, बोल उठे, ''भाभी, क्या है?''
गोल कमरे से बड़े साहब की भी पुकार सुनाई दी, ''मिल गया, मंटू कहाँ से मिला है?''
मंटू मुँह में आँचल ठूँसे थी, कैसे उत्तर देती?
छोटे साहब फिर बोले, ''भाभी, भैया क्या पूछ रहे हैं?''
मालकिन खिसियाहट से बफरी हुई थीं, क्या बोलतीं?
लीला ने हँसी दबाकर भाभी के काम न में कहा, ''देखा चालाक को, कहाँ जाकर रख दिया। तभी ढूँढ़ती फिर रही थी।''

ज़ेवर चोरी की बात पड़ोसी मिश्रा जी के यहाँ भी पहुँच गई थी। मिश्राइन जी ने आकर पूछ लिया, ''मंटू की माँ, क्या बात है, क्या हुआ?''
''कुछ नहीं, कुछ नहीं।'' मालकिन को बोलना पड़ा, ''ख़ामख़्वाह शोर मचा दिया।''
कुसुम से रहा नहीं गया। अपने कमरे से झाँक कर बोली, ''ताई जी, किलसिया ने अम्मा जी के साथ होली का मज़ाक किया है।''

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१ मार्च २००७

 
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