पहली होली पर लड़की जमाई के साथ
आई थी। बड़ा लड़का आनंद सात दिन की छुट्टी लेकर आया था इसलिए
बहू को भी बुला लिया था। आनंद की छोटी साली भी बहन के साथ लखनऊ
की सैर के लिए आ गई थी। इंजीनियर साहब के छोटे भाई गोंडा जिले
में किसी शुगर मिल में इंजीनियर थे। मई में उनकी लड़की का
ब्याह था। वे पत्नी, साली और लड़की के साथ दहेज ख़रीदने के लिए
लखनऊ आए हुए थे। खूब जमाव था।
मालकिन ऊपर पहुँची। प्लेटों
में अंदाज़ से नमकीन और मिठाई रखी। जमाई ज्ञान बाबू के लिए
बिस्कुट और संतरे रखे। साहब इस समय कुछ नहीं खाते थे। उनके लिए
थोड़ी किशमिश रखी। किलसिया और सित्तो के हाथ नीचे भेजने के लिए
ट्रे में चाय लगाने लगीं।
''अम्मा जी, यह क्या?'' मंटू माँ के बायें हाथ की ओर संकेत कर
झल्ला उठी, ''फिर वही डंडे जैसी खाली कलाइयाँ! कड़ा फिर उतार
दिया! तुम्हें तो सोना घिस जाने की चिंता
खाए जाती है।''
''नहीं मंटू. . .'' माँ ने समझाना चाहा।
''तुम ज़रा ख़याल नहीं करतीं,'' मंटू बोलती गई, ''इतने लोग घर
में आए हुए हैं। त्योहार का दिन है। यही तो समय होता है कि कुछ
पहनने का और तुम उतार कर रख देती हो. . .।''
मंटू झुँझला ही रही थी कि
उसकी चाची, मालकिन की देवरानी लीला नाश्ते में सहायता देने के
लिए ऊपर आ गई। उसने भी मंटू का साथ दिया, ''हाँ भाभी जी,
त्योहार का दिन है, घर में बहू आई है, जमाई आया है, ऐसे समय भी
कुछ नहीं पहना! कलाई नंगी रहे तो असगुन लगता है। सुबह तो
चूड़ियाँ भी थीं, कड़ा भी था।''
मालकिन ने नाश्ता बाँटने से हाथ रोककर मंटू से कहा, ''जा
नन्हीं, दौड़कर जा, बीचवाले गुसलखाने में देख! सिर धोने लगी थी
तो बालों में उलझ रहा था, वहीं उतार कर रख दिया था। जहाँ मंजन-वंजन
पड़ा रहता है, वहीं रखा था। लाकर पहना दे!''
''मंटू जी ने धड़धड़ाती हुई नीचे गई। गुसलखाने में देखकर उसने
वहीं से पुकारा, ''अम्मा जी, यहाँ कुछ नहीं है।''
मालकिन ने मंटू की बात सुनी तो चेहरे पर चिंता झलक आई। देवरानी
से बोलीं, ''लीला, मेरे बाद तुम नहाई थी न। तुमने नहीं देखा!
आलमारी में रख दिया था।'' और फिर वहीं बैठे-बैठे मंटू को उत्तर
दिया, ''अच्छा बेटी, ज़रा अपने कमरे में तो देख ले! ड्रेसिंग
टेबल की दराज़ में देख लेना, कपड़े वहीं पहने थे!''
लीला की बहन कैलाश भी आ गई
थी। उसने भी पूछ लिया, ''क्या है, क्या नहीं मिल रहा?''
लीला को भाभी की बात अच्छी नहीं लगी। चेहरा गंभीर हो गया। उसने
तुरंत अपनी बहन को संबोधन किया, ''काशो, हम दोनों तो नीचे के
गुसलखाने में नहाने गई थीं. . .।''
मालकिन ने देवरानी के बुरा
मान जाने की आशंका में तुरंत बात बदली, ''मैं तो कह रही हूँ कि
तू वहाँ नहाई होती तो उठाकर सँभाल लिया होता।''
भाभी की बात से लीला को संतोष नहीं हुआ। उसने फिर कैलाश को याद
दिलाया, ''काशो, मैं बीच के गुसलखाने में जा रही थी तो किलसिया
ने नहीं कहा था कि बहू का साबुन-तौलिया और उसके लिए गरम पानी
रख दिया है। आपके बाद तो कुसुम ही नहाई थी। सँभाल कर रखा होगा
तो उसी के पास होगा।''
बीच की मंज़िल से फिर मंटू की पुकार सुनाई दी, ''अम्मा जी,
यहाँ भी नहीं है, मैंने सब देख लिया है।''
मालकिन ने कैलाश से कहा, ''काशो बहन, तू जा नीचे, मंटू से कह
कि ज़रा कुसुम से पूछ ले। उसने सँभाल लिया होगा। मुझे तो यही
याद है कि गुसलखाने की आलमारी में रखा था।''
कैलाश नीचे जा रही थी तो लीला ने मालकिन को सुझाया,
''भाभी जी, आपके बाद. . .।''
किलसिया कमरे में आ गई थी।
बोली, ''गोल कमरे में चाय दे दी है। बड़े साहब, जमाई बाबू और
बड़े भैया तीनों वहीं पी रहें हैं। पकौड़ी लौटा दी है, कोई
नहीं खाएगा। बहू जी, उनकी बहन और बड़ी बिटिया भी चाय नीचे मँगा
रही हैं।''
''सित्तो क्या कर रही है?'' मालकिन ने किलसिया से पूछा।
''नीचे के गुसलखाने में कपड़े धो रही है।''
किलसिया बहू, उनकी बहन और
बड़ी बिटिया के लिए चाय लेकर चली तो बोली, ''आपके बाद कुसुम से
पहले किलसिया भी तो गुसलखाने में गई थी। उसी ने तो आपके कपड़े
उठाकर कुसुम के लिए साबुन-तौलिया रखा था।'' लीला ने स्वर दबा
कर कहा।
''भाभी जी, मैंने आपसे कहा नहीं पर किलसिया की आदत अच्छी नहीं
है। पहले भी देखा, इस बार भी दो बार पैसे उठ चुके हैं। परसों
मैंने मेज़ की दराज में एक रुपया तेरह आना रख दिए थे, चार आने
चले गए। 'इनके' कोट की जेब में रुपए-रुपए के सत्ताइस नोट थे,
एक रुपया उड़ गया। कमरे किलसिया ही साफ़ करती है। मैंने सोचा,
इतनी-सी बात के लिए मैं क्या कहूँ?''
मालकिन ने समझाया, ''तू भी क्या कहती है लीला! आठ आने, रुपए की
बात मैं मानती हूँ, मरी उठा लेती होगी पर पाँच तोले का कड़ा
उठा ले, ऐसी हिम्मत कहाँ? मरी बेचने जाएगी तो पकड़ी नहीं
जाएगी?''
मंटू और कैलाश ने आकर बताया,
''कुसुम भाभी कहती हैं कि उन्होंने तो कड़ा देखा नहीं।''
सित्तो ने कपड़े धोकर सामने की छत पर लगे तारों पर फैला दिए
थे। उसने वहीं से मालकिन को पुकारा, ''बीबी जी, सब काम हो गया,
अब हम जाएँ!''
किलसिया फिर ऊपर आ गई थी। वह भी बोली, ''हमें भी छुट्टी दीजिए,
त्योहार का दिन है, ज़रा घर की भी सुध लें।''
''जाना बाद में,'' मालकिन बोलीं, ''देखो, हमने सिर धोया था तो
कड़ा उतार की गुसलखाने की अलमारी में रख दिया था। पहले ढूंढ़
कर लाओ, तब कोई घर जाएगा।''
किलसिया ने तुरंत विरोध किया, ''हम क्या जाने, हमें तो जिसने
जो कपड़ा दिया गुसलखाने में रख दिया। रंग से ख़राब कपड़े उठा
कर धोबी वाली पिटारी में डाल दिए। हमने छुआ हो तो हमारे हाथ
टूटें।'' |