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                    अब अपने पर हँसी आती है। अगर यह 
                    सब उन्हें पहले तब मिला होता तो कहीं ज़्यादा तीव्रता से अनुभव 
                    कर सकते थे- संपन्नता को भोगने के लिए भी सही उम्र और मानसिकता 
                    चाहिए। अब यह यांत्रिकता से पूर्ण रोज़मर्रा के जीवन का सहज 
                    अंग मात्र बनकर रह गई है। वे सहसा बुदबुदाते हैं- वाकई, 
                    आइंस्टीन ने ठीक कहा है- टाइम इज आल्सो ए डायमेंशन. . .ऊँचाई, 
                    लंबाई और चौड़ाई के साथ-साथ समय भी एक आयाम है जो बदलता है! फिर एक व्यावहारिक दबाव था- 
                    वे इस बात को खूब समझते थे कि अशोक जैसे रईस लोग भी हैं जो 
                    बोर्ड से बाहर होते हुए भी बोर्ड के मेंबरान की हैसियत रखते 
                    हैं और बोर्ड के निर्णयों को प्रभावित करने की अनधिकृत शक्ति 
                    है-  उनके पास! उन्हें साथ लेकर चलना ही बुद्धिमत्तापूर्ण है। 
                    दोनों ही मतलब सध जाते हैं- किसी से अंतरंगता भी अनिवार्य है 
                    जहाँ बेहिचक खुलकर मन का मैल बहा सकें तो क्यों न उसे ही दोस्त 
                    बनाया जाए जिससे दोस्ती के साथ-साथ काम का मतलब भी पूरा होता 
                    है!''मुंबई की झाँकी मुंबई में. . .कहिए तो यहीं नमूना हो जाए, 
                    कार में नीले फीते का डिब्बा है जिसमें माशूकाएँ बंद हैं, 
                    प्रोजेक्टर भी।''
 ''चलो आज यही हो जाए''- कुछ सोचकर पालीवाल साब बोले, ''देखो 
                    यार कोई विजीलेंस वाला तो नहीं भटक रहा आसपास, मुझे तुझ पर 
                    भरोसा है।
 ''यह भी कहने की कोई बात हुई सर. . .''
 अशोक के जाने के बाद उन्होंने 
                    उसके द्वारा छोड़े गए ब्रीफकेस पर नज़र डाली अंदर नोट होंगे। 
                    एक मदारी का पिटारा लगा उन्हें वह ब्रीफकेस जिसमें अंदर नाग 
                    है. . .पैसों का सर्प. . .कार में वह पिटारा साथ है- सुखद है। दिमाग़ बहुत कुछ सोच गया। 
                    कार की खिड़की टीवी के स्क्रीन की तरह लगने लगी थी और वे 
                    पुराने दृश्यों को फ़िल्म की तरह देख रहे थे। एकाएक ब्रेक लगा 
                    और वे हिल गए। उनका मस्तिष्क भी डगमगाया।
 ''बच गया. . .'' ड्राइवर 
                    फुसफुसाया, ''साले सुअर खुद की जान की कोई परवाह नहीं, पर 
                    दूसरों का क्या होगा?''''क्या हुआ?'' उन्होंने पूछा।
 ''वो बच्चा. . .बच गया गाड़ी से. . .''
 पालीवाल साब ने बाहर देखा यह 
                    वही साइट थी, जहाँ कल उन्होंने मंत्री जी के साथ वृक्षारोपण 
                    किया था। एक कोने में दुत्कारे गए मरियल कुत्तों की तरह कुछ 
                    झोपड़ियाँ दुबकी हुई थीं। लैंड एक्वायर करने के लिए इन्हें भी 
                    हटाया जाना था। कुछ मजदूर परिवार सड़क के किनारे खुदाई कर रहे 
                    थे, प्रोजेक्ट की बाउंड्री वाल का काम चल रहा था, एक मजदूरनी 
                    खुदाई कर रही थी, शायद उसी का नंग-धडंग बच्चा सड़क पर कार के 
                    सामने आ गया था।सारी स्थिति ने बिजली-सा झटका दिया पालीवाल साब को।
 ''गाड़ी रोको।'' वे एकाएक बोले।
 ड्राइवर के लिए यह निर्देश सर्वथा अप्रत्याशित था। हड़बड़ाकर 
                    उसने गाड़ी रोक दी।
 ''क्या हुआ सर?''
 ''एक मिनट. . .''
 वे नीचे उतर गए। मजदूरनी भी आश्चर्य से उन्हें देखने लगी।
 ''साब गलती हुआ. . .'' उसने बच्चे को अपनी छाती से चिपटा लिया।
 ''उधर गड्डा खोदता है कि बच्चा का कब्र? क्या मरने को यही सड़क 
                    मिला?'' ड्राइवर कह रहा था।
 उन्होंने ड्राइवर को चुप किया और मजदूरनी से पूछा, ''इधर ही 
                    रहते हो?''
 ''हाँ साब उधर झोपड़ा है।''
 ''तुम लोगों को यह जगह खाली करना है।''
 ''हाँ साब प्लांट बनेगा यहाँ, उसीका काम भी मिला पर साब ज़मीन 
                    अभी नहीं मिला, रकम भी पता नहीं कब देगा. . .''
 जल्दी देगा. . .खाली कब करोगे?''
 ''कब से करें. . .मन नहीं मानता, झोपड़ा और ज़मीन तो आम के 
                    पेड़ जैसा है, सालों पुराना। अब उसे उखाड़कर इसे साथ ले जाएँ. 
                    . .जा बच्चा लोग भी यहीं पैदा हुआ। पौधा का माफ़िक बड़ा हुआ, 
                    हमारा ज़मीन में आम है जामुन है, अमरूद भी, सबको कैसे ले जाएगा 
                    उखाड़कर. . .''
 ''फ़िक्र न करो, हम यहाँ पेड़ लगा रहे हैं, अच्छे पेड़ बड़े 
                    होकर छाया देंगे, फल देंगे।''
 ''हाँ, कल मनीस्टर आया था. . .सब लोग भी पेड़ लगाया पर अब देखा 
                    वो सब सूखा पड़ा है. . .पता नहीं पनपेगा भी. . .''
 ''अगर पानी रोज़ डालेंगे तो भर आएगा।''
 ''हाँ पानी डाल सकता है, साब के पास आदमी है, रोज़गार है, पाइप 
                    लेन है, पानी है। उनके लगाए पेड़ तो जी जाएँगे।''
 तभी सहसा उन्हें लगा वे 
                    आदमियों से नहीं बल्कि वृक्षों से बात कर रहे हैं। झोपड़ें और 
                    सभी मजदूर एकाएक पेड़ों में बदल गए। बड़े पेड़ों में पेड़ों ने 
                    उनका घेराव कर लिया। सब अपनी टहनियों की जीभ दिखाकर उनसे कह 
                    रहे हैं- देखो. . .क्यों उखाड़ते हो हमें. . .हमारी जड़ें 
                    वर्षों से इस मिट्टी में धँसी हैं, क्या दूसरी मिट्टी हमारी 
                    जड़ों को स्वीकार करेगी। इन पौधे जैसे बच्चों का क्या होगा, 
                    कहीं बेचारे सूख न जाएँ. . .तुम तो लगाओ इस्पात के पौधे और 
                    उगाओ कारखानों के जिन्न. . . कुछ और लोग आ गए वे कहने लगे, 
                    ''हम नयी जगह में नया गाँव बसाएँगे, पूरा गाँव। सब कुछ होगा 
                    वहाँ स्कूल और अस्पताल भी, इसलिए जल्दी खाली कर दो तुम. . .''मौन स्वीकृति में सिर हिलाया सबने। दरिद्र बच्चों का हुलिया 
                    देखकर पिघल गए पालीवाल साब। कुछ कौंधा उनके मस्तिष्क में 
                    ब्रीफकेस में रखी नोटों की गड्डी  याद आई. . .फिर रुक गए। 
                    व्यवहारिक बुद्धि ने दूसरा रास्ता सुझाया। झट उन्होंने पर्स 
                    निकाला और सौ-सौ के जितने नोट थे- सब मजदूरों में बाँट दिए। 
                    मजदूर और बच्चे सरासर हैरान थे।
 सुकून से सरोबार विक्षिप्त मनःस्थिति के साथ वे आकर कार में 
                    बैठ गए, ''चलो. . .''
 ''हाँ साब,'' ड्राइवर बोला, ''कल यहाँ प्लांटेशन किया था साब 
                    ने, तब कितनी भीड़ थी. . .''
 ''हाँ वृक्षारोपण के बाद रोज़ उसे सींचना भी ज़रूरी है. . 
                    .चलो. . .आज मैं पौधों को सींच आया हूँ, उन्हें उनका हिस्सा 
                    मिलना चाहिए।''
 कार चल दी, पालीवाल साब ने 
                    आँखें मूँद लीं। वे चाहते थे कि पेड़ों और पौधों के इस घेराव 
                    से उन्हें जल्दी ही छुटकारा मिले- किंतु कुछ था जो मन में जम 
                    गया था। उन्हें रह-रहकर न चाहते हुए भी उस खूँखार डाकू का 
                    स्मरण हो आ रहा था जो लूटपाट के अलावा गरीबों की मदद करने के 
                    लिए भी मशहूर था। |