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दादी को भी यहीं समझाया जाता कि कोई कितनी भी घंटी मारे, खोलना नहीं हैं। हमसे हर एक के पास चाबी तो हैं ही।
सो, आधे-पौने घंटे बाद जंगबहादुर भी दादी से वही हिदायत दुहराता, बीड़ी का सुट्टा मारता, दरवाजे से बाहर हो जाता।
अब? दो चार माला फेरने के बाद, दादी सारे गाँव के टोले-पड़ोस और नाते-पट्टीदारों को कोसना शुरू कर देतीं जिन्होंने बिना लाग-लपेट के सीधम-सीध 'सहेर' के ठिकाने पर चिठ्ठी तान दी थी कि
'आगे समाचार यह है कि आपकी माँ को सहेर जाने के लिए हम लोगों ने राजी कर लिया है। अब आप फौरन से पेस्तर आओ और 'डाइरीक्ट' लिवा ले जाओ। अपनी जमीवारी सँभालो। काहे से कि आप जान लो, उमिर और बुढ़ाया सरीर अब पूरी तरह पक के चू पड़ने को है लेकिन मानती फिर भी नहीं। टोल-पड़ोस का हेत-हवाल लेने, गिरती-भहरती हर कहीं पहुँच जाती हैं। दो-तीन मर्तबा तो ऊँचे-खाले लुढ़क भी चुकी हैं। अब मलहम पट्टी और डॉक्टर-वैद का उतना सरंजाम हमारे बस का कहाँ?

और सहेर में जानो कि आपका आलीसान मकान, नौकर-टहलुए, सान-सौकत के सारे बँदोबस्त। त़ो आप जांगर-पौरूष से थकी अपनी बूढ़ी माता की सेवा करके इहलोक, परलोक सुधारी और हम भी आपकी थाती आपको सुपुर्द कर गंगा नहाएँ। इसलिए चिठ्ठी को 'तार' जानो औरे आकर उन्हें अपने साथ ले जाओ। इस बार वे जरूर चली जाएँगी।'

इंतजाम पहले से था। साफ-सुथरा चाँटा-पोंछा घर। एक कोने में उनकी कोठरी। पदें ढँकी खिड़की, तिपाई, जग। जग में पानी और तिपाई पर बिस्कुट का पाकिट भी। और तो और उनकी खाट के ऐन सामने एक छोटा टी.वी. भी।

इन सबके बीच पूरी निगरानी के साथ दादी को स्थापित कर दिया गया। नल की टोटियाँ खोल बँद करके बताई गई। खिड़की के हुक और दरवाजों के हैंडल। कमोड में पानी चलाने की तरकीबें।

इस स्थापना-पर्व के बीच ही बेटे के बेटे ने पुट्ट से रिमोट की बटन दबा दी।
दादी हकबकाई, भौचक ज़ैसे यक्ष-किन्नर, नाग-गंधर्व, तीनों लोक, चौदहों भुवन से लेकर संपूर्ण ब्रह्मांड डाँवाडोल हो, इस चौखूँटी 'पेटी' (बक्से) में। हरिणाकुश से लेकर गौरा-पार्वती तक। जय जगदंबे! दादी निहाल हो लीं। बच्चों की तरह रिमोट हाथ में लेकर किलक उठीं।
जैसे अल्लादीन का चिराग हाथ लग गया हो। फिर लजाई। बच्चा के बाप ने मसखरी की
'अब इन्हें दो-तीन वीडीओ गेम्स और लाकर दे दो तुम लोग। इनका वक्त आसानी से कट जाया करेगा।'

सो, वक्त कटने लगा। सुबह-शाम और रात, एक पर एक उतरने लगे ऱसोई में जंगबहादुर द्वारा उतारे जाने वाले आलू-तोरई के छिलकों की तरह। गैस पर सब्जी छौंकने की आवाज के साथ शाम घिरती और रात मेज से प्लेटें उठा लेने के बाद दिनचर्या समेट ली जाती। सुबह फिर वही भूचाल।

घर के लोग अपने-अपने समय पर आते-जाते। आपस में थोड़ी बातचीत करते फिर अपने-अपने काम में मशगूल हो जाते। दादी उनके आसपास कहीं न कहीं बैठने-उठने, चलने-फिरने की कोशिश करती रहतीं। फिर थक कर अपनी कोठरी में आ कर रिमोट का बटन दबा देतीं।
...
दो-चार दस हफ्ते बीतते न बीतते दादी उदास हो लीं। 'पेटी' का रंगारंग जादू बेअसर साबित होने लगा। दादी खेत-खलिहान, गड़ही-पोखर ढूँढ़ती तो उधर बड़े-बड़े रंगीन फूलों वाली आदमकद फुलवारियाँ दीखतीं। गाँव-सिवान तलाशती तो घुटनों तक घाघरी चढ़ाए, सीना उधारे होस से बेहोस फूहड़पने पर उतरीं छोकरियाँ। बाकी पूरे समय धाँय-धाँय छूटते, गोले-बारूद, ताड़-ताड़ दगती बँदूकें क़हीं उघड़ी खाल, कहीं लिथड़ते शरीर, रिसता खून पहली बार देखा तो दिमाग चकराया और वहीं की वहीं घुमटा खा के लुढ़क गई थीं। पाँच-दस मिनट में पानी के छीटें मार, गुलाब का शरबत पिला के दुरूस्त किया गया। होश-हवास लौटे तो खिसियाई। सबके सामने सफाई दी 'गोली बारूद वाली बटन निकाल दो। जान थोड़ेई देनी है। मैंने तो राधेकृष्ण के लिए बटन दबाई थी। भगवान लोग अब क्यों नहीं आते?'

बच्चों ने ठहाका लगाया 'आप जो आ गई। सारे भगवान भाग खड़े हुए।' फ़िर समझाया गया 'सब कुछ रोज-रोज नहीं आता। हम लोग सारे दिन तो रहते नहीं। बटन दबा-दबा कर देख लिया कीजिए। ओ.के.?' और रिमोट दादी के हाथों में थमा कर चलते बने।

लेकिन शाम को बच्चों के पिता ने सुना तो एक झोंके में सब पर दहाड़े निकाल बाहर करो टी.वी. उनकी कोठरी से। वरना हमारी गैरहाजिरी में कुछ हो-हवा गया तो कौन जिम्मेवार होगा? ऐं? नहाना-धोना, खाना-पीना, पूजा-पाठ, इतना काफी नहीं क्या? बाकी समय चुपचाप माला जपें, बस।'

माला के नाम से दादी का दिल बैठ गया। जैसे पढ़ाई के नाम से बच्चों का। लेकिन अधेड़ हुए बेटे के सामने कहें तो कैसे? च़ुपचाप साँस रोके, अपने लिए, किए गए फैसले का इंतजार करती रहीं। प़ूरे समय दिल धड़कता रहा। बस, अब कोई आया, 'पेटी' उठाके ले जाने। कहीं कुद खड़कता, जान मुँह को आ जाती। अच्छा हो या बुरा, समय काटने का साथी तो हैं न! चला जाएगा तो क्या करेंगी दिनभर? ले-दे के वही एक खिड़की ज़िसके बगल वाली बिल्डिंग की कफ्फन सी सपाट दीवाल के सिवा कुछ दिखता ही नहीं। लगता हैं जैसे ऊँची उठती दीवाल के बीच चिन दी गई हों।

खैर, देर रात तक कोई नहीं आया तो उन्हें ढाढ़स बँधा। गई नहीं 'पेटी'। बच गई। पर बटन दबाने की भी हिम्मत न पड़े। हतबुद्धि सी रिमोट लिए बैठी रहीं। बैठे-बैठे उकता गई। न रिमोट छोड़ते बने, न माला उठाते बने। हार कर रिमोट पकड़े-पकड़े ही अचानक बटन दब गई। अ़रे! सामने, पेटी पर तो सावन के झूले-हिंडोले और रंग-बिरंगी ओढ़नियाँ फहराती, लड़कियाँ तीज कजली गा-गा के झूला झूल रही थीं। सब की सब बिछुए, टीके, मेहँदी, महावर, कंगन-चूड़ियों से लैस। जितने श्रृंगार और सज्जा की दादी कल्पना कर सकती थीं, उससे कई-कई गुना ज्यादा। इतना सिंगार! (दादी ने तो 'सोलह' ही सुने थे) जुटता किसे है। दादी का जी लहक उठा। बड़ा खुसहाल गाँव हैं। जगदंबे माता सबके सुख-सुहाग की रच्छा करें।
मगन, मन, दादी लड़कियों के सुर में सुर मिला कर गाने की कोशिश करने लगीं।

सावन रितु आ--ई, धीरे-धीरे सावन रितु
खोलो मोरे सजना, चंदन केवड़िया
(क्योंकि)
चुनर मोरी, भी---जे, धीरे-धीरे
सावन रितु आ---ई धीरे-धीरे
सुनते-सुनते दादी पूरी तरह तन्मय हो गई।

गीत के 'बोलों' के हिसाब से शरमाने, लजाने और मुस्कुराने लगीं। मुग्ध दृष्टि से टकटकी लगाए, फूलों के गजरे लिपटे, पेंगे बढ़ाते झूलों को देखती रहीं। देह-दसा की सुध-बुध बिसर गई। आँखों के आगे बस सावन की झिरी, भीगीं चूनर और चंदन केवड़िया
- कि पट्ट से प्रोग्राम खत्म हो गया। पर्दे पर कलाकारों के नामों की सूची बदलने लगी। दादी का सपना टूटा। पर मन की हरियाई नीम पर वही झूले, वही गाने, पेंगे मारते रहे। अगले पूरे दिन भी वे अपनी खुरखुरी आवाज और थरथराते गले से सोलह शृंगार और चंदन केवड़िया का गीत निकालने की कोशिश करती रहीं।

सारा दिन बहुत अच्छा बीता। उससे अगला भी। पर आखिर कितने दिनों तक वही एक गीत गाते रहा जा सकता था? दादी हर दिन बटन घुमाती रहतीं कि लड़कियाँ फिर आएँ, फिर झूला झूलें, कजली गाएँ लेकिन वह गीत दुबारा नहीं आया।

अलबत्ता बटन दबा-दबा कर उसे ढूँढ़ते रहने के दरम्यान कभी किसी गरीब बेसहारा की झोपड़ी में आग लगाते लोग, कभी चीखती, तड़पती लुगाई को नोचते, खसोटते दरिंदे। गोली तो लोग यों मार देते जैसे कंचे खेल रहे हों। धाँय-धाँय गालियाँ चलती और पटापट हँसते-खेलते इंसान खून से तरबतर धरती पर लोट जाते। कभी बाप की गोद में बेटा, कभी औरत की गोद में उसके आदमी का सिर बेजान लुढ़क जाता।

दादी रोक न पातीं। हिलक के रो पड़ती 'बैन' कह-कहके देखो-देखो। अरे राच्छसों खड़े-खड़े गोली दाग दी रे दैय्या बेचारे निहत्थों बेकसूर पे मैंने खुद अपनी आँखों से देखा मार के पुलिया पार से छलांग लगा दी, कसाइयों ने अ़रे राम-रहीम का पहरा उठ गय क्या रे, दुनिया से कहीं आग में जिंदा झोंक रहे हैं, कहाँ पानी में घाँट-घाँट के कहाँ बिजली का करेंट लगा के कहाँ हो दीनबँधु! दीनानाथ।

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