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उत्तेजना में साँस चलने लगती। ओठ लटपटाने लगते। हर छोटे-बड़े को बुला कर फूलती साँसों के बीच आँखों देखे 'अन्याय' की दुहाई देने लगतीं। बच्चे हँस पड़ते लेकिन बच्चों को माँ झुँझला कर रिमोट छीन लेती' जब समझती नहीं तो देखना काहे का। सब कुछ को सच मान लेती है। जान छुड़ाने की गरज से किया उपाय, जान की जहमत बन गया। शुरू-शुरू में मजा लेने वाले बाकी लोग भी क्रमश: दादी द्वारा वक्त-बेवक्त उचारे जाते 'बैनो' से आजिज आने लगे।

एक बार घर की मालकिन ने किसी पड़ोसन के सामने परेशानी बयान की। उसने सुझाया, सुबह नौ-दस के बीच चैनल सात पर किसी महात्मा का प्रवचन आता है। वैसे महात्मा लगता तो पूरा गुरू घंटाल है पर दादी का हिसाब बैठ जाएगा। वक्त कटी हो जाएगी।

और अगली सुबह टाइम देख कर दादी के सामने बटन दबा दी गई। दादी के सामने बटन दबा दी गई। दादी गद्गद्। ऐन सामने, घर के घर में, लंबी दाढ़ी, तिलक-त्रिपुंड और गेंदे-गुलाब की मालाओं से सुसज्जित महात्मा जी प्रकट हो गए। चारों तरफ रंग-बिरंगी झालरे, झंडियों से सजा पंडाल, खचाखच भरे आलम (लोग) ब़ैक ग्राउंड में कैसियों टोन पर बजती बांसुरी की धुन। बीचों-बीच रेशमी चादर से ढ़की चौकी पर विराजमान महात्मा जी
'जय बांके बिहारी, गोबरधम गिरधारी, वंशी के बजैय्या, रास के रचैया, माखन चोर, बोलो यशोदानंदन, केसनिकंदन, कन्हैयालाल की '
'जै--- रसमग्न, झूमते-गाते, श्रोताओं का समवेत स्वर गूँज उठा। दादी हर्ष-विह्वल, आँखों से आँचल लगा आनंदातिरेक के आँसू पोंछने लगीं।

बस, अब तो रोज यही सिलसिला चल निकला। अपने सारे काम जैसे-तैसे समेट, गिरती, लटपटाती दादी, साढ़े आठ से ही टी.वी. के सामने आ बैठतीं। बैठने के साथ ही बेताबी बढ़ती जाती। कहीं देर न हो जाए। महात्मा जी पहुँच न गए हों पंडाल में। स़मझाने, बताने से ज्यादा फायदा नहीं।
बटन दबते ही कैसियों टोन की धुन के बीच मंद-मंद मुस्कुराते, दाढ़ी सँवारते महात्मा जी प्रकट हो जाते। दादी का पोपला मुँह नवोढ़ा सा खिल उठता। टकटकी बँध जाती। महात्मा जी बीच-बीच में चुटकुले भी छोड़ देते। 'पेटी' के अंदर का पंडाल हँस पड़ता, दादी भी। थोड़ा बहुत जानने, समझाने पर भी कभी-कभी रहा नहीं जाता। थोड़ी सकुचाती, लजाती बच्चों से पूछतीं
'महात्मा जी हम सबको देख रहे होंगे क्या?'
'हाँ, कल आपको उनकी चिठ्ठी भी मिलेगी'
दादी बच्चों की उदंडता और मसखरी का बुरा नहीं मानतीं। उनका ध्यान तो भाव-विभोर करने वाली धुन और प्रवचन में रमा रहता। अक्सर पंडाल में बैठे भक्त श्रोताओं की तरह वे भी झूमने की कोशिश करतीं। और कभी-कभी तो उन्हें अपने आपको तत्व ज्ञान प्राप्त होता भी महसूस होने लगता।

लेकिन एक दिन बड़ा पंगा हो गया। पूरी फजीहत हो। दादी मगन मन और दिनों की तरह महात्मा जी का प्रवचन सुन रही थीं कैसियो टोन की बँशी वादन गूँज रहा था। बीच से उभरता महात्मा जी का स्वर भी 'वह रास का रचैया, गोप बालों का खिलैय्या, मोर मुकुटधारी वृन्दावन बिहा '
-- कि महात्मा जी का मुँह खुला का खुला रह गया और कार्यक्रम पलट गया। शायद वह महात्मा जी के प्रवचनों वाला आखिरी कैसेट था और टाइमिंग में थोड़ी गड़बड़ी होने से एक डेढ़ मिनट पहले ही बँद कर दिया गया था।
उसके बाद उस चेनल पर किसी और कार्यक्रम की घोषणा हो गई। इधर दादी का हाल-बेहाल, सुन्न सकता कि बैठे-बिठाए, हँसते-बोलते, प्रवचन करते, महात्मा जी देखते-देखते अंतर्ध्यान हो गए। मुँह तक खुला का खुला। हाय कैसी तो छवि और कैसा तेज। अब कहाँ देखने को मिलेगा मुखमंडल, और कहाँ से सुनने को मिलेगी ब्रज की बाँसुरी।

उन्हें सही बात समझाने की काफी कोशिश की गई। थोड़ी बहुत समझीं भी पर मन टूटा सो टूटा। उस पूरे दिन अन्न-जल नहीं ग्रहण कर पाई। दूसरे दिन भी उदास, तीसरे दिन भी लस्त। अकेली कोठरी, पहाड़ सा दिन।

आखिर सोग से उबरने के लिए पुन: रिमोट की शरण में जाना पड़ा। यह भी डर था कि कहीं बेटे के कानों में बात न जाने पाए कि फिर से 'पेटी' की करामात के कारण दादी हलकान। 'बेटा कम हठ्ठी नहीं। इस बार कहीं सचमुच हड़ककर 'पेटी' हटवा दी तो।

अत: धीरे-धीरे दादी ने वापस सब कुछ देखना शुरू कर दिया। जो कुछ भी, जब भी आता, देखने, समझने की कोशिश करतीं। पहले लगातार देखते हुए कुछ न कुछ टीका-टिप्पणी भी चलती रही। कभी लानतें भेजतीं, कभी कोसतीं, लेकिन फिर लोगों के झुँझलाने-झल्लने पर वह सब भी कम हो गया। जब कभी मन घबड़ाता, अकेलापन, उदासी, काटती, बटन दबा देतीं। धीरे-धीरे मार-धाड़ से डरना, रोना, कलपना भी बँद हो गया। घर वालों को राहत मिली। अब, अपने-अपने काम से घर लौटने के बाद शाम को दादी उन्हें बेवजह घेरने-घारने के बदले अपनी कोठरी में टी.वी. देखती मिलतीं या टी.वी. देखने के बाद थकी आँखों को आराम पहुँचाती। अब वे जबरदस्ती के 'सिली' सवालों से किसी को परेशान भी न करतीं। उलटे कभी-कभार बात चलने पर, किस प्रोग्राम को कितने हजार चिठि्ठयाँ मिलीं या क्या-क्या कीमती चीजें इनाम में थीं, या साबुन तेल वाली छोकरियाँ कैसी घाघरी, कैसा जंपर पहने थी, यह भी बताती। बड़ों और बच्चों दोनों के लिए दादी से मिली ये ज्ञानवर्धक सूचनाएँ अतिरिक्त मनोरंजन का माध्यम हो गई और उन्होंने अब दादी को 'टेलीविजन इनफॉरमेशन ब्यूरो' के नाम से पुकारना शुरू कर दिया।

किचेन में जेट-स्पीड से दाल बघारता या रोटियों को फटाफट तवे से गैस पर फेंकता, जंगबहादुर भी अब दादी की विस्तृत पूछा -- पैखियों से मुक्त हो गया था। उसकी माँ की दवा, बाप की दारू और बहनों की शादियों से संबँधित चिंताएँ और सुझावों के साथ-साथ दादी की किचेन में पहुँच कर की जानेवाली टोकाटोकी और दखलंदाजी भी बँद हो गई। अधेड़ बेटा घी-दूध खाए तो ठीक, न खाए जो ठीक। उसके दफ्त जाने से पहले 'जान है तो जहान है', की नसीहत भी नहीं।
स्थितियों के साथ दादी के इस समझौते और समझदारी पर पूरा घर मन ही मन संतुष्ट और चमत्कृत था। देर आयद दुरूस्त आयद। सबकी जिन्दगी अमन चैन से कटने लगी। दिन, हफ्ते और महीने पे महीने बीतते गए।
...
अचानक इतवार की एक दोपहर, नीचे आवा-जाहियों से भरी सड़क पर कहीं गोलियाँ चलने जैसी आवाज आई और मिनटों में पूरी कालोनी लोमहर्षक उत्तेजना से सनसना गई। एक खौफनाक दहशत भरा सियापा सारी आवाजाहियों को निगल गया।

पता चला, ठीक, तीन इमारतों के पहले कोने पर, दो नकाबपोश अजनबी एक अठ्ठाईस साल के लड़के पर गोलियाँ दागते निकल गए। लड़के का मृत, छलनी हुआ शरीर हाथों में था, बाप अवसन्न, पथराया-सा बैठा है क़ोई पास तक जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा द़म घोंटू सन्नाटे में पुलिस की गाड़ियों की दनदनाहट दूर हो गई।

इतवार की दोपहर। माँ-बाप तथा बच्चे सभी घर पर। चेहरे आतंक से सहमे।
शायद छोटे वाले लड़के को खयाल आया। भागा गया। एक स्वाभाविक उत्तेजनावश उसने सोती हुई दादी को झकझोर कर जगा दिया और जल्दी-जल्दी एक साँस में पूरा किस्सा बयान कर गया।
दादी पहले तो जैसे कुछ सुन, समझ ही नहीं पाई। फिर बच्चे से समझा कर बताने को कहा। उसने दुबारा बताया। इस बार बताते हुए डरा भी कि कहीं दादी ने रोना-बिलखना शुरू कर दिया तो माँ से अलग फटकार मिलेगी।
लेकिन आश्चर्य! दादी ने कोई हड़बड़ी या उत्तेजना नहीं दिखाई। आराम से टेक लगाती उठीं। आँखों पर पानी के छींटें मारे, ऐनक लगाई और पोते को 'अधिकारिक सूत्रों' की जानकारी सी देती, शांत स्वर में बोलीं --
'मुझे मालूम है - कल सेई मालूम है -- कल ही देखा था मैंने।'
'क्या? ' लड़का झल्लाया। 'आप होश में तो हो?' -- अभी आधे घंटे पहले की बात है ये। यहाँ, ठीक अपनी सड़क के नीचे गोली दगी औ़र आप कहती हो कल सेई मालूम है' उसने दादी के लहजे की नकल की।
'एकई बात है' -- दादी ने शांति से बच्चे को पुचकारा -- 'अब ये तो आए दिन के टंटे हैं। कल 'पेटी' पे भी एकदम येई दिखाया था -- रात-दिन यई चल रहा है। 'आठो प्रहर' -- फिर पोपले आँखों पर जबान लटपटाती इत्मीनान से पूछ बैंठीं - 'चाय की हुड़क लग रही है। ज्यादा सो ली क्या। ज़ंगबहादुर ने चाय चढ़ाई कि नहीं, देख तो जरा बेटा।'

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१३ जून २०११

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