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"एक राजा
निरबंसिया थे," माँ कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही
चार-पाँच बच्चे अपनी मुट्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने
पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का
सुन्दर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छह गौरें रखी
जातीं, जिनमें से ऊपरवाली के बिन्दिया और सिन्दूर लगता, बाकी
पाँचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती
स्थिर-सी जलती रहती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया
बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढ़ाने की उतावली
की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती।
"एक राजा निरबंसिया थे," माँ सुनाया करती थीं, "उनके राज में
बड़ी खुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे।
कोई दुखी नहीं दिखाई पड़ता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी,
चंद्रमा-सी सुन्दर और औ़र राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज
देखते और सुख-से रानी के महल में रहते।"
मेरे सामने
मेरे ख्यालों का राजा था, राजा जगपती! तब जगपती से मेरी
दाँतकाटी दोस्ती थी, दोनों मिडिल स्कूल में पढ़ने जाते। दोनों
एक-से घर के थे, इसलिए बराबरी की निभती थी।
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