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                     मैं 
                    मैट्रिक पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया और जगपती कस्बे के 
                    ही वकील के यहाँ मुहर्रिर। जिस साल जगपती मुहर्रिर हुआ, उसी 
                    वर्ष पास के गाँव में उसकी शादी हुई, पर ऐसी हुई कि लोगों ने 
                    तमाशा बना देना चाहा। लड़कीवालों का कुछ विश्वास था कि शादी के 
                    बाद लड़की की विदा नहीं होगी। 
 ब्याह हो जाएगा और सातवीं भांवर तब पड़ेगी, जब पहली विदा की 
                    सायत होगी और तभी लड़की अपनी ससुराल जाएगी। जगपती की पत्नी 
                    थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी थी, पर घर की लीक को कौन मेटे! बारात 
                    बिना बहू के वापस आ गई और लड़केवालों ने तय कर लिया कि अब 
                    जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली से हो, पर 
                    वह लड़की अब घर में नहीं आएगी। लेकिन साल खतम होते-होते सब 
                    ठीक-ठाक हो गया। लड़कीवालों ने माफी माँग ली और जगपती की पत्नी 
                    अपनी ससुराल आ गई।
 
 जगपती को जैसे सब कुछ मिल गया और सास ने बहू की बलाइयाँ लेकर 
                    घर की सब चाबियाँ सौंप दीं, गृहस्थी का ढंग-बार समझा दिया। 
                    जगपती की माँ न जाने कब से आस लगाए बैठीं थीं। उन्होंने आराम 
                    की साँस ली। पूजा-पाठ में समय कटने लगा, दोपहरियाँ दूसरे घरों 
                    के आँगन में बीतने लगीं। पर साँस का रोग था उन्हें, सो एक दिन 
                    उन्होंने अपनी अन्तिम घड़ियाँ गिनते हुए चंदा को पास बुलाकर 
                    समझाया था - "बेटा, जगपती बड़े लाड़-प्यार का पला है। जब से 
                    तुम्हारे ससुर नहीं रहे तब से इसके छोटे-छोटे हठ को पूरा करती 
                    रही हूँ अब तुम ध्यान रखना।" फिर रुककर उन्होंने कहा था, 
                    "जगपती किसी लायक हुआ है, तो रिश्तेदारों की आँखों में करकने 
                    लगा है। तुम्हारे बाप ने ब्याह के वक्त नादानी की, जो तुम्हें 
                    विदा नहीं किया। मेरे दुश्मन देवर-जेठों को मौका मिल गया। 
                    तूमार खड़ा कर दिया कि अब विदा करवाना नाक कटवाना है। जगपती का 
                    ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की छाती पर साँप लोट गया। सोचा, घर 
                    की इज्जत रखने की आड़ लेकर रंग में भंग कर दें। अब बेटा, इस घर 
                    की लाज तुम्हारी लाज है। आज को तुम्हारे ससुर होते, तो भला..." 
                    कहते कहते माँ की आँखों में आँसू आ गए, और वे जगपती की देखभाल 
                    उसे सौंपकर सदा के लिए मौन हो गई थीं।
 
 एक अरमान उनके साथ ही चला गया कि जगपती की सन्तान को, चार बरस 
                    इन्तज़ार करने के बाद भी वे गोद में न खिला पाईं। और चंदा ने 
                    मन में सब्र कर लिया था, यही सोचकर कि कुल-देवता का अंश तो उसे 
                    जीवन-भर पूजने को मिल गया था। घर में चारों तरफ जैसे उदारता 
                    बिखरी रहती, अपनापा बरसता रहता। उसे लगता, जैसे घर की अँधेरी, 
                    एकान्त कोठरियों में यह शान्त शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। 
                    घर की सब कुंडियों की खनक उसके कानों में बस गई थी, हर दरवाजे 
                    की चरमराहट पहचान बन गई थी।
 
 "एक रोज राजा आखेट को गए," माँ सुनाती थीं, "राजा आखेट को जाते 
                    थे, तो सातवें रोज जरूर महल में लौट आते थे। पर उस दफा जब गए, 
                    तो सातवाँ दिन निकल गया, पर राजा नहीं लौटे। रानी को बड़ी 
                    चिन्ता हुई। रानी एक मंत्री को साथ लेकर खोज में निकलीं।"
 
 और इसी बीच जगपती को रिश्तेदारी की एक शादी में जाना पड़ा। 
                    उसके दूर रिश्ते के भाई दयाराम की शादी थी। कह गया था कि दसवें 
                    दिन जरूर वापस आ जाएगा। पर छठे दिन ही खबर मिली कि बारात घर 
                    लौटने पर दयाराम के घर डाका पड़ गया। किसी मुखबिर ने सारी 
                    खबरें पहुँचा दी थीं कि लड़कीवालों ने दयाराम का घर सोने-चाँदी 
                    से पाट दिया है आखिर पुश्तैनी जमींदार की इकलौती लड़की थी। घर 
                    आए मेहमान लगभग विदा हो चुके थे। दूसरे रोज जगपती भी चलनेवाला 
                    था, पर उसी रात डाका पड़ा। जवान आदमी, भला खून मानता है! 
                    डाकेवालों ने जब बन्दूकें चलाई, तो सबकी घिग्घी बँध गई। पर 
                    जगपती और दयाराम ने छाती ठोककर लाठियाँ उठा लीं। घर में कोहराम 
                    मच गया। फिर सन्नाटा छा गया। डाकेवाले बराबर गोलियाँ दाग रहे 
                    थे। बाहर का दरवाजा टूट चुका था। पर जगपती ने हिम्मत बढ़ाते 
                    हुए हाँक लगाई, "ये हवाई बन्दूकें इन तेल-पिलाई लाठियों का 
                    मुकाबला नहीं कर पाएँगी, जवानो।"
 
 पर दरवाजे तड़-तड़ टूटते रहे, और अन्त में एक गोली जगपती की 
                    जाँघ को पार करती निकल गई, दूसरी उसकी जाँघ के ऊपर कूल्हे में 
                    समा कर रह गई।
 चंदा रोती-कलपती और मनौतियाँ मानती जब वहाँ पहुँची, तो जगपती 
                    अस्पताल में था। दयाराम के थोड़ी चोट आई थी। उसे अस्पताल से 
                    छुट्टी मिल गई थी। जगपती की देखभाल के लिए वहीं अस्पताल में 
                    मरीजों के रिश्तेदारों के लिए जो कोठरियाँ बनीं थीं, उन्हीं 
                    में चंदा को रुकना पड़ा। कस्बे के अस्पताल से दयाराम का गाँव 
                    चार कोस पड़ता था। दूसरे-तीसरे वहाँ से आदमी आते-जाते रहते, 
                    जिस सामान की जरूरत होती, पहुँचा जाते।
 
 पर धीरे-धीरे उन लोगों ने भी खबर लेना छोड़ दिया। एक दिन में 
                    ठीक होनेवाला घाव तो था नहीं। जाँघ की हड्डी चटख गई थी और 
                    कूल्हे में ऑपरेशन से छ: इंच गहरा घाव था।
 
 कस्बे का अस्पताल था। कंपाउंडर ही मरीजों की देखभाल रखते। बड़ा 
                    डॉक्टर तो नाम के लिए था या कस्बे के बड़े आदमियों के लिए। 
                    छोटे लोगों के लिए तो कम्पोटर साहब ही ईश्वर के अवतार थे। 
                    मरीजों की देखभाल करनेवाले रिश्तेदारों की खाने-पीने की 
                    मुश्किलों से लेकर मरीज की नब्ज़ तक सँभालते थे। छोटी-सी इमारत 
                    में अस्पताल आबाद था। रोगियों की सिर्फ छ:-सात खाटें थी। 
                    मरीजों के कमरे से लगा दवा बनाने का कमरा था, उसी में एक ओर एक 
                    आरामकुर्सी थी और एक नीची-सी मेज। उसी कुर्सी पर बड़ा डॉक्टर 
                    आकर कभी-कभार बैठता था, नहीं तो बचनसिंह कंपाउंडर ही जमे रहते। 
                    अस्पताल में या तो फौजदारी के शहीद आते या गिर-गिरा के हाथ-पैर 
                    तोड़ लेनेवाले एक-आध लोग। छठे-छमासे कोई औरत दिख गई तो दीख गई, 
                    जैसे उन्हें कभी रोग घेरता ही नहीं था। कभी कोई बीमार पड़ती तो 
                    घरवाले हाल बताके आठ-दस रोज की दवा एक साथ ले जाते और फिर उसके 
                    जीने-मरने की खबर तक न मिलती।
 
 उस दिन बचनसिंह जगपती के घाव की पट्टी बदलने आया। उसके आने में 
                    और पट्टी खोलने में कुछ ऐसी लापरवाही थी, जैसे गलत बँधी पगड़ी 
                    को ठीक से बाँधने के लिए खोल रहा हो। चंदा उसकी कुर्सी के पास 
                    ही साँस रोके खड़ी थी। वह और रोगियों से बात करता जा रहा था। 
                    इधर मिनट-भर को देखता, फिर जैसे अभ्यस्त-से उसके हाथ अपना काम 
                    करने लगते। पट्टी एक जगह खून से चिपक गई थी, जगपती बुरी तरह 
                    कराह उठा। चंदा के मुँह से चीख निकल गई। बचनसिंह ने सतर्क होकर 
                    देखा तो चंदा मुख में धोती का पल्ला खोंसे अपनी भयातुर आवाज 
                    दबाने की चेष्टा कर रही थी। जगपती एकबारगी मछली-सा तड़पकर रह 
                    गया। बचनसिंह की उँगलियाँ थोड़ी-सी थरथराई कि उसकी बाँह पर 
                    टप-से चंदा का आँसू चू पड़ा।
 
 बचनसिंह सिहर-सा गया और उसके हाथों की अभ्यस्त निठुराई को जैसे 
                    किसी मानवीय कोमलता ने धीरे-से छू दिया। आहों, कराहों, 
                    दर्द-भरी चीखों और चटखते शरीर के जिस वातावरण में रहते हुए भी 
                    वह बिल्कुल अलग रहता था, फोड़ों को पके आम-सा दबा देता था, खाल 
                    को आलू-सा छील देता था उसके मन से जिस दर्द का अहसास उठ गया 
                    था, वह उसे आज फिर हुआ और वह बच्चे की तरह फूँक-फूँककर पट्टी 
                    को नम करके खोलने लगा। चंदा की ओर धीरे-से निगाह उठाकर देखते 
                    हुए फुसफुसाया, "च्...च्... रोगी की हिम्मत टूट जाती है ऐसे।"
 
 पर जैसे यह कहते-कहते उसका मन खुद अपनी बात से उचट गया। यह 
                    बेपरवाही तो चीख और कराहों की एकरसता से उसे मिली थी, रोगी की 
                    हिम्मत बढ़ाने की कर्तव्यनिष्ठा से नहीं। जब तक वह घाव की 
                    मरहम-पट्टी करता रहा, तब तक किन्हीं दो आँखों की करूणा उसे 
                    घेरे रही।
 और हाथ धोते समय वह चंदा की उन चूड़ियों से भरी कलाइयों को 
                    बेझिझक देखता रहा, जो अपनी खुशी उससे माँग रही थीं। चंदा पानी 
                    डालती जा रही थी और बचनसिंह हाथ धोते-धोते उसकी कलाइयों, 
                    हथेलियों और पैरों को देखता जा रहा था। दवाखाने की ओर जाते हुए 
                    उसने चंदा को हाथ के इशारे से बुलाकर कहा, "दिल छोटा मत करना 
                    जाँघ का घाव तो दस रोज में भर जाएगा, कूल्हे का घाव कुछ दिन 
                    जरूर लेगा। अच्छी से अच्छी दवाई दूँगा। दवाइयाँ तो ऐसी हैं कि 
                    मुर्दे को चंगा कर दें। पर हमारे अस्पताल में नहीं आतीं, फिर 
                    भी।"
 "तो किसी दूसरे अस्पताल से नहीं आ सकतीं वो दवाइयाँ?" चंदा ने 
                    पूछा।
 "आ तो सकती हैं, पर मरीज को अपना पैसा खरचना पड़ता है उनमें।" 
                    बचनसिंह ने कहा।
 
 चंदा चुप रह गई तो बचनसिंह के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, 
                    "किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे बताना। रही दवाइयाँ, सो कहीं न 
                    कहीं से इन्तजाम करके ला दूँगा। महकमे से मँगाएँगे, तो 
                    आते-अवाते महीनों लग जाएँगे। शहर के डॉक्टर से मँगवा दूँगा। 
                    ताकत की दवाइयों की बड़ी जरूरत है उन्हें। अच्छा, देखा जाएगा।" 
                    कहते-कहते वह रुक गया।
 चंदा से कृतज्ञता भरी नजरों से उसे देखा और उसे लगा जैसे आँधी 
                    में उड़ते पत्ते को कोई अटकाव मिल गया हो। आकर वह जगपती की खाट 
                    से लगकर बैठ गई। उसकी हथेली लेकर वह सहलाती रही। नाखूनों को 
                    अपने पोरों से दबाती रही।
 
 धीरे-धीरे बाहर अँधेरा बढ़ चला। बचनसिंह तेल की एक लालटेन लाकर 
                    मरीज़ों के कमरे के एक कोने में रख गया। चंदा ने जगपती की कलाई 
                    दाबते-दाबते धीरे से कहा, "कंपाउंडर साहब कह रहे थे।" और इतना 
                    कहकर वह जगपती का ध्यान आकृष्ट करने के लिए चुप हो गई।
 "क्या कह रहे थे?" जगपती अनमने स्वर में बोला।
 "कुछ ताकत की दवाइयाँ तुम्हारे लिए जरूरी हैं!"
 "मैं जानता हूँ।"
 "पर।"
 "देखो चंदा, चादर के बराबर ही पैर फैलाए जा सकते हैं। हमारी 
                    औकात इन दवाइयों की नहीं है।
 "औकात आदमी की देखी जाती है कि पैसे की, तुम तो।"
 "देखा जाएगा।"
 "कंपाउंडर साहब इन्तजाम कर देंगे, उनसे कहूँगी मैं।"
 "नहीं चंदा, उधारखाते से मेरा इलाज नहीं होगा च़ाहे एक के चार 
                    दिन लग जाएँ।"
 "इसमें तो।"
 "तुम नहीं जानतीं, कर्ज कोढ़ का रोग होता है, एक बार लगने से 
                    तन तो गलता ही है, मन भी रोगी हो जाता है।"
 "लेकिन ..." कहते-कहते वह रुक गई।
 जगपती अपनी बात की टेक रखने के लिए दूसरी ओर मुँह घुमाकर लेटा 
                    रहा।
 और तीसरे रोज जगपती के सिरहाने कई ताकत की दवाइयाँ रखी थीं, और 
                    चंदा की ठहरने वाली कोठरी में उसके लेटने के लिए एक खाट भी 
                    पहुँच गई थी। चंदा जब आई, तो जगपती के चेहरे पर मानसिक पीड़ा 
                    की असंख्य रेखाएँ उभरी थीं, जैसे वह अपनी बीमारी से लड़ने के 
                    अलावा स्वयं अपनी आत्मा से भी लड़ रहा हो चंदा की नादानी और 
                    स्नेह से भी उलझ रहा हो और सबसे ऊपर सहायता करनेवाले की दया से 
                    जूझ रहा हो।
 
 चंदा ने देखा तो यह सब सह न पाई। उसके जी में आया कि कह दे, 
                    क्या आज तक तुमने कभी किसी से उधार पैसे नहीं लिए? पर वह तो 
                    खुद तुमने लिए थे और तुम्हें मेरे सामने स्वीकार नहीं करना 
                    पड़ा था। इसीलिए लेते झिझक नहीं लगी, पर आज मेरे सामने उसे 
                    स्वीकार करते तुम्हारा झूठा पौरूष तिलमिलाकर जाग पड़ा है। पर 
                    जगपती के मुख पर बिखरी हुई पीड़ा में जिस आदर्श की गहराई थी, 
                    वह चंदा के मन में चोर की तरह घुस गई, और बड़ी स्वाभाविकता से 
                    उसने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, "ये दवाइयाँ किसी की मेहरबानी 
                    नहीं हैं। मैंने हाथ का कड़ा बेचने को दे दिया था, उसी में आई 
                    हैं।"
 
 "मुझसे पूछा तक नहीं और..." जगपती ने कहा और जैसे खुद मन की 
                    कमजोरी को दाब गया - कड़ा बेचने से तो अच्छा था कि बचनसिंह की 
                    दया ही ओढ़ ली जाती। और उसे हल्का-सा पछतावा भी था कि नाहक वह 
                    रौ में बड़ी-बड़ी बातें कह जाता है, ज्ञानियों की तरह सीख दे 
                    देता है।
 
 और जब चंदा अँधेरा होते उठकर अपनी कोठरी में सोने के लिए जाने 
                    को हुई, तो कहते-कहते यह बात दबा गई कि बचनसिंह ने उसके लिए एक 
                    खाट का इन्तजाम भी कर दिया है। कमरे से निकली, तो सीधी कोठरी 
                    में गई और हाथ का कड़ा लेकर सीधे दवाखाने की ओर चली गई, जहाँ 
                    बचनसिंह अकेला डॉक्टर की कुर्सी पर आराम से टाँगें फैलाए लैम्प 
                    की पीली रोशनी में लेटा था। जगपती का व्यवहार चंदा को लग गया 
                    था, और यह भी कि वह क्यों बचनसिंह का अहसान अभी से लाद ले, पति 
                    के लिए जेवर की कितनी औकात है। वह बेधड़क-सी दवाखाने में घुस 
                    गई। दिन की पहचान के कारण उसे कमरे की मेज-कुर्सी और दवाओं की 
                    अलमारी की स्थिति का अनुमान था, वैसे कमरा अँधेरा ही पड़ा था, 
                    क्योंकि लैम्प की रोशनी केवल अपने वृत्त में अधिक प्रकाशवान 
                    होकर कोनों के अंधेरे को और भी घनीभूत कर रही थी। बचनसिंह ने 
                    चंदा को घुसते ही पहचान लिया। वह उठकर खड़ा हो गया। चंदा ने 
                    भीतर कदम तो रख दिया, पर सहसा सहम गई, जैसे वह किसी अंधेरे 
                    कुएँ में अपने-आप कूद पड़ी हो, ऐसा कुआँ, जो निरन्तर पतला होता 
                    गया है और जिसमें पानी की गहराई पाताल की पर्तों तक चली गई हो, 
                    जिसमें पड़कर वह नीचे धँसती चली जा रही हो, नीचे अँधेरा एकाँत 
                    घुटन पाप!
 
 बचनसिंह अवाक् ताकता रह गया और चंदा ऐसे वापस 
                    लौट पड़ी, जैसे किसी काले पिशाच के पंजों से मुक्ति मिली हो। 
                    बचनसिंह के सामने क्षण-भर में सारी परिस्थिति कौंध गई और उसने 
                    वहीं से बहुत संयत आवाज में जबान को दबाते हुए जैसे वायु में 
                    स्पष्ट ध्वनित कर दिया - "चंदा!" वह आवाज इतनी बे-आवाज थी और 
                    निरर्थक होते हुए भी इतनी सार्थक थी कि उस खामोशी में अर्थ भर 
                    गया।
 चंदा रुक गई।
 बचनसिंह उसके पास जाकर रुक गया।
 सामने का घना पेड़ स्तब्ध खड़ा था, उसकी काली परछाई की परिधि 
                    जैसे एक बार फैलकर उन्हें अपने वृत्त में समेट लेती और दूसरे 
                    ही क्षण मुक्त कर देती। दवाखाने का लैम्प सहसा भभककर रुक गया 
                    और मरीज़ों के कमरे से एक कराह की आवाज दूर मैदान के छोर तक 
                    जाकर डूब गई।
 चंदा ने वैसे ही नीचे ताकते हुए अपने को संयत करते हुए कहा, 
                    "यह कड़ा तुम्हें देने आई थी।"
 "तो वापस क्यों चली जा रही थीं?"
 चंदा चुप। और दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कड़ा 
                    धीरे-से उसकी ओर बढ़ा दिया, जैसे देने का साहस न होते हुए भी 
                    यह काम आवश्यक था।
 बचनसिंह ने उसकी सारी काया को एक बार देखते हुए अपनी आँखें 
                    उसके सिर पर जमा दीं, उसके ऊपर पड़े कपड़े के पार नरम चिकनाई 
                    से भरे लम्बे-लम्बे बाल थे, जिनकी भाप-सी महक फैलती जा रही थी। 
                    वह धीरे-धीरे से बोला, "लाओ।"
 चंदा ने कड़ा उसकी ओर बढ़ा दिया। कड़ा हाथ में लेकर वह बोला, 
                    "सुनो।"
 चंदा ने प्रश्न-भरी नजरें उसकी ओर उठा दी।
 उनमें झाँकते हुए, अपने हाथ से उसकी कलाई पकड़ते हुए उसने वह 
                    कड़ा उसकी कलाई में पहना दिया। चंदा चुपचाप कोठरी की ओर चल दी 
                    और बचनसिंह दवाखाने की ओर।
 
 कालिख बुरी तरह बढ़ गई थी और सामने खड़े पेड़ की काली परछाई 
                    गहरी पड़ गई थी। दोनों लौट गए थे। पर जैसे उस कालिख में कुछ रह 
                    गया था, छूट गया था। दवाखाने का लैम्प जो जलते-जलते एक बार 
                    भभका था, उसमें तेल न रह जाने के कारण बत्ती की लौ बीच से फट 
                    गई थी, उसके ऊपर धुएँ की लकीरें बल खाती, साँप की तरह अंधेरे 
                    में विलीन हो जाती थीं।
 
 सुबह जब चंदा जगपती के पास पहुँची और बिस्तर ठीक करने लगी तो 
                    जगपती को लगा कि चंदा बहुत उदास थी। क्षण-क्षण में चंदा के मुख 
                    पर अनगिनत भाव आ-जा रहे थे, जिनमें असमंजस था, पीड़ा थी और 
                    निरीहता थी। कोई अदृश्य पाप कर चुकने के बाद हृदय की गहराई से 
                    किए गए पश्चाताप जैसी धूमिल चमक?
 
 "रानी मंत्री के साथ जब निराश होकर लौटीं, तो देखा, राजा महल 
                    में उपस्थित थे। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।" माँ सुनाया करती 
                    थीं, "पर राजा को रानी का इस तरह मंत्री के साथ जाना अच्छा 
                    नहीं लगा। रानी ने राजा को समझाया कि वह तो केवल राजा के प्रति 
                    अटूट प्रेम के कारण अपने को न रोक सकी। राजा-रानी एक-दूसरे को 
                    बहुत चाहते थे। दोनों के दिलो में एक बात शूल-सी गड़ती रहती कि 
                    उनके कोई सन्तान न थी राजवंश का दीपक बुझने जा रहा था। सन्तान 
                    के अभाव में उनका लोक-परलोक बिगड़ा जा रहा था और कुल की 
                    मर्यादा नष्ट होने की शंका बढ़ती जा रही थी।"
 
 दूसरे दिन बचनसिंह ने मरीजों की मरहम-पट्टी करते वक्त बताया था 
                    कि उसका तबादला मैनपुरी के सदर अस्पताल में हो गया है और वह 
                    परसों यहाँ से चला जाएगा। जगपती ने सुना, तो उसे भला ही लगा। 
                    आए दिन रोग घेरे रहते हैं, बचनसिंह उसके शहर के अस्पताल में 
                    पहुँचा जा रहा है, तो कुछ मदद मिलती ही रहेगी। आखिर वह ठीक तो 
                    होगा ही और फिर मैनपुरी के सिवा कहाँ जाएगा? पर दूसरे ही क्षण 
                    उसका दिल अकथ भारीपन से भर गया। पता नहीं क्यों, चंदा के 
                    अस्तित्व का ध्यान आते ही उसे इस सूचना में कुछ ऐसे नुकीले 
                    काँटे दिखाई देने लगे, जो उसके शरीर में किसी भी समय चुभ सकते 
                    थे, जरा-सा बेखबर होने पर बींध सकते थे। और तब उसके सामने आदमी 
                    के अधिकार की लक्ष्मण-रेखाएँ धुएँ की लकीर की तरह काँपकर मिटने 
                    लगीं और मन में छुपे सन्देह के राक्षस बाना बदल योगी के रूप 
                    में घूमने लगे।
 
 और पन्द्रह-बीस रोज बाद जब जगपती की हालत सुधर गई, तो चंदा उसे 
                    लेकर घर लौट आई। जगपती चलने-फिरने लायक हो गया था। घर का ताला 
                    जब खोला, तब रात झुक आई थी। और फिर उनकी गली में तो शाम से ही 
                    अँधेरा झरना शुरू हो जाता था। पर गली में आते ही उन्हें लगा, 
                    जैसे कि वनवास काटकर राजधानी लौटे हों। नुक्कड़ पर ही जमुना 
                    सुनार की कोठरी में सुरही फिंक रही थी, जिसके दराजदार दरवाजों 
                    से लालटेन की रोशनी की लकीर झाँक रही थी और कच्ची तम्बाकू का 
                    धुआँ रुँधी गली के मुहाने पर बुरी तरह भर गया था। सामने ही 
                    मुंशीजी अपनी जिंगला खटिया के गड्ढ़े में, कुप्पी के मद्धिम 
                    प्रकाश में खसरा-खतौनी बिछाए मीजान लगाने में मशगूल थे। जब 
                    जगपती के घर का दरवाजा खड़का, तो अंधेरे में उसकी चाची ने अपने 
                    जँगले से देखा और वहीं से बैठे-बैठे अपने घर के भीतर ऐलान कर 
                    दिया - "राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए कुलमाँ भी आई हैं।"
 
 ये शब्द सुनकर घर के अँधेरे बरोठे में घुसते ही जगपती हाँफकर 
                    बैठ गया, झुँझलाकर चंदा से बोला, "अंधेरे में क्या मेरे 
                    हाथ-पैर तुड़वाओगी? भीतर जाकर लालटेन जला लाओ न।"
 "तेल नहीं होगा, इस वक्त जरा ऐसे ही काम।"
 "तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा न तेल न।" कहते-कहते जगपती एकदम 
                    चुप रह गया। और चंदा को लगा कि आज पहली बार जगपती ने उसके 
                    व्यर्थ मातृत्व पर इतनी गहरी चोट कर दी, जिसकी गहराई की उसने 
                    कभी कल्पना नहीं की थी। दोनों खामोश, बिना एक बात किए अन्दर 
                    चले गए।
 रात के बढ़ते सन्नाटे में दोनों के सामने दो बातें थीं-- जगपती 
                    के कानों में जैसे कोई व्यंग्य से कह रहा था - राजा निरबंसिया 
                    अस्पताल से आ गए! और चंदा के दिल में यह बात चुभ रही थी - 
                    तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा।
 
 और सिसकती-सिसकती चंदा न जाने कब सो गई। पर जगपती की आँखों में 
                    नींद न आई। खाट पर पड़े-पड़े उसके चारों ओर एक मोहक, भयावना-सा 
                    जाल फैल गया। लेटे-लेटे उसे लगा, जैसे उसका स्वयं का आकार बहुत 
                    क्षीण होता-होता बिन्दु-सा रह गया, पर बिन्दु के हाथ थे, पैर 
                    थे और दिल की धड़कन भी। कोठरी का घुटा-घुटा-सा अँधियारा, 
                    मटमैली दीवारें और गहन गुफाओं-सी अलमारियाँ, जिनमें से बार-बार 
                    झाँककर देखता था और वह सिहर उठता था फिर जैसे सब कुछ तब्दील हो 
                    गया हो। उसे लगा कि उसका आकार बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा 
                    है। वह मनुष्य हुआ, लम्बा-तगड़ा-तन्दुरूस्त पुरूष हुआ, उसकी 
                    शिराओं में कुछ फूट पड़ने के लिए व्याकुलता से खौल उठा। उसके 
                    हाथ शरीर के अनुपात से बहुत बड़े, डरावने और भयानक हो गए, उनके 
                    लम्बे-लम्बे नाखून निकल आए वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ आदिम 
                    बर्बर!
 
 और बड़ी तेज़ी से सारा कमरा एकबारगी चक्कर काट गया। फिर सब 
                    धीरे-धीरे स्थिर होने लगा और उसकी साँसें ठीक होती जान पड़ीं। 
                    फिर जैसे बहुत कोशिश करने पर घिग्घी बँध जाने के बाद उसकी आवाज 
                    फूटी, "चंदा!"
 
 चंदा की नरम साँसों की हल्की सरसराहट कमरे में जान डालने लगी। 
                    जगपती अपनी पाटी का सहारा लेकर झुका। काँपते पैर उसने जमीन पर 
                    रखे और चंदा की खाट के पाए से सिर टिकाकर बैठ गया। उसे लगा, 
                    जैसे चंदा की इन साँसों की आवाज में जीवन का संगीत गूँज रहा 
                    है। वह उठा और चंदा के मुख पर झुक गया। उस आँधेरे में आँखें 
                    गड़ाए-गड़ाए जैसे बहुत देर बाद स्वयं चंदा के मुख पर आभा फूटकर 
                    अपने-आप बिखरने लगी। उसके नक्श उज्ज्वल हो उठे और जगपती की 
                    आँखों को ज्योति मिल गई। वह मुग्ध-सा ताकता रहा।
 चंदा के 
                    बिखरे बाल, जिनमें हाल के जन्मे बच्चे के गभुआरे बालों की-सी 
                    महक दूध की कचाइंध शरीर के रस की-सी मिठास और स्नेह-सी चिकनाहट 
                    और वह माथा जिस पर बालों के पास तमाम छोटे-छोटे, 
                    नरम-नरम-नरम-से रोएँ रेशम से और उस पर कभी लगाई गई सेंदुर की 
                    बिन्दी का हल्का मिटा हुआ-सा आभास नन्हें-नन्हें निर्द्वन्द्व 
                    सोए पलक! और उनकी मासूम-सी काँटों की तरह बरौनियाँ और साँस में 
                    घुलकर आती हुई वह आत्मा की निष्कपट आवाज की लय फूल की 
                    पंखुरी-से पतले-पतले ओंठ, उन पर पड़ी अछूती रेखाएँ, जिनमें 
                    सिर्फ दूध-सी महक!उसकी आँखों के सामने ममता-सी छा गई, केवल ममता, और उसके मुख से 
                    अस्फुट शब्द निकल गया, "बच्ची!"
 
 डरते-डरते उसके बालों की एक लट को बड़े जतन से उसने हथेली पर 
                    रखा और उँगली से उस पर जैसे लकीरें खींचने लगा। उसे लगा, जैसे 
                    कोई शिशु उसके अंक में आने के लिए छटपटाकर, निराश होकर सो गया 
                    हो। उसने दोनों हथेलियों को पसारकर उसके सिर को अपनी सीमा में 
                    भर लेना चाहा कि कोई कठोर चीज उसकी उँगलियों से टकराई।
 वह जैसे होश में आया।
 बड़े सहारे से उसने चंदा के सिर के नीचे टटोला। एक रूमाल में 
                    बंधा कुछ उसके हाथ में आ गया। अपने को संयत करता वह वहीं जमीन 
                    पर बैठ गया, उसी अँधेरे में उस रुमाल को खोला, तो जैसे साँप 
                    सूँघ गया, चंदा के हाथों के दोनों सोने के कड़े उसमें लिपटे 
                    थे!
 
 और तब उसके सामने सब सृष्टि धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े होकर 
                    बिखरने लगी। ये कड़े तो चंदा बेचकर उसका इलाज कर रही थी। वे सब 
                    दवाइयाँ और ताकत के टॉनिक उसने तो कहा था, ये दवाइयाँ किसी की 
                    मेहरबानी नहीं हैं, मैंने हाथ के कड़े बेचने को दे दिए थे पर 
                    उसका गला बुरी तरह सूख गया। जबान जैसे तालु से चिपककर रह गई। 
                    उसने चाहा कि चंदा को झकाझोरकर उठाए, पर शरीर की शक्ति बह-सी 
                    गई थी, रक्त पानी हो गया था।
 
 थोड़ा संयत हुआ, उसने वे कड़े उसी रूमाल में लपेटकर उसकी खाट 
                    के कोने पर रख दिए और बड़ी मुश्किल से अपनी खाट की पाटी पकड़कर 
                    लुढ़क गया।
 चंदा झूठ बोली! पर क्यों? कड़े आज तक छुपाए रही। उसने इतना 
                    बड़ा दुराव क्यों किया? आखिर क्यों? किसलिए? और जगपती का दिल 
                    भारी हो गया। उसे फिर लगा कि उसका शरीर सिमटता जा रहा है और वह 
                    एक सींक का बना ढाँचा रह गया नितांत हल्का, तिनके-सा, हवा में 
                    उड़कर भटकने वाले तिनके-सा।
 
 उस रात के बाद रोज जगपती सोचता रहा कि चंदा से कड़े माँगकर बेच 
                    ले और कोई छोटा-मोटा कारोबार ही शुरू कर दे, क्योंकि नौकरी छूट 
                    चुकी थी। इतने दिन की गैरहाजिरी के बाद वकील साहब ने दूसरा 
                    मुहर्रिर रख लिया था। वह रोज यही सोचता पर जब चंदा सामने आती, 
                    तो न जाने कैसी असहाय-सी उसकी अवस्था हो जाती। उसे लगता, जैसे 
                    कड़े माँगकर वह चंदा से पत्नीत्व का पद भी छीन लेगा। मातृत्व 
                    तो भगवान ने छीन ही लिया वह सोचता आखिर चंदा क्या रह जाएगी? एक 
                    स्त्री से यदि पत्नीत्व और मातृत्व छीन लिया गया, तो उसके जीवन 
                    की सार्थकता ही क्या? चंदा के साथ वह यह अन्याय कैसे करे? उससे 
                    दूसरी आँख की रोशनी कैसे माँग ले? फिर तो वह नितांत अंधी हो 
                    जाएगी और उन कड़ों की माँगने के पीछे जिस इतिहास की आत्मा नंगी 
                    हो जाएगी, कैसे वह उस लज्जा को स्वयं ही उधारकर ढाँपेगा?
 
 और वह उन्हीं ख़यालों में डूबा सुबह से शाम तक इधर-उधर काम की 
                    टोह में घूमता रहता। किसी से उधार ले ले? पर किस सम्पत्ति पर? 
                    क्या है उसके पास, जिसके आधार पर कोई उसे कुछ देगा? और मुहल्ले 
                    के लोग ज़ो एक-एक पाई पर जान देते हैं, कोई चीज खरीदते वक्त 
                    भाव में एक पैसा कम मिलने पर मीलों पैदल जाकर एक पैसा बचाते 
                    हैं, एक-एक पैसे की मसाले की पुड़िया बँधवाकर ग्यारह मर्तबा 
                    पैसों का हिसाब जोड़कर एकाध पैसा उधारकर, मिन्नतें करते सौदा 
                    घर लाते हैं; गली में कोई खोंचेवाला फँस गया, तो दो पैसे की 
                    चीज को लड़-झगड़कर - चार दाने ज़्यादा पाने की नीयत से - दो 
                    जगह बँधवाते हैं। भाव के जरा-से फर्क पर घंटों बहस करते हैं, 
                    शाम को सड़ी-गली तरकारियों को किफायत के कारण लाते हैं, ऐसे 
                    लोगों से किस मुँह से माँगकर वह उनकी गरीबी के अहसास पर ठोकर 
                    लगाए!
 
 पर उस दिन शाम को जब वह घर पहुँचा, तो बरोठे में ही एक साइकिल 
                    रखी नजर आई। दिमाग पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी वह आगन्तुक की 
                    कल्पना न कर पाया। भीतरवाले दरवाज़े पर जब पहुँचा, तो सहसा 
                    हँसी की आवाज सुनकर ठिठक गया। उस हँसी में एक अजीब-सा उन्माद 
                    था। और उसके बाद चंदा का स्वर -
 "अब आते ही होंगे, बैठिए न दो मिनट और! अपनी आँख से देख लीजिए 
                    और उन्हें समझाते जाइए कि अभी तन्दुरूस्ती इस लायक नहीं, जो 
                    दिन-दिन-भर घूमना बर्दाश्त कर सकें।"
 "हाँ भई, कमजोरी इतनी जल्दी नहीं मिट सकती, खयाल नहीं करेंगे 
                    तो नुकसान उठाएँगे!" कोई पुरूष-स्वर था यह।
 
 जगपती असमँजस में पड़ गया। वह एकदम भीतर घुस जाए? इसमें क्या 
                    हर्ज है? पर जब उसने पैर उठाए, तो वे बाहर जा रहे थे। बाहर 
                    बरोठे में साइकिल को पकड़ते ही उसे सूझ आई, वहीं से जैसे अनजान 
                    बनता बड़े प्रयत्न से आवाज को खोलता चिल्लाया, "अरे चंदा! यह 
                    साइकिल किसकी है? कौन मेहरबान।"
 
 चंदा उसकी आवाज सुनकर कमरे से बाहर निकलकर जैसे खुश-खबरी सुना 
                    रही थी, "अपने कंपाउंडर साहब आए हैं। खोजते-खोजते आज घर का पता 
                    पाए हैं, तुम्हारे इन्तज़ार में बैठे हैं।"
 "कौन बचनसिंह? अच्छा अच्छा। वही तो मैं कहूँ, भला कौन।" कहता 
                    जगपती पास पहुँचा, और बातों में इस तरह उलझ गया, जैसे सारी 
                    परिस्थिति उसने स्वीकार कर ली हो।
 बचनसिंह जब फिर आने की बात कहकर चला गया, तो चंदा ने बहुत 
                    अपनेपन से जगपती के सामने बात शुरू की, "जाने कैसे-कैसे आदमी 
                    होते हैं।"
 "क्यों, क्या हुआ? कैसे होते हैं आदमी?" जगपती ने पूछा।
 "इतनी छोटी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर 
                    बैठ सकते हो? तुम तो उल्टे पैरों लौट आओगे।" चंदा कहकर जगपती 
                    के मुख पर कुछ इच्छित प्रतिक्रिया देख सकने के लिए गहरी 
                    निगाहों से ताकने लगी।
 जगपती ने चंदा की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात भी कहने की या 
                    पूछने की है! फिर बोला, "बचनसिंह अपनी तरह का आदमी है, अपनी 
                    तरह का अकेला।
 "होगा पर" कहते-कहते चंदा रुक गई।
 "आड़े वक्त काम आने वाला आदमी है, लेकिन उससे फायदा उठा सकना 
                    जितना आसान है उतना म़ेरा मतलब है कि जिससे कुछ लिया जाएगा, 
                    उसे दिया भी जाएगा।" जगपती ने आँखें दीवार पर गड़ाते हुए कहा।
 और चंदा उठकर चली गई।
 
 उस दिन के बाद बचनसिंह लगभग रोज ही आने-जाने लगा। जगपती उसके 
                    साथ इधर-उधर घूमता भी रहता। बचनसिंह के साथ वह जब तक रहता, 
                    अजीब-सी घुटन उसके दिल को बाँध लेती, और तभी जीवन की तमाम 
                    विषमताएँ भी उसकी निगाहों के सामने उभरने लगतीं, आखिर वह स्वयं 
                    एक आदमी है बेकार यह माना कि उसके सामने पेट पालने की कोई इतनी 
                    विकराल समस्या नहीं, वह भूखों नहीं मर रहा है, जाड़े में काँप 
                    नहीं रहा है, पर उसके दो हाथ-पैर हैं शरीर का पिंजरा है, जो 
                    कुछ माँगता है कुछ! और वह सोचता, यह कुछ क्या है? सुख? शायद 
                    हाँ, शायद नहीं। वह तो दु:ख में भी जी सकने का आदी है, अभावों 
                    में जीवित रह सकने वाला आश्चर्यजनक कीड़ा है। तो फिर वासना? 
                    शायद हाँ, शायद नहीं। चंदा का शरीर लेकर उसने उस क्षणिकता को 
                    भी देखा है। तो फिर धन शायद हाँ, शायद नहीं। उसने धन के लिए 
                    अपने को खपाया है। पर वह भी तो उस अदृश्य प्यास को बुझा नहीं 
                    पाया। तो फिर? तो फिर क्या? वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में 
                    नासूर-सा रिसता रहता है, अपना उपचार माँगता है? शायद काम! हाँ, 
                    यही, बिल्कुल यही, जो उसके जीवन की घड़ियों को निपट सूना न 
                    छोड़े, जिसमें वह अपनी शक्ति लगा सके, अपना मन डुबो सके, अपने 
                    को सार्थक अनुभव कर सके, चाहे उसमें सुख हो या दुख, अरक्षा हो 
                    या सुरक्षा, शोषण हो या पोषण उसे सिर्फ काम चाहिए! करने के लिए 
                    कुछ चाहिए। यही तो उसकी प्रकृत आवश्यकता है, पहली और आखिरी 
                    माँग है, क्योंकि वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहाँ सिर्फ जबान 
                    हिलाकर शासन करनेवाले होते हैं। वह उस घर में भी नहीं पैदा 
                    हुआ, जहाँ सिर्फ माँगकर जीनेवाले होते हैं। वह उस घर का है, जो 
                    सिर्फ काम करना जानता है, काम ही जिसकी आस है। सिर्फ वह काम 
                    चाहता है, काम।
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