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बड़े-बड़े शहरों के
इक्के-गाड़िवालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है,
और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के
बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएँ।
जब बड़े-बड़े शहरों
की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए,
इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर
करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस
खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर
अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि,
निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब
अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में,
हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर
'बचो खालसाजी।' 'हटो भाई जी।' 'ठहरना भाई जी।' 'आने दो लाला
जी।' 'हटो बाछा।' -- कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और
बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह
खेते हैं।
क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को
हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी
की तरह महीन मार करती हुई।
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