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                       यदि 
                      कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो 
                      उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- 'हट जा जीणे जोगिए; हट जा 
                      करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए।' 
                      समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू 
                      भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने 
                      है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे 
                      बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक 
                      की एक दूकान पर आ मिले।
                      उसके बालों 
                      और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह 
                      अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई 
                      के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो 
                      सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।"तेरे घर कहाँ है?"
 "मगरे में; और तेरे?"
 " माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"
 "अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।"
 "मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं।"
 इतने में 
                      दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों 
                      साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकराकार पूछा, "तेरी 
                      कुड़माई हो गई?"
                      इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और 
                      लड़का मुँह देखता रह गया।
 
                      दूसरे-तीसरे दिन सब्ज़ीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ 
                      अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार 
                      लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?' और उत्तर में वही 
                      'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में 
                      चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध 
                      बोली, "हाँ हो गई।""कब?"
 "कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"
 लड़की भाग 
                      गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में 
                      ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते 
                      पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। 
                      सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की 
                      उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा। (दो)  "राम-राम, 
                      यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हडि्डयाँ अकड़ 
                      गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से। 
                      पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। ज़मीन कहीं दिखती 
                      नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के 
                      साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी 
                      गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन 
                      में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या 
                      कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान 
                      मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते 
                      हैं।" "लहनासिंह, 
                      और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों 
                      'रिलीफ' आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका 
                      करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में 
                      -- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। 
                      लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे 
                      मुल्क को बचाने आए हो।" "चार दिन 
                      तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े 
                      सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर 
                      सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की 
                      देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के 
                      घोड़े -- संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने 
                      लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस 
                      दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे 
                      जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..."  "नहीं तो 
                      सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?" सूबेदार हज़ारसिंह ने 
                      मुसकराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं 
                      चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। 
                      एक तरफ़ बढ़ गए तो क्या होगा?"  "सूबेदार 
                      जी, सच है," लहनसिंह बोला, "पर करें क्या? हडि्डयों-हडि्डयों 
                      में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में 
                      दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक 
                      धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।" "उदमी, उठ, 
                      सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई 
                      का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े 
                      का पहरा बदल ले।" यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर 
                      लगाने लगे।
                       वजीरासिंह 
                      पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाई के बाहर 
                      फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के 
                      बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल 
                      फट गए।
                       लहनासिंह 
                      ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी 
                      के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं 
                      मिलेगा।""हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से 
                      दस धुमा ज़मीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।"
 "लाड़ी 
                      होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी 
                      मेम...""चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।"
 "देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख 
                      तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में 
                      लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा 
                      बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।"
 "अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"
 "अच्छा है।"
 "जैसे मैं 
                      जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और 
                      आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे 
                      आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप 
                      कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा 
                      क्या है, मौत है, और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे 
                      नहीं मिला करते।" "मेरा डर 
                      मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई 
                      कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए 
                      आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।"वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, "क्या मरने-मारने की बात 
                      लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे?"
 दिल्ली शहर 
                      तें पिशोर नुं जांदिए,कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
 कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
 (ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
 क बणाया वे मज़ेदार गोरिये,
 हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
 कौन जानता 
                      था कि दाढ़ियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, 
                      पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो 
                      गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।  (तीन) दोपहर रात 
                      गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली 
                      बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और 
                      लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। 
                      लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और 
                      एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।  "क्यों 
                      बोधा भाई, क्या है?"
                      "पानी पिला दो।"
 लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" 
                      पानी पी कर बोधा बोला, "कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार 
                      दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।"
 "अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"
 "और तुम?"
 "मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा 
                      है।"
 "ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..."
 "हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई 
                      है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला 
                      करें।" यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
 "सच कहते हो?"
 "और नहीं झूठ?" यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती 
                      जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे 
                      पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
 आधा घण्टा 
                      बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज़ आई, "सूबेदार 
                      हज़ारासिंह।""कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी 
                      सलाम करके सामने हुआ।
 "देखो, इसी 
                      समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक 
                      जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज़ियादह जर्मन नहीं हैं। इन 
                      पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव 
                      हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम 
                      यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन 
                      कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ 
                      रहेगा।" "जो हुक्म।"
 चुपचाप सब 
                      तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह 
                      ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने 
                      उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो 
                      गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज़्ज़त हुई। कोई 
                      रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन 
                      साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब 
                      से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना 
                      की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, "लो तुम भी पियो।" आँख 
                      मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, 
                      "लाओ साहब।" हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब 
                      का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के 
                      पटि्टयों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह 
                      कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?"शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका 
                      मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष 
                      से उसकी रेजिमेंट में थे।
 "क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?"
 "लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"
 "नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल 
                      नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे 
                      -
 हाँ- हाँ 
                      -- वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला 
                      रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ने को रह गया था? बेशक पाजी 
                      कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी 
                      न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में 
                      निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों 
                      साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? 
                      आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे। हाँ पर मैंने वह 
                      विलायत भेज दिया - ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो 
                      होंगे?" "हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं 
                      पिया?"
 "पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ" कह कर लहनासिंह खन्दक 
                      में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर 
                      लिया कि क्या करना चाहिए।
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