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                       अंधेरे 
                      में किसी सोने वाले से वह टकराया। "कौन? वजीरसिंह?"
 "हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने दी 
                      होती?"
 (चार) "होश में 
                      आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।" "क्या?"
 "लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी 
                      पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं 
                      देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, 
                      पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?"
 "तो अब!"
 "अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते 
                      फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन 
                      के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए 
                      होंगे।
 सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले 
                      जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत 
                      करो।"
 "हुकुम तो यह है कि यहीं-"
 
 "ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम... जमादार लहनासिंह जो इस 
                      वक्त यहाँ सब से बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन 
                      साहब की ख़बर लेता हूँ।"
 "पर यहाँ तो तुम आठ है।"
 "आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता 
                      है। चले जाओ।"
 लौट कर खाई 
                      के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन 
                      साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को 
                      जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक 
                      तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे 
                      सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जला कर 
                      गुत्थी पर रखने...
                       बिजली की 
                      तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब 
                      की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से 
                      दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर 
                      मारा और साहब 'आँख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए। 
                      लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब 
                      को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। 
                      तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के 
                      हवाले किया।  साहब की 
                      मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला, "क्यों लपटन साहब? मिजाज़ 
                      कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट 
                      पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं 
                      और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि 
                      मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं। और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ 
                      उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डेम' के पाँच 
                      लफ्ज़ भी नहीं बोला करते थे।"
 लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो 
                      जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
 ४४ लहनासिंह 
                      कहता गया, "चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन 
                      साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। 
                      तीन महिने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को 
                      बच्चे होने के ताबीज़ बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। 
                      चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और 
                      कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें 
                      से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। 
                      हिन्दुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के 
                      बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का 
                      राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने 
                      मुल्ला जी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा 
                      था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो..." साहब की 
                      जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर 
                      लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया 
                      कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए। बोधा चिल्लाया, "क्या है?"
 लहनासिंह 
                      ने उसे यह कह कर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, 
                      मार दिया' और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर 
                      तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ 
                      पटि्टयाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पटि्टयों के कसने 
                      से लहू निकलना बन्द हो गया।  इतने में 
                      सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों 
                      की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ 
                      (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे 
                      हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर 
                      जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े से मिनिटों में वे...  अचानक 
                      आवाज़ आई 'वाह गुरु जी की फतह? वाह गुरु जी का खालसा!!' और 
                      धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन 
                      मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से 
                      सूबेदार हज़ारसिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह 
                      के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी 
                      संगीन पिरोना शुरू कर दिया।  एक किलकारी 
                      और... 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरु जी दी फतह! वाह 
                      गुरु जी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!!' और लड़ाई ख़तम हो 
                      गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों 
                      में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से 
                      गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने 
                      घाव को खन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस 
                      कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर न हुई कि लहना को 
                      दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।  लड़ाई के 
                      समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से 
                      संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और 
                      हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 
                      'दन्तवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे 
                      मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं 
                      दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से 
                      सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह 
                      रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।  इस लड़ाई 
                      की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। 
                      उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर 
                      और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के 
                      अन्दार-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह 
                      होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक 
                      गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। 
                      सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर 
                      उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। 
                      बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। 
                      लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा, 
                      "तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो 
                      इस गाड़ी में न चले जाओ।" "और तुम?"
 "मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के 
                      लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते 
                      नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।"
 "अच्छा, पर..."
 "बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, 
                      सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख 
                      देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह 
                      मैंने कर दिया।"
 गाड़ियाँ 
                      चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर 
                      कहा, "तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? 
                      साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने 
                      क्या कहा था?" "अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह 
                      भी देना।"
 गाड़ी के जाते लहना लेट गया। "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा 
                      कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।"
 मृत्यु के 
                      कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्म-भर की 
                      घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ 
                      होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ 
                      है। दहीवाले के यहाँ, सब्ज़ीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक 
                      आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई 
                      हो गई? तब 'धत्' कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही 
                      पूछा, तो उसने कहा, "हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के 
                      फूलोंवाला सालू'' सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। 
                      क्यों हुआ?
 
                      "वजीरासिंह, पानी पिला दे।"
                      पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं ७७ रैफल्स में जमादार हो 
                      गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह 
                      कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के 
                      मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के 
                      अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। 
                      साथ ही सूबेदार हज़ारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह 
                      भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही 
                      चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे 
                      बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
 जब चलने 
                      लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला, "लहना, 
                      सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।" लहनासिंह 
                      भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के 
                      क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। 
                      दरवाज़े पर जा कर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह 
                      चुप। मुझे पहचाना?"
 "नहीं।"
 ''तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी 
                      बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -''
 भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह 
                      निकला।
 ''वजीरा, पानी पिला।''  'उसने कहा था।'
 स्वप्न चल 
                      रहा है। सूबेदारनी कह रही है, "मैंने तेरे को आते ही पहचान 
                      लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने 
                      बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज 
                      नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक 
                      घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ 
                      चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। 
                      उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।'' सूबेदारनी रोने 
                      लगी। ''अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन 
                      टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। 
                      तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में 
                      चले गए थे, और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया 
                      था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे 
                      आगे आँचल पसारती हूँ।'' 
                       रोती-रोती 
                      सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर 
                      आया। ''वजीरासिंह, पानी पिला'' ... 'उसने कहा था।'
 लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब 
                      माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, 
                      फिर बोला, "कौन! कीरतसिंह?"
 वजीरा ने कुछ समझकर कहा, "हाँ।"
 "भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।" 
                      वजीरा ने वैसे ही किया।
 "हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम 
                      खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना 
                      बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म 
                      हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।"
 वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
 कुछ दिन 
                      पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा... फ्रान्स और बेलजियम... 
                      ६८ वीं सूची... मैदान में घावों से मरा... नं ७७ सिख राइफल्स 
                      जमादार लहनसिंह।
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