"बंदी!"
"क्या है? सोने दो।"
"मुक्त होना चाहते हो?"
"अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।"
"फिर अवसर न मिलेगा।"
"बड़ा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त
करता।"
"आँधी की संभावना है। यही एक अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल
हैं।"
"तो क्या तुम भी बंदी हो?"
"हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी है।"
"शस्त्र मिलेगा?"
"मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?"
"हाँ।"
समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने
लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन
खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को
स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का
असंभावित आलिंगन। दोेनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दूसरे
बंदी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी
ने कहा-"यह क्या? तुम स्त्री हो?"
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