"मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा और
सुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार में है
महानाविक! परंतु मुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनी लगती है,
जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य लाद
कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे - इस जल में अगणित बार हम
लोगों की तरी आलोकमय प्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति
में - थिरकती थी। बुधगुप्त! उस विजन अनंत में जब माँझी सो
जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रम से थककर पालों
में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मँुह क्यों देखते थे? वह
नक्षत्रों की मधुर छाया "
"तो चंपा! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं।
तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।"
"नहीं - नहीं, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी परंतु हृदय वैसा ही
अकरूण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। तुम भगवान के नाम पर हँसी
उड़ाते हो। मेरे आकाशदीप पर व्यंग कर रहे हो। नाविक! उस
प्रचंड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने
व्याकुल थे। मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी
पर समुद्र में जाते थे - मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की
पिटारी में भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी।
उस समय वह प्रार्थना करती - "भगवान्! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक
को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना।" और जब मेरे पिता बरसों पर
लौटते तो कहते - "साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने
संकटों में मेरी रक्षा की है।" वह गद्गद हो जाती। मेरी माँ?
आह नाविक! यह उसी की पुण्य-स्मृति है। मेरे पिता, वीर पिता
की मृत्यु के निष्ठुर कारण, जल-दस्यु! हट जाओ।" - सहसा चंपा
का मुख क्रोध से भीषण होकर रंग बदलने लगा। महानाविक ने कभी
यह रूप न देखा था। वह ठठाकर हँस पड़ा।
"यह क्या, चंपा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो।" - कहता हुआ
चला गया। चंपा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही।
निर्जन समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बिखर जाती
थीं। पश्चिम का पथिक थक गया था। उसका मुख पीला पड़ गया। अपनी
शांत गंभीर हलचल में जलनिधि विचार में निमग्न था। वह जैसे
प्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था।
चंपा और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खड़ी हो गई। तरंग से
उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जया के
संकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोेनों के उस पर बैठते ही
नाविक उतर गया। जया नाव खेने लगी। चंपा मुग्ध-सी समुद्र के
उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी।
"इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी। पी सकँूगी?
नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर सिंधु चिल्ला उठता है, उसी
के समान रोदन करूँ?
या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनंत जल में डूबकर बुझ जाऊँ?"
- चंपा के देखते-देखते पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिंब
धीरे-धीरे सिंधु में चौथाई-आधा, फिर संपूर्ण विलीन हो गया।
एक दीर्घ निश्वास लेकर चंपा ने मुँह फेर लिया। देखा, तो
महानाविक का बजरा उसके पास है। बुधगुप्त ने झुककर हाथ
बढ़ाया। चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गई। दोेनों पास-पास बैठ
गए।
"इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न
शैलखंड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चंपा तो?"
"अच्छा होता, बुधगुप्त! जल में बंदी होना कठोर प्राचीरों से
तो अच्छा है।"
"आह चंपा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो
तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे लिए नए द्वीप की
सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नए राज्य बना सकता
है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो ।़कहो, चंपा! वह कृपाण से
अपना हृदय-पिंड निकाल अपने हाथों अतल जल में विसर्जन कर दे।"
- महानाविक - जिसके नाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश
गँूजता था, पवन थर्राता था - घुटनों के बल चंपा के सामने
छलछलाई आँखों से बैठा था।
सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में
नील पिंगल संध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल
छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी।उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण
नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा। जैसे मदिरा से सारा अंतरिक्ष
सिक्त हो गया। सृष्टि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से पागल
चंपा ने बुधगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिए। वहाँ एक आलिंगन
हुआ, जैसे क्षितिज में आकाश और सिंधु का। किंतु उस परिरंभ
में सहसा चैतन्य होकर चंपा ने अपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल
लिया।
"बुधगुप्त! आज मैं अपने प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डुबा
देती हूँ। हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया!" - चमककर वह
कृपाण समुद्र का हृदय वेधता हुआ विलीन हो गया।
"तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?" -
आश्चर्य-कंपित कंठ से महानाविक ने पूछा।
"विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त! जब मैं अपने हृदय पर
विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ?
मैं तुम्हें घृणा करती हूँ फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ।
अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।" - चंपा रो पड़ी।
वह स्वप्नों की रंगीन संध्या, तम से अपनी आँखें बंद करने लगी
थी। दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा - "इस जीवन की
पुण्यतम घड़ी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊंगा, चंपा!
यहीं उस पहाड़ी पर। संभव है कि मेरे जीवन की धँुधली संध्या
उससे आलोकपूर्ण हो जाए!"
चंपा के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दूर तक
सिंधु-जल में निमग्न थी। सागर का चंचल जल उस पर उछलता हुआ
उसे छिपाए था। आज उसी शैलमाला पर चंपा के आदि-निवासियों का
समारोह था। उन सबों ने चंपा को वनदेवी-सा सजाया था।
ताम्रलिप्ति के बहुत-से सैनिक नाविकोंे की श्रेणी में
वन-कुसुम-विभूषिता चंपा शिविकारूढ़ होकर जा रही थी।
शैल के एक ऊँचे शिखर पर चंपा के नाविकों को सावधान करने के
लिए सुदृढ़ दीप-स्तंभ बनवाया गया था। आज उसी का महोत्सव है।
बुधगुप्त स्तंभ के द्वार पर खड़ा था। शिविका से सहायता देकर
चंपा को उसने उतारा। दोेनों ने भीतर पदार्पण किया था कि
बाँसुरी और ढ़ोल बजने लगे। पंक्तियों में कुसुम-भूषण से सजी
वन-बालाएँ फूल उछालती हुई नाचने लगी।
दीप-स्तंभ की ऊपरी खिड़की से यह देखती हुई चंपा ने जया से
पूछा - "यह क्या है जया? इतनी बालिकाएँ कहाँ से बटोर लाई?"
"आज रानी का ब्याह है न?" - कहकर जया ने हँस दिया।
बुधगुप्त विस्तृत जलनिधि की ओर देख रहा था। उसे झकझोरकर चंपा
ने पूछा - "क्या यह सच है?"
"यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चंपा!
कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाए हूँ।"
"चुप रहो, महानाविक! क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर
तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?"
"मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दूसरे
दस्यु के शस्त्र से मरे!"
"यदि मैं इसका विश्वास कर सकती। बुधगुप्त, वह दिन कितना
सुंदर होता, वह क्षण कितना स्पृहणीय! आह! तुम इस निष्ठुरता
में भी कितने महान् होते!"
जया नीचे चली गई थी। स्तंभ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुप्त
और चंपा एकांत में एक-दूसरे के सामने बैठे थे।
बुधग्ुप्त ने चंपा के पैर पकड़ लिए। उच्छ्वसित शब्दों में वह
कहने लगा - "चंपा, हम लोग जन्मभूमि- भारतवर्ष से कितनी दूर
इन निरीह प्राणियों में इंद्र और शची के समान पूजित हैं।
स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा!
मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परंतु मैं क्यों नहीं
जाता? जानती हो, इतना महत्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल
हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से
चंद्रकांत मणि ही तरह द्रवित हुआ।
"चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं
दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर
मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम
न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित
हो गई हो। आलोक की एक कोमल रेखा इस निविड़तम में मुस्कुराने
लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शांत और एकांत
कामना की हँसी खिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका!
"चलोगी चंपा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लादकर राजरानी-सी
जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत
के लिए प्रस्थान करें। महानाविक बुधगुप्त की आज्ञा सिंधु की
लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस पोत-पुंज को दक्षिण पवन के
समान भारत में पहुँचा देंगी। आह चंपा! चलो।"
चंपा ने उसके हाथ पकड़ लिए। किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के
लिए दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चंपा ने
कहा - "बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है;
सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान
प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय
नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और
मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्रणियों के दुख की
सहानुभूति और सेवा के लिए।"
"तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर
अधिकार रख सकँू - इसमें संदेह है। आह! उन लहरों में मेरा
विनाश हो जाए।" - महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर
उसने पूछा - "तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?"
"पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जलाकर
अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किन्तु
देखती हूँ , मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाशदीप।"
एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तंभ
पर से देखा - सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चम्पा का उपकूल
छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महाजल-व्याल के समान संतरण कर रही
है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उस
दीप-स्तंभ में आलोक जलाती रही। किंतु उसके बाद भी बहुत दिन,
द्वीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की
समाधि-सदृश पूजा करते थे।
एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा
दिया। |