"क्या स्त्री होना कोई पाप है?" - अपने को अलग करते हुए
स्त्री ने कहा।
"शस्त्र कहाँ है - तुम्हारा नाम?"
"चंपा।"
तारक-खचित नील अंबर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा
था। अंधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आंदोलन
था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढ़कने लगी।
एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका
कृपाण निकालकर, फिर लुढ़कते हुए, बन्दी के समीप पहुंच गई।
सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा - "आँधी!"
आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बंदी युवक
उसी तरह पड़ा रहा। किसी ने रस्सी पकड़ी, कोई पाल खोल रहा था।
पर युवक बंदी ढुलककर उस रज्जु के पास पहुंचा, जो पोत से
संलग्न थी। तारे ढंक गए। तरंगे उद्वेलित हुई, समुद्र गरजने
लगा। भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में
लेकर कंदुक-क्रीड़ा और अट्टहास करने लगी।
एक झटके के साथ ही नाव स्वतंत्र थी। उस संकट में भी दोनों
बंदी खिलखिला कर हंस पड़े। आँधी के हाहाकार में उसे कोई न
सुन सका।
अनंत जलनिधि में उषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और
लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शांत था। नाविकों
ने देखा, पोत का पता नहीं। बंदी मुक्त हैं।
नायक ने कहा - "बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?"
कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा - "इसने।"
नायक ने कहा - "तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।"
"किसके लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा - नायक! अब
इस नौका का स्वामी मैं हूं।"
"तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं।" - चौंककर नायक ने कहा
और अपना कृपाण टटोेलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस पर अधिकार
कर लिया था। वह क्रोध से उछल पड़ा।
"तो तुम द्वंद्वयुद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी
होगा, वह स्वामी होगा।" - इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने
का संकेत किया। चंपा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।
भीषण घात-प्रतिघात आरंभ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित
गतिवाले थे। बड़ी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों
से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर लिए। चंपा भय और
विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गए। परंतु बुधगुप्त
ने लाघव से नायक का कृपाणवाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुxकार
से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण
प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण उसके हाथों
में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।
बुधगुप्त ने कहा - "बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?"
"मैं अनुचर हूX, वरूणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं
करूँगा।" बुधगुप्त ने उसे छोड़ दिया।
चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी
स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना-विहीन कर दिया।
बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिंदु विजय-तिलक कर रहे थे।
विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा,"हम लोग कहाँ होंगे?"
"बालीद्वीप सें बहुत दूर, संभवत: एक नवीन द्वीप के पास,
जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के
वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।"
"कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?"
"अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में। तब तक के लिए खाद्य का
अभाव न होगा।"
सहसा नायक ने नाविकों को डाँड लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं
पतवार पकड़कर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा -
"यहाँ एक जलमग्न शैलखंड है। सावधान न रहने से नाव टकराने का
भय है।"
"तुम्हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?"
"वाणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने।"
"तुम्हारा घर कहाँ है?"
"जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ।
पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का
देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी।
आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय
मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास
हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक
अनंतता में निस्सहाय हूँ -अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन
घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाई। उसी दिन से
बंदी बना दी गई।" - चंपा रोष से जल रही थी।
"मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चंपा! परंतु
दुर्भाग्य से जलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या
करोगी?"
"मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले
जाए।" - चंपा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरुद्देश्य थीं।
किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के
सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप
गया। उसके मन में एक संभ्रमपूर्ण श्रद्धा यौवन की पहली लहरों
को जगाने लगी। समुद्र-वृक्ष पर विलंबमयी राग-रंजित संध्या
थिरकने लगी। चंपा के असंयत कुंतल उसकी पीठ पर बिखरे थे।
दुर्दांत दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरूण
बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई
वस्तु का पता चला। वह थी - कोमलता!
उसी समय नायक ने कहा - "हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।"
बेला से नाव टकराई। चंपा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी
उतरे। बुधगुप्त ने कहा - "जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम
लोग इसे चंपा-द्वीप कहेंगे।"
चंपा हँस पड़ी।
पाँच बरस बाद -
शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चंद्र की
उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के
फूलों और खीलों को बिखेर दिया।
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरूणी चंपा दीपक जला रही थी।
बड़े यत्न से अभ्र्रक की मंजुषा में दीप धर कर उसने अपनी
सुकुमार ऊँगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढ़ने लगा।
भोली-भाली आँखें उसे ऊपर चढ़ते हर्ष से देख रही थीं। डोरी
धीरे-धीरे खींची गई। चंपा की कामना थी कि उसका आकाशदीप
नक्षत्रों से हिलमिल जाए; किंतु वैसा होना असंभव था। उसने
आशाभरी आँखें फिरा लीं।
सामने जल-राशि का रजत शृंगार था। वरूण बालिकाओं के लिए
लहरों से हीरे
और नीलम की क्रीड़ा शैल-मालाएँ बन रही थीं - और वे मायाविनी
छलनाएँ -
अपनी हँसी का कलनाद छोड़कर छिप जाती थीं। दूर-दूर से धीवरों
का
वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था। चंपा ने देखा कि
तरल संकुल जलराशि में उसके कंदील का प्रतिबिंब अस्तव्यस्त
था! वह अपनी पूर्णता के लिए सैंकड़ों चक्कर काटता था। वह
अनमनी होकर उठ खड़ी हुई। किसी को पास न देखकर पुकारा -
"जया!"
एक श्यामा युवती सामने आकर खड़ी हुई। वह जंगली थी। नील
नभोमंडल - से मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान
उसके दाँत हँसते ही रहते। वह चंपा को रानी कहती; बुधगुप्त की
आज्ञा थी।
"महानाविक कब तक आयेंगे, बाहर पूछो तो।" चंपा ने कहा। जया
चली गई।
दूरागत पवन चंपा के अंचल में विश्राम लेना चाहता था। उसके
हृदय में गुदगुदी हो रही थी। आज न जाने क्यों वह बेसुध थी।
एक दीर्घकाय दृढ़ पुरूष ने उसकी पीठ पर हाथ रख चमत्कृत कर
दिया। उसने फिर कर कहा - "बुधगुप्त!"
"बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो,
तुम्हें यह काम करना है?"
"क्षीरनिधिशायी अनंत की प्रसन्नता के लिए क्या दासियों से
आकाशदीप जलवाऊँ?"
"हँसी आती है। तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो?
उसको, जिसको तुमने भगवान मान लिया है?"
"हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं; नहीं तो, बुधगुप्त को
इतना ऐश्वर्य क्यों देते?"
"तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपारानी!" |